शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

बस्तर में जीवन इतना सस्ता क्यों है?

- ग्लैडसन डुंगडुंग -

छत्तीसगढ़ का बस्तर प्रमंडल सीआरपीएफ के बहादुर जवानों द्वारा आदिवासी महिलाओं का बलात्कार करने के कारण एक बार फिर से सुर्खियों में है। लेकिन केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, औद्योगिक घराना, राजनीतिक पार्टी एवं देश के बहुसंख्यक मध्यवर्ग के लोगों को इसे कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि यह समाचार देश के जीडीपी ग्रोथ, छत्तीसगढ़ की आर्थिक तरक्की, खनन पट्टा का सौदा, वोट बटोरने की राजनीति या सरकार एवं औद्योगिक घरानों के गंठजोड़ से मध्यवर्ग को होने वाला फायदा से संबंधित नहीं है। छत्तीसगढ़ में ‘नक्सल मारो अभियान’ से जुड़े सीआरपीएफ के जवानों ने 19 से 22 अक्टूबर 2015 तक बस्तर प्रमंडल के बीजापुर जिले अन्तर्गत बड़ागुड़ा थाना के चिन्नागेलूर, पेदागेलूर, गोदेम और भूर्गीचेरू समेत कई गांवों में माओवादियों की तलाशी के नाम पर आदिवासियों के घरों में लूटपाट की, पुरूषों को उनके घरों से बलपूर्वक निकालकर महिलाओं के साथ बलात्कार किया। बलात्कार पीड़ित चार महिलाओं ने बीजापुर जिले के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक के समक्ष अपना बयान दर्ज कराया। 

बीजापुर के पुलिस अधीक्षक के.एल. ध्रुव ने घटना की पुष्टि करते हुए कहा कि वे इस मामले में जांच कर रहे हैं। उक्त जवानों ने इन चार महिलाओं के अलावा कई और लड़कियों के साथ बलात्कार किया है लेकिन वे डर से अपना मुंह नहीं खोल पा रही हैं। आश्चार्य करने वाली बात यह है कि बस्तर रेंज के आईजी एस.आर.पी. कल्लूरी को इस अमानवीय वरदात के बारे में पता तक नहीं है। वे कहते हैं कि उनकी जानकारी में ऐसी कोई घटना नहीं है। लेकिन उन्होंने आश्वासन दिया है कि महिलाओं की जो भी शिकायत है, वे एसपी को लिखित में दे दें और वे उसपर कार्रवाई करेंगे। अब सवाल यह है कि जब कल्लूरी घटना की जानकारी लेने के बदले इसे सिरे से खारिज कर रहे हैं तथा कई जिलों में एसपी के पद पर रहते उनका रवैया कैसा था यह सब जानते हैं? ऐसे में उनसे कोई न्याय की उम्मीद कैसे कर सकता है? विगत एक दशक के अनुभव से बस्तर में न्याय की उम्मीद बेईमानी लगती है। 

बस्तर के आदिवासी विगत एक दशक से राज्य प्रायोजित हिंसा के चपेट में है, जिसे केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने आर्थिक तरक्की, देश के विकास एवं सुरक्षा बलों के गौरव के नाम पर जंगलों के अंदर दफन करके रखा है। और जब कभी बर्बता की पोटली खुलती भी है तो माओवादियों को इसके लिए जिम्मवार ठहरा दिया जाता है। सुरक्षा बलों ने नक्सल मारो अभियान के दौरान निर्दोष आदिवासियों की हत्या, आदिवासी महिलाओं का बलात्कार और निर्दोष ग्रामीणों पर अत्याचार की है। बावजूद इसके ना केन्द्र और ना ही राज्य सरकार ने इस मसले को कभी गंभीरता से हल करने का प्रयास किया है। एक लोकतंत्रिक देश में कोई सरकार इतना लापरवाह कैसे हो सकता है? कैसे कोई लंबे समय तक एक समस्या को बरकरा रख सकता है? क्या सरकारों का एसा रवैया सिर्फ इसलिए है क्योंकि इस अत्याचार का सरोकार सिर्फ आदिवासियों से है?

