- ग्लैडसन डुंगडुंग -
‘बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’। पिछले लोकसभा चुनाव में यह भाजपा का एक प्रमुख नारा था। भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी चुनावी सभाओं को संबोधित करते हुए महंगाई के मुद्दे पर शेर की तरह गरजते रहे, जिससे लोगों को उनमें उम्मीद दिखी और अंततः भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला। इस तरह 26 मई, 2014 को वे देश के प्रधानमंत्री बन गए। इधर दिसंबर पहुंचते-पहुंचते देश में पेट्रोल और डीजल की कीमत कम हो गई और महंगाई पर लगाम लग गया। लोगों को लगने लगा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही मोदी ने अपना करिश्मा दिखा दिया। अब लोगों में यह संदेश फैलने लगा था कि जहां मनमोहन सरकार प्रतिमाह पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ा रही थी वहीं मोदी सरकार ने इसमें कमी कर दी, जिससे महंगाई अपने आप कम हो गई। भाजपा के स्थानीय नेता भी इसे मोदी का करिश्मा बताकर इसका राजनीतिक लाभ उठाने लगे, जिसका फायदा भाजपा को तीन राज्यों - महाराष्ट्र, हरियाण और झारखंड में हुए विधानसभा चुनावों में मिला। अब दिल्ली के चुनावी सभाओं में नरेन्द्र मोदी ने स्वयं भी कहा है कि वे भाग्यशाली हैं इसलिए तेल की कीमत घटी है और देश की जनता को इसका लाभ मिला है। लेकिन मौलिक प्रश्न यह है कि क्या पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कमी और महंगाई पर लगाम मोदी सरकार का करिश्मा है? क्या यह मोदी के भाग्य का प्रतिफल या कुछ और ही है?
मुझे कभी-कभी हमारे देश के वैसे पढ़े-लिखे लोगों पर तरस आता है, जो निरक्षरों की तरह निराधार बहस करते हैं। सचमुच, अनपढ़ों की बात तो छोड़िये यहां बहुसंख्यक पढ़े-लिखे लोगों के पास भी ज्ञान का घोर अभाव है, जिसका फायदा हमारे राजनीतिज्ञा उठाते हैं। मैं यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कमी और महंगाई पर लगाम लगाने में नरेन्द्र मोदी का न तो कोई करिश्मा है और न ही यह उनके भाग्य की देन। बल्कि उन्होंने तो पेट्रोल और डीजल पर तीन बार टैक्स बढ़ा दिया, रेलवे भाड़ा में वृद्धि किया एवं दवा की कीमत भी बढ़ायी। पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कमी तथा महंगाई पर लगाम शुद्धरूप से अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में लगातार हो रही कमी का परिणाम है। इसे जरूर मोदी के अच्छे दिन और मनमोहन सिंह के बुरे दिनों के रूप में याद किया जा सकता है क्योंकि यूपीए-2 के समय तेल की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लगातार बढ़ती गयी लेकिन मोदी के आते ही यह कीमत कई कारणों से घटती जा रही है। पेट्रोल और डीजल की कीमत में गिरावट आने से रोजमर्रा की जरूरतों के समानों की कीमत में भी कमी आना स्वभाविक था क्योंकि महंगाई का बढ़ना पूर्णरूप से कच्चे तेल की कीमत और खाद्यान के उत्पादन पर निर्भर करता है। इसलिए इसका विश्लेषण किये बगैर तेल का खेल और मोदी की राजनीति नहीं समझी जा सकती है।
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत जून, 2014 में 115 डाॅलर प्रति बैरल था जो घटकर 3 फरवरी, 2015 को 45 डाॅलर प्रति बैरल पर पहुंच गया, जिससे तेल निर्यातक देशों में खलबली मच गयी है क्योंकि उनकी अर्थव्यवस्था मूलतः इसी पर टिकी हुई है। तेल का खेल भी राजनीति की तरह है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत बढ़ने पर तेल उत्पादक एवं निर्यातक देश खुशी मनाते हैं और तेल का आयात करने वाले देशों की जनता को महंगाई मार देती है. लेकिन वहीं कच्चे तेल की कीमत घटने की स्थिति में राजा रंक हो जाता है और महंगाई की मार झेलती जनता खुशियां मनाने लगती है। लेकिन यहां सबसे महत्वूपर्ण सवाल यह है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत इतनी तेजी से क्यों घटती-बढ़ती रहती है? क्या भारत में मोदी सरकार आने के कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत में कमी आ गयी है? क्या अंतर्राष्ट्रीय तेल बाजार में भारत की कोई भूमिका है? देश के पढ़े-लिखे अज्ञानी लोगों को यह बताना बहुत जरूरी है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में घट रही तेल की कीमतों में ‘मोदी करिश्मा’ या उनके भाग्य का दूर-दूर तक कुछ लेना-देना नहीं है और न ही हमारे देश का इसमें कोई खास भूमिका है।
