गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

क्या कसाई बकरी की रक्षा करेगा?

- ग्लैडसन डुंगडुंग -

झारखंड का संताल परगना एक मात्र ऐसा इलाका है, जहां विगत लोकसभा चुनाव में भाजपा ज्यादा सेंधमारी नहीं का सकी थी और झारखंड मुक्ति मोर्चा अपना परंपरागत दुमका एवं राजमहल लोकसभा सीट बचाने में कामयाब हुआ था। वहीं केन्द्रीय विधि आयोग द्वारा केन्द्र सरकार को संताल परगना एक्ट 1855 को समाप्त करने की सिफारिश ने संताल परगना में भूचाल ला दिया था, जिसने भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी डरा दिया था क्योंकि झारखंड में सरकार बनाने के लिए भाजपा को छोटानागपुर के साथ-साथ संताल परगना को भी अपने कब्जें में करना जरूरी था और संताल आदिवासियों के समर्थन के बगैर यह असंभव था। 15 दिसंबर, 2014 को संतालों का विश्वास जीतने के लिए दुमका और पतना में चुनावी सभाओं को संबोधित करते हुए नरेन्द्र मोदी ने तीन बड़ी-बड़ी बातें कही। भाजपा के शासनकाल में आदिवासियों की जमीन कोई माई का लाल नहीं छिन सकता, आदिवासियों के काल्याण के बगैर देश आगे नहीं बढ़ सकता और जहां-जहां आदिवासी अधिक है वहां भाजपा की सरकार है। इसलिए हमें परखनी चाहिए कि क्या मोदी के भाषण और जमीनी हकीकत में कुछ तालमेल है? क्या भाजपा शासित राज्यों में आदिवासी सुरक्षित हैं? या क्या वे सिर्फ चुनाव में वोटरों का दिल जीतकर सत्ता हासिल करने के लिए आम जनता से ऐसा अव्यवहारिक बातें करते है?

आजतक का अनुभव तो यही बताता है कि नरेन्द्र मोदी और भाजपा सरकारों ने आदिवासियों का भला कम और बुरा ज्यादा किया है। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने नर्मदा नदी पर स्थित ‘सरदर सरोवर’ बांध की उंचाई 121.92 मीटर से 138.68 मीटर बढ़ाने का निर्णय लिया, जो गुजरात सरकार की पुरानी मांग थी। इस डैम से महाराष्ट्र, गुुजरात और मध्यप्रदेश के लगभग 2.5 लाख लोग प्रभावित हैं, जिनके पुनर्वास का काम अधूरा पड़ा हुआ है। डैम की वर्तमान उंचाई से 17 मीटर ज्यादा बढ़ाने से आदिवासियों का घर, खेत-खलिहान सबकुछ डूब जायेगा। लेकिन क्या नरेन्द्र मोदी को इसे कोई फर्क पड़ता है? जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे उसी समय उन्होंने कहा था कि गुजरात के 4 लाख किसानों की खुशहली के लिए 10 हजार आदिवासियों को विस्थापित करने में कोई हर्ज नहीं होनी चाहिए। क्या मोदी इस तरह आदिवासियों की रक्षा करते हैं?

हकीकत यह है कि नरेन्द्र मोदी सत्ता से चिपक कर रहना चाहते हैं, जिसके लिए उन्हें गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान के किसानों और मध्यवर्ग को खुश करना जरूरी था क्योंकि इन परियोजना से इन्हीं लोगों को बिजली और पानी मिलेगा इसलिए उन्होंने आदिवासियों को विस्थापित करना ज्यादा उचित समझा। केन्द्र सरकार के इस निर्णय का सीधा असर आदिवासियों के आजीविका, पहचान और अस्तित्व पर पड़ेगा। सबसे आश्र्चाय करने वाली बात यह है कि जहां एक तरफ ‘सरदर सरोवर बांध’ की उंचाई बढ़ाने पर आदिवासी उजाडे़ जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर सौराराष्ट्र में आदिवासियों को सिंचाई के लिए सरदर सरोवर बांध का पानी मुहैया तक नहीं कराया जा रहा है। क्या यह आदिवासियों के साथ सीधा भेदभाव नहीं है? क्या मोदी को इस बात का थोड़ा भी दर्द है? 