बस्तर प्रमंडल एक अलग देश जैसा प्रतीत होता है, जहां सिर्फ और सिर्फ बंदूक का शासन चलता है। वैसे प्रशासनिक तौर पर इस प्रमंडल के अन्तर्गत बस्तर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, नरायणपुर, सुकमा, कांकेर एवं कोंडागांव जिले आते हैं। नये राज्य के गठन से पहले यह मध्यप्रदेश का हिस्सा था। 1999 में बस्तर को एक अलग प्रमंडल घोषित किया गया, जिसके अन्तर्गत बस्तर, दंतेवाड़ा और कांकेर जिले थे। 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ और बस्तर सुर्खियों में छा गया क्योंकि यहां देश का 18 प्रतिशत लौह-अयस्क है इसलिए इसे एक आर्थिक रूप से उभरता राज्य के रूप में दिखाया जाने लगा। लेकिन इसके पीछे आदिवासियों का छुपा दर्द को सामने लाने का कभी भी ईमानदार कोशिश नहीं की गई। पारंपरिक रूप में यह क्षेत्र दंडाकरणया के रूप में प्रसिद्ध है। यहां अबूझमाड़ एक ऐसा वन क्षेत्र है जो 1500 वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है, जिसका न ब्रिटिश हुकूमत और न ही भारत सरकार ने कभी सर्वे किया। 1980 के दशक में राज्य सरकार ने इस क्षेत्र में आम लोगों के प्रवेश पर रोक लगा दिया था, जिसे 2009 में प्रतिबंधित क्षेत्र से मुक्त कर दिया गया। देश का सबसे ताकतवर नक्सली संगठन ‘माओवादी’ का लड़ाकू दस्ता ‘पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी’ यहां अपना सरकार चलाती है।

नक्सलियों के बस्तर आने की कहानी भी कुछ अलग ही है। 1979 में पीपुल्स वार ग्रुप के बड़े नेताओं ने खाने के मेज पर चर्चा करते समय देश में एक ‘गुरिल्ला जोन’ स्थापित करने की परिकल्पना की, जिसके लिए उन्हें एक ऐसा सुरक्षित क्षेत्र चाहिए था जहां सरकार की कोई पहुंच न हो जिससे युद्ध के समय उनके लड़ाकों को आराम करने एवं स्वयं को पुनः संगठित करने का मौका मिल सके। इस तरह से बस्तर का अबूझमाड़ जंगल उनका ठिकाना बना, जो छत्तीसगढ़, अंध्रपदेश, महाराष्ट्र एवं ओडिसा के बीच में स्थित है। यहां यह बात बहुत स्पष्ट है कि नक्सली बस्तर में आदिवासियों को न्याय दिलाने के लिए नहीं आये थे बल्कि सुरक्षित स्थान की तलाश ने उन्हें बस्तर पहुंचाया था इसलिए आदिवासियों को उनसे ज्यादा उम्मीद करना भी बेईमानी होगा।  

जब पीपुल्स वार ग्रुप का दस्ता बस्तर में प्रवेश किया तो उन्होंने स्वयं को स्थापित करने के लिए रातों में गांवों में बैठक कर वहां के स्थानीय समस्याओं की पहचान की। इसके बाद उन्होंने आदिवासियों को कम मजदूरी देने वाले फोरेस्टर एवं ठेकेदारों को धमकाया। उन्होंने शिक्षकों एवं स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों को भी धमकाया जो बिना विद्यालय व स्वास्थ केन्द्र गये वेतन उठा रहे थे। इसके अलावा राजस्व कर्मचारियों एवं पुलिस को भी धमकाया जो आदिवासियों से हरेक काम के लिए पैसे की मांग करते थे। नक्सलियों ने वहां के दुकानदारों को भी धमकाया जो आदिवासियों को ठगते थे। इस तरह से दो-तीन वर्षों के अंदर में ही उन्होंने आदिवासियों का विश्वास जीत लिया। 2004 में जब पीपुल्स वार ग्रुप और एम.सी.सी. ने मिलकर सीपीआई माओवादी का गठन किया तो यह इलाका माओवादियों का सबसे बड़ा ‘लिबरेटेड जान’ के रूप में स्थापित हो गया, जहां उनकी सरकार चलने लगी।  

