- ग्लैडसन डुंगडुंग -
भाजपा ने झारखंड में विधानसभा चुनाव की घोषणा से काफी पहले ही आदिवासी मुख्यमंत्री, आदिवासी हकों की रक्षा हेतु बने कानून और पांचवी अनुसूची जैसे संवैधानिक प्रावधानों को खारिज कर दिया था। लेकिन पूंजीवाद, ब्राह्मणवाद और फासीवाद के बेजोड़ गांठजोड़ से उत्पन्न 56 इंच का सीना, जिन्हें कुछ लोग शेर भी कहा करते हैं, ने संताल दिशुम में गरजते हुए कहा था कि उनके राजगद्दी पर रहते कोई माई का लाल पैदा नहीं होगा जो आदिवासियों को लूटेगा। उनके गर्जन को सुनते ही ‘धर्म का आफिम’ खाकर बैठे आदिवासी-मूलवासियों का दिल पिघल गया। फलस्वरूप, उन्होंने 16 आरक्षित एवं 21 गैर-आरक्षित सीट उनके नाम कर दी। वैसे मोदी लहर भी गजब का लहर है, जो एक दिशा में नहीं चलती। इस बार यह लहर भाजपा के सबसे कदावर आदिवासी नेता अर्जुन मुंडा और आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो के खिलाफ चली। ठीक एकलब्य की तरह वे द्रोणाचार्य के शिकार हुए। इस तरह से झारखंड में बाहरी गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने का रास्ता साफ हो गया। अंततः भाजपा ने झारखंड में छत्तीसगढ़ सरकार चलाने की घोषणा कर दी। और जब इधर आफिम खाये झारखंडियों का नशा टूटा तो फिर क्या था? रांची बंद, झारखंड बंद और बिरसा उलगुलान। उलगुलान का अंत कभी नहीं हो सकता झारखंड में। यह झारखंड की खासियत भी है। मोदी लहर भी इस उलगुलान को नहीं रोक सकती है।
लेकिन भाजपा के लिए यह विरोध लोकतंत्र का हिस्सा नहीं था इसलिए मुख्यमंत्री का शपथग्रहण हुआ। क्योंकि उनका असली लोकतंत्र तो काॅरपोरेट बिजनेस माॅडल पर सोशल नेटवर्किंग और मीडिया मैनेजमेंट से चलता है, जिससे ‘मोदी लहर’ पैदा होती है? फेसबुक में लाॅगइन करने से ही स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि कैसे शिकार को देखते ही अचानक गिद्धों का सुनामी आ गया है। और बेचारे आदिवासी एवं मूलवासियों के हकों की बात करनेवालों को निरीह खरगोश की तरह चारो ओर से नोच दिया जा रहा है। ऐसा लगता है कि अब लोकतंत्र को पूंजीपतियों ने मोदीतंत्र में बदल दिया है, जहां विरोधी स्वर के लिए कोई जगह ही नहीं है। असल में यही तो ब्रहमणवाद है जिसे संघ परिवार पूरे देश में थोपना चाहता है। फेसबुकिया बहस में लाईन बहुत स्पष्ट है। झारखंडी पंक्षी एक तरफ हैं तो वहीं झारखंडी बनने को आतुर परदेशी गिद्ध दूसरे तरफ। दिल्ली में बैठे लोग जिन्हें झारखंड के इतिहास का ककाहड़ा तक मालूम नहीं, वे भी सुनामी का हिस्सा बन गये हैं। इसमें सबसे आश्चार्य करने वाली बात यह है कि जो लोग बड़े-बड़े मंचों पर आदिवासियों की पहचान और अस्मिता पर भाषण और विश्लेषण पेश कर तालियां और राशन बटोरते फिरते हैं, वे भी गिद्धों की तरह मौकापरस्त बन गये हैं। यह इसलिए हो रहा है क्योंकि वे भी कहीं न कहीं उसी झुंड का हिस्सा हैं जो कभी झारखंड में कमाने-खाने के लिए आया था।
फेसबुकिया चर्चा में कहा जा रहा है कि झारखंड का पिछला 14 साल आदिवासियों के नेतृत्व में चला इसलिए यह राज्य सभी मोर्चाें पर फेल हो गया जबकि छत्तीसगढ़ में विकास हुआ क्योंकि वहां गैर-आदिवासी का नेतृत्व है। लेकिन लोग इस बात को कैसे भूल जाते हैं कि छत्तीसगढ़ वही राज्य है जहां आंखफोड़वा कांड हुआ, महिलाओं का गर्भाशय निकाल लिया गया एवं बंध्याकरण अभियान में चूहा मारने का दवा खिलाकर महिलाओं की हत्या की गयी और संरक्षित 500 बैगा, कोरवा एवं अन्य आदिम जनजातियों की महिलाओं को डरा-धमकाकर बंध्याकरण करवा लिया गया। ये सब सिर्फ भ्रष्टाचार की वजह से हुई। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह वहीं राज्य है जहां आदिवासियों का थोक भाव से हत्या, बलात्कार और यातना होता है। यह कौन नहीं जानता है कि सलवा जुड़ूम द्वारा आदिवासियों को 644 गांवों से खाली करवाया गया, सैकड़ों आदिवासियों को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया, आदिवासी महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया, सरकारी विद्यायल में 11 आदिवासी लड़कियों का बलात्कारी हुआ तथा 17,000 आदिवासियों को नक्सली होने के आरोप में जेलों में डाला गया? क्या गैर-आदिवासी शासित राज्यों में आदिवासियों का विकास एवं कल्याण ऐसे होता है?