गुजरात के नर्मदा जिले स्थित साधुटेकरी में 2979 करोड़ रूपये की लागत से सरदार बल्लाभ भाई पटेल की 182 मीटर मूर्ति ‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ मोदी का ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ है, जो दुनियां में चर्चा का विषय बना, जिसका निर्माण कार्य जारी है, जो एक विशाल पर्यटन स्थल के रूप में तब्दील होगा। इस क्षेत्र में बाढ़ को राकने के लिए नर्मदा नदी में ‘वियर डैम’ के निर्माण से आदिवासी विस्थापित किये जा रहे एवं पर्यटन स्थल निर्माण के लिए भी आदिवासियों की जमीन ली जा रह है। फलस्वरूप, 70 गांव प्रभावित हो रहे हैं, जिसका आदिवासी विरोध कर रहे हैं। लोगों को जबरदस्ती मुआवजा दिया जा रहा और जो लोग मुआवजा नहीं ले रहे हैं उन्हें पुलिस बल का प्रयोग कर हटाया जा रहा है। विगत वर्ष गुजरात के मुख्यमंत्री रहते मोदी ने इसका उद्घाटन किया था। वहां के आदिवासी कह रहे हैं कि गुजरात सरकार ने ‘वियर डैम’ बनाने के पहले उनसे पूछा तक नहीं। इस क्षेत्र के आदिवासियों ने स्थानीय निकय से लेकर लोकसभा तक भाजपा को जीताया है। बावजूद इसके उनकी जमीन छिनी जा रही है। गुजरात में पांचवी अनुसूची, पेसा कानून एवं वन अधिकार कानून क्यों नहीं बचा पा रही आदिवासियों की जमीन? फिर मोदी किस तरह कहते फिर रहे हैं कि कोई माई का लाल आदिवासियों की जमीन नहीं छिन सकता है? क्या इसका अर्थ यह समझा जाये कि आदिवासियों की जमीन छिनने का हक सिर्फ मोदी और भाजपा सरकारों को है? 

झारखंड, छत्तीसगढ़ और गुजरात की राज्य सरकारों ने विगत एक दशक में लगभग 500 बड़े देशी और विदेशी निजी कंपनियों के साथ इन राज्यों में तथाकथित विकास परियोजना लगाने के लिए समझौता किया है, जिसमें टाटा, रिलांयस, जिंदल, मित्तल, एस्सार, भूषण इत्यादि शामिल हैं। इस बात की गंभीरता इसी से समझी जा सकती है कि छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में ही छोटे-बड़े सभी को मिलाकर लगभग 500 निजी कम्पनियों का प्रवेश हो रहा है। इन इलाकों के आदिवासियों को कहा जा रहा है कि वे जमीन का मुआवजा और नौकरी लेकर जमीन इन कंपनियों के हाथों में सौंप दे। इसलिए वहां के बहुसंख्यक आदिवासी डरे-सहमें हुए हैं। उनका भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग चुका है। वे अगर इन कंपनियों का विरोध करते हैं तो उन्हें नक्सली, विकास विरोधी और राष्ट्रद्रोही बताकर उन्हें मार दिया जायेगा या उनके खिलाफ फर्जी मुकदमा दायर कर उन्हें जेलों में डाल दिया जायेगा। वे इस तथाकथित विकास का समर्थन करते हुए अपनी जमीन इन कंपनियों को सौंप देते हैं तो उनकी अगली पीढ़ि शायद भीख मांगने के कगार पर पहुंच जायेगा। लेकिन इनका कौन सुन रहा है?

नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनावी सभाओं में दूसरी महत्वपूर्ण बात कहा कि आदिवासियों के काल्याण के बगैर देश आगे नहीं बढ़ सकता है। लेकिन आदिवासियों के काल्याण के सवाल पर देखा जाये तो कोई बड़ा आश्चार्य नहीं होगा। 31 अगस्त, 2010 को राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली ने आदिवासी उप-योजना का उपयोग काॅमनवेल्थ गेम में करने पर केन्द्र सरकार की जमकर खिंचाई की थी लेकिन सत्ता पर बैठते ही वे स्वयं बदल गये। विर्तीय वर्ष 2014-15 के केन्द्रीय बजट में अरूण जेटली ने आदिवासियों के हक का पैसा 25,490 करोड़ रूपये का प्रावधान करने से सीधे इंकार कर दिया। ऐसे में क्या मोदी सरकार आदिवासियों का विकास एवं कल्याण हवा से करेगी? 