देश के राजनीतिक मानचित्र में नये राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ की स्थापना के साथ ही यहां एक तरफ जहां नक्सल मारो अभियान की शुरूआत हुई तो वहीं मिनरल पोलिसी बनाकर छत्तीसगढ़ सरकार ने पूंजीपतियों को खुल्ला आमंत्रण भी दे दिया। 2005 में शांति अभियान के नाम पर ‘सलवा जुड़ूम’ की शुरूआत हुई तो वहीं टाटा एवं एस्सर कंपनियों के साथ बस्तर में स्टील फैक्ट्री लगाने हेतु एम.ओ.यू. पर दस्तखत भी किया गया। 2006 में सलवा जुडूम का सरकारीकरण हो गया और आदिवासी युवाओं के हांथों बंदूक थमाकर अपने ही लोगों की निर्मम हत्या, बलात्कार और उनके घरों को जलाने का आदेश दे दिया गया। इस तरह से सलवा जुड़म के शांतिदूतों ने बस्तर में तबाही मचाकर 644 गांवों के 3 लाख आदिवासियों को खदेड़ दिया। इनमें से लगभग 1 लाख लोग सलवा जुड़ूम कैप में रहने के लिए मबजूर किये गये एवं 50,000 लोग अंधप्रदेश की ओर पलायन कर गये और 1.50 लाख लोग जहां-तहां अपनी जान बचाने के लिए चले गए। सलवा जुडूम में 700 लोगों की हत्या की गई एवं 500 महिलाओं के साथ बलात्कार, बदसलूकी और यौन शोषण किया गया। इसी बीच राज्य प्रायोजित हिंसा को दफन करने के लिए ‘‘उभरता छत्तीसगढ़’’ का नारा दिया गया और खाली किये गये गांवों में टाटा, जिंदल, एस्सार, भूषण स्टील जैसी कंपनियों को जमीन दे दी गई।  

2009 में केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों के साथ मिलकर देश में सबसे बड़ा नक्सल मारो अभियान की शुरूआत की, जिसे ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ का नाम दिया गया था। हालांकि तब देश के गृहमंत्री पी. चिदंबरम इसे मीडिया की उपज बताकर इसे खारिज करते रहे। लेकिन सबको पता है कि ‘बिना आग का धुआं नहीं उठता’ और उस समय छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ने ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ का बखूबी से प्रचार-प्रसार भी किया। नक्सल मारो अभियान ने नक्सलियों को तो कम नुक्शान पहुंचाया लेकिन इसमें सुरक्षा बल के जवानों और निर्दोष आदिवासियों के लाशों की झड़ी लग गयी। माओवादियों ने 6 अप्रैल 2010 को दंतेवाड़ा जंगल में सीआरपीएफ के 76 जवानों को मौत के घाट उतार दिया, जो अबतक का सबसे बड़ा नक्सली हमला था। इन्होंने 17 मई 2010 को दंतेवाड़ा-सुकमा मार्ग पर यात्री बस पर हमला किया जिसमें 15 पुलिस जवान एवं 20 आम नागरिक मारे गये। इसी तरह 29 जून 2010 को नरायणपुर में सीआरपीएफ के 26 जवानों को मौत के घाट उतार दिया एवं 25 मई 2013 को सुकमा में कांग्रेस पार्टी की रैली में हमला बोलकर छत्तीसगढ़ कांग्रेस का सफाया कर दिया। 11 मार्च 2014 को दरभा घाटी में हमला कर 15 जवानों को मौत के घाट उतार दिया, जिसमें 1 आम नागरिक, 3 पुलिसकर्मी एवं सीआरपीएफ के 11 जवान शामिल हैं। इसी तरह 1 दिसंबर 2014 को सुकमा में हमला किया जिसमें सीआरपीएफ के 14 जवान मारे गये एवं 12 घायल हुए। 

एक तरफ जहां माओवादियों ने सुरक्षा बल के जवानों पर लगातार हमला बोलकर उनका कमर तोड़ दिया तो वहीं पुलिस, सीआरपीएफ एवं कोबरा जवान माओवादियों के बदले निर्दोष आदिवासियों पर टूट पड़े। 11 एवं 16 मार्च, 2011 को कोया कमांडो, केन्द्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स एवं कोबरा बटालियन के जवानों ने माओवादियों के खिलाफ चलाये जा रहे ‘‘नक्सल विरोधी अभियान’’ के दौरान छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिलान्तर्गत टिमापुरम, मोरापल्ली एवं तरमेटला गांव के 300 घरों को सारा समान सहित जला डाला, 5 आदिवासियों की हत्या की एवं 5 आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार किया। इसी तरह 28 जून 2012 को बीजापुर जिले के कोट्टागुड़ा गांव में कोट्टागुड़ा, सरकेगुड़ा और राजपेटा गांवों के आदिवासी जब अपना परंपरागत उत्सव ‘‘बीजपेंडुम’’ (बीजोत्सव) के आयोजन की योजना बनाने के मकसद से बैठक कर रहे थे, जिसमें हमला कर 7 नाबालिकों सहित 18 आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया। 17 मई 2013 की रात बीजापुर जिले के इडेस्मेटा गांव में बीजोत्सव मना रहे आदिवासियों पर गोली चलाकर 4 नाबालिकों सहित 8 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। 6 जनवरी 2015 को लकड़ी काटने गये भीमा नूपो को पुलिस ने उसकी पत्नी के सामने गोली मार दी और उसके गांव में तंडाव मचा दिया। देखा जाये तो बस्तर में हरेक सप्ताह कहीं हत्या, कहीं बलात्कार तो कहीं बर्बरता की घटना होती है लेकिन राष्ट्रीय मीडिया के लिए सुर्खियां नहीं बनती। अब सवाल यह उठता है कि आदिवासियों के साथ ऐसा क्यों हो रहा है?

