रविवार, 2 अप्रैल 2017

आदिवासी एकता का बुद्धिजीवी संकट?

- ग्लैडसन डुंगडुंग -

‘रघुवर दास झारखंड छोड़ो’, ‘रघुवर दास छत्तीसगढ़ वापस जाओ’, ‘सीएनटी/एसपीटी एक्टस में छेड़छाड़ करना बंद करो’, ‘जल-जंगल-जमीन हमारा है’ एवं ‘कारपोरेट के दलाल सरकार होश में आओ’ जैसे नारे आजकल झारखंड के कोने-कोने में गुंज रहे हैं। झारखंड सरकार के द्वारा राज्य के भूमि रक्षा कानूनों में संशोधन के खिलाफ यहां के आदिवासियों में आक्रोश है। राज्य के चारों तरफ जनाक्रोश कार्यक्रम लगातार आयोजित किये जा रहे हैं। इन कार्यक्रमों में आम आदिवासियों की एकता और सरकार के खिलाफ गुस्सा स्पष्ट दिखाई पड़ता है। कई इलाकों में अबतक धर्म (सरना-ईसाई) के नाम पर एक-दूसरे के खिलाफ आग उगलने वाले आदिवासी लोग अपनी जमीन बचाने के लिए एकजुट होकर नारा लगा रहे हैं - ‘‘हम सब एक हैं’’। इतना ही नहीं भाजपा को वोट देने वाले आदिवासी लोग भी आदिवासी समाज को धर्म के नाम पर बांटने के लिए पार्टी और आर.एस.एस. को खुल्लेआम कोश रहे हैं। ऐसा दिखाई पड़ता है मानो सचमुच आदिवासी समाज एकजुट हो चुका है। 

लेकिन इन आयोजनों से एक दूसरी तस्वीर भी उभर कर सामने आयी है। इन कार्यक्रमों का आयोजन कई अलग-अलग संगठन कर रहे हैं और मंचों पर भाषण देने वाले बुद्धिजीवी भी अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। वे आदिवासी एकता की बात करते नहीं थकते हैं लेकिन एक मंच पर आने से कतराते हैं, एक-दूसरे के खिलाफ बोलने से भी नहीं हिचकते हैं और वे नये-नये मंचों का निर्माण भी कर रहे हैं। जबकि सबका एक ही मांग है कि सीएनटी/एसपीटी कानूनों में किये गये संशोधन वापस होना चाहिए। क्या ये आदिवासी बुद्धिजीवी आदिवासी समाज को एक होने नहीं दे रहे हैं? क्या ये लोग आदिवासी समाज का अगुआ बनने के चक्र में समाज को ही गर्त में नहीं डाल रहे हैं? क्यों ये बुद्धिजीवी एक साथ नहीं बैठते हैं? क्यों इतना संगठन बन रहा है, जिनके बीच कोई समन्वय नहीं है? कौन हैं ये बुद्धिजीवी? ये क्यों समाज को हराना चाहते हैं? इन प्रश्नों का जवाब ढूढ़ने के लिए पीछे मुड़कर देखना होगा।    

जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोज, खनिज सम्पदा, आदिवासी पहचान, भाषा, संस्कृति और अपना अस्तित्व को बचाने के लिए देश के विभिन्न इलाकों में आदिवासियों का संघर्ष पिछले तीन सौ सालों से चल रहा है। झारखंड एक ऐसा राज्य है जहां आदिवासियों ने एकजुटता और संघर्ष के बल पर ब्रिटिश हुकूमत को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया था। फलस्वरूप, अंग्रेजों ने आदिवासियों की जमीन, संस्कृति और परंपरा की रक्षा के लिए कई कानून बनाये। लेकिन आजादी के बाद आदिवासी समाज में एक शिक्षित मध्यवर्ग पैदा हुआ, जिसने आरक्षण का लाभ लेकर गैर-आदिवासी समाज की व्यक्तिवादी जीवनशैली को अपना लिया। फलस्वरूप, शहरों में रहने वाले आदिवासी मध्यवर्गीय परिवारों में सबकुछ व्यक्ति और परिवार के इर्द-गिर्द घुमने लगा तथा आदिवासी समाज पीछे छुट गया। इन लोगों ने अपने निजी स्वार्थ को साधने के लिए आदिवासी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और समाज के अस्तित्व को ही कब्र में दफन कर दिया। आदिवासी समाज अब धीरे-धीरे बिना जड़ का पेड़ बनता जा रहा है।   