यहां जब विकास का ढोल पिट-पीटकर ही आदिवासी नेतृत्व को सड़ा-गला साबित करने की कोशिश चल रही है तो हमें इस बात पर भी चर्चा करनी चाहिए कि पिछले 6 दशकों में देश का नेतृत्व गैर-आदिवासी उच्च वर्ग ने किया है फिर देश गर्त में कैसे चला गया? मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे राज्य आज भी विकास के पैमाने पर पीछे क्यों हैं जबकि वहां का नेतृत्व हमेशा गैर-आदिवासियों के हाथों में था? क्या इसका अर्थ यह है कि अब गैर-आदिवासी देश को नेतृत्व नहीं दे सकते हैं क्योंकि वे भ्रष्ट हो चुके हैं इसलिए अब इस देश का नेतृत्व विदेशियों के हाथों में दे देना चाहिए? क्या यह कोई तर्क है? क्या आदिवासी नेतृत्व पर सवाल सिर्फ आदिवासी समुदाय को बेईज्जत करने के लिए उठाया जाता है? हमें याद रखना चाहिए कि आदिवासी ही इस देश के मूल निवासी और असली मालिक हैं, जिन्हें गैर-आदिवासियों ने चारो तरफ से लूटा है इसलिए उनकी यह स्थिति हुई है। यह कौन नहीं जानता है कि उनकी जमीन, जंगल, नदी, पहाड़ और खनिज को विकास के नाम पर असंवैधानिक एवं गैर-कानूनी तरीके से लूटा गया? उनके विकास के लिए आवंटित पैसों से गैर-आदिवासियों के महल बने? और अब उनकी राजनीतिक ताकत को भी बेईमानी से लूटने की कोशिश जारी है।
फेसबुकिया बहस में गैर-आदिवासियों ने झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास पर 200 करोड़ रूपये की हेराफेरी करने के आरोप को भी सिरे से खारिज कर दिया है, जबकि झारखंड विधानसभा द्वारा गठित जांच समिति ने इसे सही पाया है। वे ऐसा चर्चा कर रहे हैं मानो जैसे यह भ्रष्टाचार के बजाये झारखंड के पहले गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री का एक अतिरिक्त उपलब्धि है। क्या होता अगर मुख्यमंत्री बनने वाले एक आदिवासी नेता पर इसी तरह का आरोप लगा हुआ होता? क्या ये फेसबुकिया मोदी भक्त उक्त आदिवासी नेता के उपर गालियों की बौछार नहीं करते? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ब्राहमणवाद के शिकार गैर-आदिवासी लोग आदिवासियों को इंसान ही नहीं मानते हैं इसलिए उनको आदिवासियों का गुण नहीं दिखाई पड़ता है। दिखाई देता है तो सिर्फ उनकी जमीन, जंगल, नदी, पहाड़, खनिज, नौकरी, बेटी और राजनैतिक ताकत, ताकि वे उनको लूट सके। ये लोग आदिवासियों के लिए किये गये संवैधानिक प्रावधान, कानून और परंपरा का सम्मान भी करते हैं क्या ?
निश्चित रूप से लोकतंत्र संख्या बल से चलती है लेकिन अनुसूचित क्षेत्रों मेें आदिवासियों की जनसंख्या घटने का मूल कारण गैर-आदिवासियों की घुसपैठी ही है जबकि संविधान इसकी इजाजत नहीं देती है। गैर-आदिवासी लोग स्लेक्टिव हो गए हैं क्योंकि जब आदिवासी इलाकों में उनके घुसपैठी को लेकर शोर-शराबा होता हैं तो वे संविधान के अनुच्छेद 19 का खंड (1) उपखंड (घ), (ड़) एवं (छ) का संदर्भ देकर तर्क देते हैं कि भारत के नागरिकों को देश के किसी भी हिस्से में स्वंत्रतपूर्वक घुमने, आजीविका चलाने, नौकरी करने, व्यापार करने, निवास करने और बसने का मौलिक अधिकार प्राप्त है। लेकिन वही लोग संविधान के अनुच्छेद 19 का उपबंध (5) एवं (6) को भूल जाते हैं जिसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सामान्य जनता या आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए जरूरी रोक हेतु बनाये गये कानून पर संविधान का अनुच्छेद 19 का खंड (1) उपखंड (घ), (ड़) एवं (छ) प्रभावी नहीं होगा। इसका अर्थ यह है कि आदिवासी इलाकों में गैर-आदिवासियों के स्वंत्रतपूर्वक घुमने, आजीविका चलाने, नौकरी करने, व्यापार करने, निवास करने, स्थायी रूप से बसने और जमीन खीदने पर रोक हेतु बनाये गये पांचवीं एवं छठवीं अनुसूची तथा भूमि रक्षा कानूनों के साथ छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता है। जब झारखंड पांचवी अनुसूचित क्षेत्र में आता है तो यहां का मुख्यमंत्री गैर-आदिवासी कैसे हो सकता है? क्या आदिवासियों ने सामान्य इलाकों में कभी अपनी दावेदारी पेश की है?