यह आम तौर पर लोगों को पता है कि आदिवासियों के साथ ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि भारतीय शासनतंत्र अमूमन यह विश्वास करता है कि देशभर में जगलों में रहनेवाले आदिवासी माओवादी या नक्सली हैं, जो देश में पूंजीनिवेश के वातावरण के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं। भारत के पूर्व अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह यहां के नागरिकों के संवैधानिक अधिकार के बजाये हमेशा पूंजीनिवेश को लेकर चिंतित रहते थे और अब वहीं कम नरेन्द्र मोदी बढ़चढ़कर कर रहे हैं। 9 मई 2015 को बस्तर दौरे के समय मोदी ने स्पष्ट कह दिया कि विकास ही नक्सल समस्या का हल है और उनके विकास का सीधा अर्थ जमीन, नदी, जंगल, पहाड़ और खनिज को पूंजीपतियों के हाथों में सौप देना। उन्होंने 24,000 करोड़ के नये परियोजनाओं का उदघाटन भी किया। दरअसल भारत सरकार आदिवासी क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों पर किसी भी कीमत पर कब्जा करना चाहती है, जो कि देश को महाशक्ति बनने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। इसीलिए विकास और प्रगति के नाम पर जल, जंगल, जमीन, खनिज और अन्य संसाधन भारतीय राज्य को सौंपने से इनकार कर चुके आदिवासियों की हत्या, बलात्कार और अत्याचार करने के लिए आदिवासी इलाकों में सुरक्षाबलों को भर दिया गया है ताकि वे तंग आकर वहां से कहीं और चले जायेंगे। लेकिन सवाल यह है कि वे कहां जायेंगे? बावजूद इसके आदिवासियों का मुद्दा कभी भी राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाना भी दुःखद है। 

विगत दिनों गोमांस खाने व रखने के अशांका में अखलक मारा गया। देश भर में हंगामा हुआ। देश में बढ़ते असहिष्णुता के खिलाफ लगातार हंगामा हो रहा है और होना भी चाहिए। साहित्यकार, फिल्मकार और वैज्ञानिकों ने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाया। इसका परिणाम यह हुआ कि किसी सुनामी की तरह देश में अचानक आये मोदी लहर से प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली की सत्ता हासिल करने वाली भाजपा बिहार चुनाव बुरी तरह से हार गई। लेकिन मेरे जेहन में कई सवाल बार-बार आ रहे हैं। देश में आदिवासियों का जीवन इतना सस्ता क्यों है? आदिवासी महिलाओं के साथ हो रहे बलात्कार के खिलाफ मोमबत्ती जलाने वालों की भीड़ कहीं क्यों नहीं दिखाई देती? निर्दोष आदिवासियों के हत्या पर संसद का कामकाज ठप क्यों नहीं होता? आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ विधानसभाओं में कुर्सियां क्यों नहीं तोड़ी जाती? आदिवासी बहुल राज्यों का सत्ता परिवर्तन क्यों नहीं होता? और सबसे अहम सवाल यह है कि निर्दोष आदिवासियों के निर्मम हत्या, बलात्कार और बर्बरता पर इंडिया गेट की रंगीन शांम कभी गमगीन क्यों नहीं होती? क्या किसी के पास इन सवालों का जवाब है भी? और जब हम बस्तर लौटकर जाते हैं तो बार-बार यही सवाल मन में गुंजता रहता है कि बस्तर में जीवन इतना सस्ता क्यों है? आखिर इस तबाही का जिम्मेवार कौन है?

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