रविवार, 17 सितंबर 2023

शुद्रों से क्यों आहत होते हैं सवर्ण?

ग्लैडसन डुंगडुंग
28 अगस्त 2023 को ‘‘हिन्दू धर्म आचार्य सभा’’ के सदस्य आचार्य दिनेश प्रसाद स्वामी ने ‘‘सनातन धर्म’’ पर कटाक्ष करते हुए कहा कि ‘हमें मंदिरों से देवी-देवताओं की मूर्तियों को हटाने की जरूरत है। हमें एक नये धर्म की आवश्यकता है।’ वे ‘‘सनातन धर्म’’ के जगह पर एक नये धर्म के खोज की बात कर रहे थे। लेकिन इसे कोई आहत नहीं हुआ। न उनके उपर कोई मुकदमा दर्ज हुआ, न किसी ने उनके सिर की बोली लगायी और न ही भाजपा नेता इसे राजनीतिक मुद्दा बनाये। लेकिन 2 सितंबर 2023 को डीएमके नेता उदयनिधि स्टालिन के द्वारा ‘‘सनातन धर्म’’ के उन्मूलन संबंधी बयान और उसके समर्थन में डीएमके के कदावर दलित नेता ए. राजा एवं कांग्रेस के दलित नेता प्रियंक खड़गे द्वारा दिये गये बयानों से भारतीय राजनीति में भूचाल आ गया।
यह मसला देश के करोड़ों सनातन हिन्दू धर्मावलंबियों से जुड़े होने की वजह से इसका भरपूर राजनीतिक लाभ उठाने के लिए भाजपा ने इसे तुरंत लपक लिया। भाजपा के आईटी सेल प्रमुख अमित मौलवीय ने उदयनिधि के बयान पर मिर्च-मशाला लगाकर सोशल मीडिया ‘‘एक्स’’ में जारी करते हुए लिखा कि उदयनिधि स्टालिन ‘‘सनातन’’ धर्मावलंबी भारत के 80 प्रतिशत लोगों का नरसंहार करने की बात कर रहे हैं। इसके बाद उदयनिधि, ए. राजा एवं प्रियंक खड़गे पर ‘‘सनातन’’ धर्मावलंबियों की धार्मिक भावना को आहत करने के आरोप में कई मुकदमे दर्ज किये गये। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि पिछले दो दिनों से ‘इंडिया’ गठबंधन ‘‘सनातन धर्म’’ का अपमान कर रहा है। केन्द्रीय जलशक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने ‘‘सनातन धर्म’’ के खिलाफ बोलने वालों की जुबान खीचने एवं उनकी आंखें निकाल लेने की बात कही और भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने प्रेस वार्ता में घोषणा किया है कि पार्टी इस मसले को गांव-गांव तक ले जायेगी। यहां सवाल उठता है कि ‘‘सनातन धर्म’’ में मौजूद भेदभाव की वजह से प्रताड़ना झेलने वाले शुद्रों के आवाज उठाने भर से सवर्ण क्यों आहत हो जातेे हैं?
इस मसले पर अपना विचार व्यक्ति करते हुए उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने कहा कि रावण के अहंकार, बाबर और औरंगजेब के अत्याचार से भी सनातन मिट नहीं पाया था। ऐसे में ये ‘‘तुच्छ’’ लोग कहां से सनातन को मिटा पाएंगे? उनके बयान में मुसलमान एवं शुद्रों के प्रति नफरत स्पष्ट दिखाई पड़ता है। वे बाबर और औरंगजेब के द्वारा हिन्दुओं पर किये गये अत्याचार की बात को बड़ी मजबूती के साथ उठाते हैं लेकिन सनातन धर्म में मौजूद वर्ण, जाति एवं लिंग आधारित भेदभाव की वजह से सवर्णों के द्वारा करोड़ों ओबीसी, दलित, आदिवासी एवं महिलाओं पर किये जाने वाले भेदभाव, अत्याचार एवं हिंसा पर मौन रहते हैं। क्यों? क्या उन्हें आचार्य दिनेश प्रसाद स्वामी के खिलाफ मोर्चा नहीं खोलना चाहिए जिन्होंने ‘‘सनातन धर्म’’ के जगह पर एक नये धर्म की आवश्यकता बतायी है? क्या उन्हें मोहन भगवत के खिलाफ मुखर नहीं होना चाहिए जिन्होंने ‘‘सनातन धर्म’’ में मौजूद भेदभाव के लिए ब्राह्मणों को जिम्मेवार मानते हुए कहा कि ‘‘सनातन धर्म’’ में उंच-नीच भगवान ने नहीं बल्कि पंडितों ने बनायी है?