जब आदिवासी और गैर-आदिवासियों के बीच गुणों के आधार पर तुलना हो तो हमें इस बात पर भी चर्चा करना पड़ेगा कि कौन समाज लूटेरा है? बलात्कार किस समाज के संस्कृति का हिस्सा है? चोरी-डकैती-गुंडागर्दी कौन समाज के लोग करते हैं? किसने आदिवासियों को तीन-धनुष और बंदूक उठाने पर मजबूर किया है? क्या बिहार, उत्तरप्रदेश, ओड़िसा, बंगाल या मध्यप्रदेश में यहां से कमाने-खाने के लिए गये आदिवासियों ने किसी गैर-आदिवासी की जमीन लूटी? क्या आदिवासियों ने उन राज्यों में अपना हक मांगा? क्या उन्होंने किसी का शोषण किया? फिर झारखंड में कमाने-खाने आये लोग किस अधिकार के तहत राज्य को कब्जा करना चाहते हैं? जब 150 वर्षों से असम और अंडमन में रह रहे 1 करोड़ आदिवासियों को वहां अधिकार नहीं मिल सकता है तो इन गैर-आदिवासियों को झारखंड में क्यों अधिकार मिलना चाहिए? सिर्फ आदिवासियों के साथ ऐसा भेदभाव क्यों होता है?
अदभुत बात यह है कि रघुवर दास फेसबुकिया बहस में अचानक हीरो बन गए हैं। यह इसलिए क्योंकि वे बाहरी गैर-आदिवासी हैं जिनके नेतृत्व में भाजपा सरकार झारखंड में स्थानीयता नीति बनायेगी, जिसके तहत राज्य में कमाने-खाने आये सभी लोगों को झारखंडी बनाया जायेगा और वे सरकारी नौकरियों में कब्जा जमा लेंगे। इसके अलावा आदिवासियों की जमीन रक्षा हेतु बनाये गये छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 एवं संतालपरगना काश्तकारी अधिनियम 1949 में बदलाव लाकर गैर-आदिवासियों द्वारा गैर-कानूनी तरीके से कब्जा किया गया आदिवासी जमीन को कानूनी जामा पहना दी जायेगी तथा जमीन लूट को और आसान कर दिया जायेगा। फिर रियल स्टेट बिजनेश में भी उछाल आ जायेगी और बाजों की तरह शिकार का इन्तिजार कर रहे उद्योगपतियों को प्रकृतिक संसाधन लूटने की छूट भी। इसके अलावा अनुसूचित क्षेत्रों में बदलाव, पेसा कानून तथा वन अधिकार कानूनों पर हमला इसका अगला कदम होगा। कुल मिलाकर कहें तो झारखंड की छत्तीसगढ़ सरकार बाहरी गैर-आदिवासियों को झारखंड लूटने में भरपूर सहयोग करेगा।
लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि झारखंड राज्य के निर्माण के लिए 70 वर्षों से संघर्ष हुई है और उस संघर्ष की शुरूआत एवं संघर्ष का नेतृत्व आदिवासियों ने ही किया था, जिसमें मूलवासी लोग बाद में जुड़े। इसलिए झारखंड राज्य में पहला हक आदिवासी और मूलवासियों का है। भाजपा द्वारा छत्तीसगढ़ निवासी रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाने का अर्थ यहां के आदिवासी एवं मूलवासियों के नेतृत्व को अस्वीकार करना है। भाजपा नेता रघुवर दास उस समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो झारखंड में कमाने-खाने के लिए अपने राज्यों से पलायन कर यहां आये हैं। इसलिए ऐसे लोगों को लूटखोर गिद्धों के झुंड का हिस्सा बनने के बजाये आदर्शवादी साईबेरियान क्रेन का हिस्सा बनना चाहिए, जो मेहमानों की तरह आते हैं फिर अपना देश वापस चले जाते हैं। और अगर ऐसे होता है तो हम झारखंड के आदिवासी और मूलवासी उनके स्वागत के लिए चटाई के जगह पर कालीन बिछा देंगें।
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