आज इसी मध्यवर्ग से पैदा हुआ आदिवासी बुद्धिजीवी चाहे वह राजनीतिज्ञा, नौकरशाह, सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षाविद्, लेखक, कवि, धर्मगुरू या किसी अन्य रूप में हो सिर्फ अपने निजी स्वार्थ के लिए आदिवासी समाज को गर्त में धकेल रहा है। ये बुद्धिजीवी लोग भी गैर-आदिवासियों के जैसा ही समाज का मसीहा बनना चाहते हैं। इनमें भी नाम, पैसा और शोहरत पाने की लालसा जाग चुकी है। और इसी लालसा को मिटाने के लिए वे एक-दूसरे का जानी-दुश्मन बन बैठे हैं और आदिवासी समाज को हारने पर मजबूर कर रहे हैं। सामाजिक आयोजनों में स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि कई बुद्धिजीवी एक मंच पर बैठने को तैयार नहीं दिखते और कई दफा एक-दूसरे को इस तरह के आयोजनों में जाने से भी रोकने का प्रयास करते हैं। क्या आदिवासी समाज को धर्म के नाम पर लड़ाने वाले यही आदिवासी बुद्धिजीवी नहीं हैं जो अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए भाजपा और आर.एस.एस. के एजेंडा पर काम करते हैं? 

क्या यह विरोधाभाष नहीं है कि जहां एक तरफ आदिवासी बुद्धिजीवी विभिन्न मंचों और सोशल मीडिया में आदिवासी एकता की गुहार लगाते नहीं थकते हैं लेकिन वहीं आम आदिवासियों की भीड़ देखते ही स्वंय को समाज का अगुआ बनाने के चक्कर में आदिवासी एकता को तोड़ने में थोड़ा भी वक्त नहीं लगाते हैं? क्या पिछले एक दशक के अंदर एक भी ऐसा कार्यक्रम का आयोजन हुआ है जहां सभी बुद्धिजीवी एक साथ बैठकर आदिवासी समाज को बचाने के लिए चर्चा किये हों? क्या इनके पास एक साथ बैठने के लिए समय या संसाधन का अभाव है? जब आदिवासी समाज को एकजुट करने वाले बुद्धिजीवी ही एकजुट नहीं हैं तो समाज कैसे एकजुट होगा? ये बुद्धिजीवी समाज को कैसे दिशा देंगे? 

आदिवासी बुद्धिजीवियों की व्यक्तिगत महत्वाकांछा को समझने के लिए यहां कुछ घटनाओं का चर्चा करना जरूरी होगा। विस्थापन झारखंड के आदिवासियों का सबसे बड़ा मुद्दा है और राज्य में विस्थापन के खिलाफ पिछले तीन-चार दशकों से लंबा संघर्ष चल रहा है। आदिवासियों ने अपने एकता और संगठनिक ताकत के बदौलत सरकार और देशी-विदेशी कंपनियों के खिलाफ विस्थापन का लड़ाई जीता है। इस दौरान राज्य में विस्थापन के खिलाफ अनगिनत जनसंगठन बने लेकिन आजतक एक भी ऐसा मंच नहीं बना जहां सभी लोग एक स्वर में आवाज उठा सके। विस्थापन विरोधी जनसंगठनों, जनांदोलनों और सामाजिक संगठनों को एक मंच पर लाने हेतु कई प्रयास हुआ लेकिन यह सिर्फ एक कारण से संभव नहीं हो सका क्योंकि जो बुद्धिजीवी इन संगठनों का नेतृत्व करते हैं उनमें से अधिकांश लोग किसी एक व्यक्ति को राज्य स्तर पर नेतृत्वकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते हैं। इसका मूल वजह है कि नेतृत्वकर्त्ता लोग समूह का विचार सुनने के बजाये स्वयं का विचार समूह पर थोपने लगते हैं क्योंकि वे यह मान लेता हैं कि वे ही सर्वश्रेष्ठ है। ये बुद्धिजीवी सामुदायिकता की बात करते हैं लेकिन उनके जीवन में इसका घोर अभाव है। क्या बुद्धिजीवियों को आत्म मंथन नहीं करना चाहिए? 