यहां मौलिक प्रश्न यह है कि ‘‘सनातन धर्म’’ से उपजे वर्ण, जाति एवं नस्ल आधारित भेदभाव, हिंसा एवं प्रताड़ना झेलने वाले ओबीसी, दलित और आदिवासी नेता, सामाजिक कार्यकर्ता एवं बुद्धिजीवी जब आवाज उठाते हैं तब सवर्णों के द्वारा उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जाता है, उन्हें जान से मारने की धमकी दी जाती है एवं उनके सिर की बोली लगायी जाती है। इतना ही नहीं इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर सम्प्रदायिक रंग दिया जाता है। लेकिन जब वही बात सवर्ण नेता, बुद्धिजीवी एवं धर्मगुरू कहते हैं तब लोग मौन धारण कर लेते हैं। ऐसा क्यों? क्या यह सवर्णों के द्वारा शुद्रों को निशाना बनाना नहीं है?
विगत दिनों हुए घटनाक्रम इसके गवाह हैं। सनातन धर्म में मौजूद भेदभाव को लेकर आवाज उठाने वाले ओबीसी नेता स्वामी प्रसाद मोर्या, द्रविड़ नेता उदयनिधि स्टालिन और दलित नेता ए. राजा एवं प्रियंक खड़गे पर देशभर में कई मुकदमे दर्ज किये गये। अयोध्या के संत परमहंस आचार्य ने उदयनिधि को जान से मारने की धमकी दी एवं उनके सिर की कीमत 10 करोड़ लगाया। लेकिन आचार्य दिनेश प्रसाद स्वामी एवं आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भगवत के खिलाफ किसी ने न कोई मुकदमा दर्ज किया, न उनके सिर की बोली लगायी और न ही भाजपा ने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाया। क्या सवर्ण लोग सिर्फ ओबीसी, दलित एवं आदिवासियों से आहत होते हैं?
यह भी विचारणीय है कि जब कोई सवर्ण ‘‘सनातन धर्म’’ में मौजूद वर्ण, जाति एवं लिंग आधारित भेदभाव, हिंसा एवं अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाता हैं तब उसे धर्म सुधारक की उपाधि दी जाती है लेकिन जब वही काम कोई ओबीसी, दलित एवं आदिवासी करते हंै तब उन्हें ‘‘सनातन’’ विरोधी घोषित करते हुए उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाती है। सवर्णों के द्वारा कहा जाता है कि ‘‘सनातन धर्म’’ सर्वश्रेष्ठ है। यहां सवाल उठता है कि भारत में वर्ण, जाति, नस्ल, रंग एवं लिंग के आधार पर मौजूद भेदभाव, प्रताड़ना एवं हिंसा किसकी देन है? क्या असमानता से भरा धर्म सर्वश्रेष्ठ हो सकता है? क्यों सवर्ण लोग ‘‘सनातन धर्म’’ से भेदभाव को खत्म करना नहीं चाहते हैं? स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बताने वाले सवर्णों के मन-हृदय में ओबीसी, दलित एवं आदिवासियों के प्रति नफरत, घृणा एवं कटुता क्यों है?
सवर्ण नेता, धर्मगुरू एवं बुद्धिजीवी लोग ओबीसी, दलित एवं आदिवासियों को सनातन धर्म का हिस्सा बताने से नहीं थकते हैं। देश में वर्ण, जाति एवं नस्ल आधारित भेदभाव, हिंसा एवं प्रताड़ना से तंग आकर यदि कोई ओबीसी, दलित एवं आदिवासी किसी अन्य धर्म को स्वीकार करता है तब ये लोग इनके खिलाफ कार्रवाई करते हैं लेकिन जब ओबीसी, दलित एवं आदिवासियों को संवैधानिक अधिकार के तहत आरक्षण या कोई और लाभ देने की बात होती है तब वही सवर्ण लोग इसका विरोध करते हैं। वे खूद को ‘‘योग्य’’ एवं ‘‘आरक्षण’’ के तहत सरकारी नौकरी करने वाले ‘‘ओबीसी, दलित और आदिवासियों’’ को ‘‘आयोग्य’’ बताकर उनका अपमान करते हैं। यह कैसा विरोधाभाषी है? क्या ओबीसी, दलित एवं आदिवासी भाई-बहनों को सवर्ण अपने बराबर नहीं देखना चाहते हैं?
‘‘सनातन धर्म’’ में मौजूद वर्ण, जाति एवं लिंग आधारित भेदभाव पर सवाल उठाने मात्र से आहत होने वाले सवर्ण देश के करोड़ों ओबीसी, दलित एवं आदिवासियों पर हजारों साल से हो रहे जातिगत एवं नस्ल आधारित भेदभाव, हिंसा एवं अत्याचार से आहत क्यों नहीं होते हैं? 10 सितंबर 2023 को गाजियाबाद में ‘‘अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा’’ द्वारा आयोजित परोपकार यज्ञ में कहा गया कि ब्राह्मण जबतक सशक्त हैं तबतक कोई माई का लाल ‘‘सनातन धर्म’’ का कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। राक्षस तो हमेशा से थे, कभी शुंभ-निशुंभ ने सनातन का विरोध किया था और मारे गये थे। ऐसे लोग अब भी मौजूद हैं। क्या यहां स्पष्ट संदेश देने की कोशिश नहीं की गई कि ‘‘शुद्र’’ एवं ‘‘अतिशुद्र’’ यानी ओबीसी, दलित एवं आदिवासी समाज के लोग ही राक्षस हैं जो बार-बार सनातन धर्म में मौजूद भेदभाव पर सवाल उठाते हैं?