भाजपा शासित कुछ राज्यों की हकीकत देखने से तस्वीर और ज्यादा साफ हो जाती है कि भाजपा की कथनी और करनी में कितना फर्क है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार ने वित्तीय वर्ष 2012-13 में आदिवासियों के विकास एवं कल्याण हेतु ‘अनुसूचित जनजाति उप-योजना’ के तहत आवंटित राशि का 37.02 करोड़ रूपये जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी विकास योजना के तहत आधारभूत सरंचना निर्माण में खर्च किया, 115 करोड़ रूपये स्वर्णजयंती मुख्यमंत्री शहरी विकास योजना के तहत काॅरपोरेशन को एड दिया, 124.27 करोड़ रूपये नगर निगमों को दिया एवं 700 करोड़ रूपये सरदर सरोवर बांध के निर्माण खर्च किया। यानी आदिवासियों के विकास एवं कल्याण के पैसे से उनकी ही जमीन लेकर उन्हें विस्थापित किया गया। इसी तरह वितीय वर्ष 2013-14 में 5 करोड़ रूपये स्वामी विवेकानंन्द के 150वीं वर्षगांठ मनाने के लिए खर्च किया गया, 72 करोड़ रूपये सरकारी अस्पतालों को गाड़ी एवं मेडिकल उपकरण खरीदने में खर्च किया गया एवं 200 करोड़ रूपये सरदार सरोवर बांध निर्माण में लगाया गया। इसी तरह मध्यप्रदेश में वितीय वर्ष 2014-15 में 78 लाख रूपये जेल में खर्च किया गया एवं छत्तीसगढ़ में 2 करोड़ रूपये एसपीओ पर खर्च किया गया यानी आदिवासियों के पैसे से उनकी ही हत्या? किस अधिकार के तहत भाजपा सरकारों ने आदिवासियों के विकास एवं कल्याण के पैसों का बंदरबंट किया? क्या हकीकत पर परदा डालने के लिए मोदी बड़ी-बड़ी बाते करते हैं?

नरेन्द्र मोदी अपने चुनावी सभाओं में रट लगाते रहे कि जहां-जहां आदिवासी अधिक हैं वहां-वहां भाजपा की सरकार है लेकिन वे इस बात को कैसे भूल गये कि भाजपा शासित राज्यों में आदिवासियों की हत्या, बलात्कार और यातना थोक भाव से हो रहा है। झारखंड में शुरू से ही भाजपा का शासन रहा और विगत 13 वर्षों में 9 वर्ष भाजपा ने शासन किया। भाजपा शासन के दौरान 2 फरवरी, 2001 को खूंटी जिले स्थित तपकारा के पास कोईलकारो डैम का विरोध कर रहे आदिवासियों पर पुलिस ने गोली चलायी, जिसमें 8 लोग मारे गये, फर्जी मुठभेड़ में 557 लोग मारे गये एवं 6000 आदिवासी जेलों में हैं एवं 5000 आंदोलनकारियों पर फर्जी मुकदमा किया गया। छत्तीसगढ़ में भाजपा लंबे समय से डा. रमन सिंह के नेतृत्व में सरकार चला रही है जहां सलवा जुड़ूम द्वारा आदिवासियों को 644 गांवों से खाली करवाया गया, सैकड़ों आदिवासियों को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया, आदिवासी महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया, सरकारी विद्यायल में 11 आदिवासी लड़कियों का बलात्कारी हुआ, 17,000 आदिवासियों को नक्सली होने के आरोप में जेलों में डाला गया तथा 500 बैगा, कोरवा एवं अन्य आदिम जनजातियों को डरा-धमाकर बंध्याकरण किया गया। क्या भाजपा शासित राज्यों में आदिवासियों की सुरक्षा और विकास इस तरह हो रहा है? क्या आदिवासियों ने इसीलिए भाजपा को वोट दिया था? क्या आदिवासियों ने भाजपा सरकारों को अत्याचार करने का हक दिया है?  

भाजपा का चाल, चरित्र और चेहरा बिल्कुल अलग-अलग है। इसलिए नरेद्र मोदी और भाजपा के झूठे वादों पर विश्वास कर उनके साथ चलने वाले आदिवासियों को अपना अस्तित्व बचाना है तो इन महत्वपूर्ण प्रश्नों का जवाब ढ़ूढ़ना होगा। क्या कसाई, बकरी की रक्षा करेगा? क्या शेर, मेमना को सुरक्षित रखेगा? क्या मुर्गे, धान की हिफाजत करेंगें? क्या भेड़िया, खरगोश का पहरेदार बनेगा? और क्या बाघ, हिरण की रखवाली करेगा? यह कौन नहीं जानता है कि नरेन्द्र मोेेेदी और भाजपा देश के पूंजीपतियों, व्यापारियों और स्वार्थी मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये वर्ग आदिवासी विरोधी हैं क्योंकि इनका भविष्य ही आदिवासियों की जमीन, जंगल, नदी, पहाड़ और खनिज पर टिकी हुई है। देश में आज आदिवासियों के साथ खड़ा होने का सीधा मतलब सत्ता से बाहर होना है क्योंकि देश के सत्ता पर कौन काबिज होगा इसका निर्णय पूंजीपति, व्यापारी और स्वार्थी मध्यवर्ग ही करते है इसलिए क्या 56 इंच का सीना आदिवासियों को बचाने के लिए इनके खिलाफ खड़ा हो सकता है?

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