राज्य में सीएनटी/एसपीटी कानूनों को लेकर चल रहे जनांदोलनों में भी यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि समाज का मसीहा बनने और आंदोलन का श्रेय लेने के होड़ ने इस आंदोलन को भी कई स्तर पर कमजोर किया गया। 15 सितंबर, 2016 को रांची में आदिवासी बुद्धिजीवी मंच एवं अन्य संगठनों के द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित रैली एवं सभा में भी यह स्पष्ट दिखाई दिया। आदिवासी एकता दिखाकर राजसत्ता को अपनी ताकत का एहसास कराने के बजाये आंदोलन का श्रेय लेने के होड़ में बुद्धिजीवियों ने झारखंड की ‘आयरन लेडी‘ कहलाने वाली आंदोलनकारी दयामनी बारला से मैक छीन लिया और कुछ नेताओं को मंच से नीचे उतारकर आदिवासी एकता को तार-तार कर दिया। इतना ही नहीं कार्यक्रम की सफलता को देखकर आदिवासी बुद्धिजीवी मंच ने 22 अक्टूबर, 2016 को ‘आदिवासी संघर्ष मोर्चा’ द्वारा रांची में आयोजित जनाक्रोश रैली को राजनीतिक कार्यक्रम बताते हुए इसे समर्थन देने से इनकार कर दिया। क्या दिखाता है? क्या आदिवासी बुद्धिजीवी राजनीति से घृणा करते है? राजनीति से घृणा कर आप लोकतंत्र से कैसे प्यार कर सकते है? बुद्धिजीवी इतना स्वार्थी क्यों हैं? 

इसी तरह भाजपा के पूर्व सांसद व बुद्धिमान आदिवासी नेता सालखन मुर्मू ने सीएनटी/एसपीटी मामले में जनाक्रोश को देखकर ‘आदिवासी संगेल अभियान’ के अन्तर्गत समाधान रैली का आयोजन करना शुरू किया। लेकिन वे भी स्वयं को स्थापित करने और अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए झारखंडी पार्टी और जनसंगठनों पर आरोप लगाते रहते हैं। वे कहते हैं कि झारखंड में नेता, पार्टी, जनसंगठन, मंच-मोर्चा अनेक हैं मगर वे केवल विरोध का खानापूरी कर रहे हैं जबकि आदिवासी सेंगेल अभियान जमीनी स्तर पर स्पष्ट नेता, नीति, रणनीति के तहत युद्ध स्तर पर काम कर रही है। सालखन मुर्मू के इस स्वार्थी राजनीति को देखकर कई बुद्धिजीवियों ने उन्हें भाजपा का दलाल कहा तथा उनपर आरोप लगाया कि वे 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए पार्टी से पैसा लेकर आदिवासी एकता को तोड़ने का काम कर रहे हैं। यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि आम आदिवासी किस बुद्धिजीवी पर विश्वास करें? क्या आदिवासी बुद्धिजीवियों के पास स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा है? विस्थापन जनांदोलन का गढ़ माने जाने वाले नेतरहाट, खूंटी एवं जमशेदपुर इलाके में आंदोलनकारी लोग नारा लगाते हैं - ‘जान देंगे, जमीन नहीं’ लेकिन अपना बहुमूल्य वोट उसी पार्टी को देते हैं, जिसने झारखंड में सबसे ज्यादा एम.ओ.यू. किया और आंदोलनकारियों के ऊपर गोली चलवाया है। क्या यह आदिवासी बुद्धिजीवियों के राजनीतिक नसमझी और अदूरदर्शिता का परिणाम नहीं है?

आज प्रखंड एवं जिला स्तर पर हो रहे जनाक्रोश रैली एवं सभाओं में भीड़ तो दिखती है लेकिन जिस राज्य में 80 लाख से ज्यादा आदिवासी हैं वहां राज्य की राजधानी रांची में 1 लाख लोग भी एक साथ क्यों नहीं जुट पा रहे हैं? निश्चित तौर पर झारखंड सरकार ने जनांदोलन को कुचलने के लिए पुलिस, प्रशासन एवं अर्द्धसैनिक बलों का उपयोग किया है बावजूद इसके कहीं न कहीं आदिवासी एकता के रास्ते पर आदिवासी बुद्धिजीवी आड़े आ रहे हैं। सीएनटी/एसपीटी कानूनों में संशोधन के लिए आदिवासी विधायकों को जिम्मेवार ठहराने वाला यह आदिवासी बुद्धिजीवी वर्ग आज आदिवासी समाज को एकजुट होने नहीं दे रहा है। इसलिए यदि आदिवासी समाज लूट जाता है तो इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी इसी बुद्धिजीवी वर्ग को माना जाना चाहिए क्यों यह वर्ग अपने निजी स्वार्थ, घमंड और महŸवकांक्षा को बरकरार रखने के लिए कभी भी एकजुट नहीं हो सकता है। बुद्धिजीवियों का काम समाज को सही दिशा देना है स्वार्थी बनना नहीं। ऐसी स्थिति में आम आदिवासियों को ही समाज का नेतृत्व करना चाहिए तथा बुद्धिजीवियों को कम से कम अपना महत्वाकांछा छोड़कर अपनी भूमिका स्पष्ट तय करनी चाहिए तभी लूटते हुए आदिवासी समाज का भला होगा। 

 - लेखक एक एक्टिविस्ट, लेखक और शोधकर्ता हैं। 

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