सबसे हास्यास्पद बात यह है कि पूरी के शंकराचार्य सहित ‘‘सनातन धर्म’’ के धर्मगुरू ‘‘वर्ण व्यवस्था’’ को भगवान का बनाया हुआ बताते हुए इसे न्यायोचित ठहराते हैं, आरएसएस प्रमुख मोहन भगवत इसे पंडितों के द्वारा बनाया गया गलत व्यवस्था कहते हैं एवं ‘‘सनातन धर्म’’ से जुड़े बुद्धिजीवी इसे मुगल व अंग्रेजों के द्वारा थोपा हुआ व्यवस्था बताते हैं। इनमें से लगभग सभी लोग ‘‘जाति व्यवस्था’’ को गलत बताते हुए इसके उन्मूलन की वकालत करते हैं लेकिन ‘‘सनातन धर्म’’ में व्याप्त भेदभाव का मूल जड़़ ‘‘वर्ण व्यवस्था’’ को बरकरा रखने एवं इस पर आवाज उठाने को ‘‘सनातन धर्म’’ पर हमला कहते हैं। ये लोग धर्म आधारित जनगणना का समर्थन एवं जातिगत जनगणना का विरोध करते हैं क्योंकि इससे देश को पता चल जायेगा कि कैसे सिर्फ 15 प्रतिशत सवर्ण लोग देश के लगभग 85 प्रतिशत निर्णयक पदों पर काबिज हैं एवं 85 प्रतिशत ओबीसी, दलित एवं आदिवासियों को सिर्फ 15 प्रतिशत से अपना काम चलाना पड़ रहा है।
मैं अपने अनुभव से कह सकता हॅंू कि अधिकांश सवर्ण लोग न सिर्फ हमारे देश में बल्कि पूरे विश्व में ‘‘वर्ण’’, ‘‘जाति’’, ‘‘नस्ल’’, ‘‘लिंग’’ एवं ‘‘रंग’’ आधारित भेदभाव को अपने मन-हृदय में लेकर घुमते हैं। इसका मूल कारण यह है कि ‘‘वर्ण व्यवस्था’’ के अनुसार वे खूद को ‘‘सर्वश्रेष्ठ’’ और ‘‘शुद्र व अतिशुद्र’’ यानी ओबीसी एवं दलितों को ‘‘तुच्छ’’ मानते हैं तथा आदिवासियों को ‘‘वर्ण एवं जाति व्यवस्था’’ के बाहर होने की वजह से अर्द्धमानव समझते हैं। सवर्ण धर्मगुरू कहते हैं कि यह व्यवस्था भगवान ने बनायी है। लेकिन क्या भगवान मुट्ठी भर लोगों को ‘‘श्रेष्ठ’’ एवं बहुसंख्यक को ‘‘तुच्छ’’ बना सकते हैं? हकीकत यह है कि भारत के बहुसंख्यक लोगों पर शासन करने के लिए कुछ चालाक ब्राह्मणों ने यह व्यवस्था बनाकर इसपर धर्म का रंग चढ़ा दिया ताकि कोई इसका विरोध न कर सके।
‘‘सनातन धर्म’’ को लेकर चल रहा बौद्धिक हमला हकीकत में धर्म की लड़ाई नहीं है बल्कि यह ‘‘श्रेष्ठ’’ बनाम ‘‘तुच्छ’’, ‘‘आर्य’’ बनाम ’’अनार्य’’, ‘‘देवता’’ बनाम ‘‘राक्षस’’, ‘‘ब्राहमण’’ बनाम ‘‘शुद्रा’’ एवं ‘‘सवर्ण’’ बनाम ‘‘ओबीसी, दलित एवं आदिवासी’’ के बीच ‘‘सत्ता’’ का संघर्ष है जो सदियों से चल रहा है। सनातन धर्म में मौजूद ‘‘वर्ण व्यवस्था’’ के तहत ‘‘सवर्ण’’ खूद को ‘‘सर्वश्रेष्ठ’’ मानते हैं और ओबीसी, दलित एवं आदिवासियों को ‘‘तुच्छ’’ समझते हैं। धर्म की आड़ में अल्पसंख्यक सवर्ण चालाकी से बहुसंख्यक ओबीसी, दलित एवं आदिवासियों पर राज कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि 15 प्रतिशत ‘‘सर्वश्रेष्ठ’’ लोग 85 प्रतिशत ‘‘तुच्छ’’ लोगों को ‘‘धर्म का अफीम’’ खिलकर कबतक अपने कब्जे में रख सकेंगे? जब बहुसंख्यक ‘‘तुच्छ‘‘ लोग आहत होंगे तब क्या होगा? क्या सवर्ण अपनी सत्ता बचा पायेगें?