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में वृद्धि एवं गिरावट के कई कारण हैं, जिसको समझने के लिए पिछले डेढ दशकों की वैश्विक गतिविधियों को समझना होगा। वर्ष 2000 के मध्य में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी होने लगी थी और बढ़ते-बढ़ते 2010 में यह लगभग 100 डाॅलर प्रति बैरल पर पहुंच गया था। इसका मुख्य कारण विश्व में कच्चे तेल की मांग बढ़ गयी थी क्योंकि दुनियां की दूसरी आर्थिक महाशक्ति चीन की अर्थव्यवस्था में उछाल आने से वहां तेल का सबसे ज्यादा खपत हो रहा था। वहीं दूसरी ओर कच्चे तेल का सबसे बड़ा उत्पादक देश इराक में युद्ध चल रहा था, जहां अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठन ‘आई.एस.आई.एस. से तेल कारखानों में हमले करने की धमकी मिल रही थी, जिससे तेल उत्पादन में प्रतिदिन 3 मिलियन बैरल की कमी हो गयी थी। इसी तरह तेल उत्पादक देश लिबिया में ‘सिविल वार’ चल रहा थ। फलस्वरूप, तेल उत्पादन में भारी कमी हो गयी थी जबकि इसकी मांग बढ़ गयी थी इसलिए तेल की कीमत में बढ़ोतरी स्वभाविक था क्योंकि बाजार में तेल की कीमत में कमी या बढ़ोतरी मूलतः अर्थशास्त्र के सिद्धांत ‘मांग और पूर्ति’ पर आधारित होता है।
इस तरह से जून, 2014 तक अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 115 डाॅलर प्रति बैरल था लेकिन यह अचानक घटकर नवंबर, 2014 में 80 डाॅलर प्रति बैरल हो गया और इसमें लगातार गिरावट जारी है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि पिछले दशक में तेल की कीमत में बढ़ोतरी को देखते हुए कच्चे तेल निकालने वाली कंपनियों को लगा कि तेल के व्यापार में उन्हें लाभ ही लाभ है इसलिए बहुत मुश्किल जगहों जैसे अमेरिका के दक्षिण दाकोट एवं टेक्सेस में इन कंपनियों ने ड्रिलिंग मशीनों का उपयोग करते हुए तेल निकालना शुरू किया। इसी तरह कनाडा के अल्बर्टाज में बालू के अंदर से तेल निकालने का काम शुरू हुआ। इस तरह से अमेरिका और कनाडा भी दुनियां के तेल उत्पादक देशों में शामिल हो गए। अमेरिका जो एक समय कच्चे तेल का सबसे ज्यादा आयात करने वाला देश था, वर्ष 2008 से 4 मिलियन बैरल कच्चा तेल प्रतिदिन अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भेजने लगा, जो काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिदिन कच्चे तेल का उत्पादन 75 मिलियन बैरल है। इतना ही नहीं अमेरिका ने कच्चे तेल के आयात में 50 प्रतिशत की कमी कर दी एवं नाईजीनिया से तेल खरीदना बंद कर दिया।
इधर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ते कच्चे तेल की वृद्धि को देखते हुए नई-नई तकनीक का अविष्कार किया गया, जिसके तहत ‘फ्यूल इफिशियेंशी’ यानी कम तेल से ज्यादा दूरी तय करने वाली कारों का निर्माण अमेरिका जैसे देशों में किया गया तो वहीं एशिया महाद्वीप के कई देश अपना उर्जा सब्सिडी में कटौती कर रहे हैं। इसमें इंडोनेशिया ने 3 प्रतिशत, थाईलैंड ने 2.6 प्रतिशत, वियातनाम ने 2.5 प्रतिशत, मलेशिया ने 2.3 प्रतिशत एवं भारत ने 2.3 प्रतिशत की कटौती की है, जिसका परिणाम यह हुआ कि इन देशों में कच्चे तेल की खपत में कमी आयी है। इसी तरह आर्थिक मंदी की वजह से यूरोप, एशिया और अमेरिका ने तेल आयात में कमी कर दी है। वहीं इराक में विवाद थामने से कच्चे तेल के उत्पादन में 3 मिलियन बैरल प्रतिदिन की बढ़ोतरी हुई है एवं सिविल वार की समाप्ति के बाद लिबिया भी 1 मिलियन बैरल कच्चे तेल का उत्पादन कर रहा है।
फलस्वरूप, वर्ष 2014 समाप्त होते-होते तेल की मांग में कमी आ गयी लेकिन उत्पादन जारी रहा। तेल उत्पादक देश - इराक, इरान, लिबिया, रूस, वेनेजुएला, सौदी-अरब, इत्यादि देशों की अर्थव्यवस्था तेल पर ही टिकी हुई है इसलिए तेल उत्पादन करना उनकी मजबूरी है क्योंकि इसके बगैर उनकी अर्थव्यवस्था नहीं चल सकती है। लेकिन तेल की कीमत में कमी होने से तेल उत्पादक देशों की अर्थव्यवस्था में तबाही आ गयी है। इसलिए दुनियां की नजर तेल उत्पादक एवं निर्यातक देशों के गठबंधन ‘आॅयल प्रोड्यूसिंग एंड एक्पोर्टिंग कन्ट्रीज, "आॅपेक" के निर्णय का इंतिजार कर रहा था। ये देश लगभग 40 प्रतिशत कच्च तेल का उत्पादन करते हैं। इसमें सौदी-अरब और इरान को अपने अर्थव्यवस्था को सही पटरी पर चलाने के लिए तेल की उंची कीमत चाहिए।
इसी को ध्यान में रखते हुए 27 नवंबर, 2014 को ‘आॅपेक’ की वियाना में एक महत्वपूर्ण बैठक हुई लेकिन इसमें गरमा-गरम बहस के अलावा और कुछ भी नहीं हुआ। ये देश कुछ ठोस निर्णय पर नहीं पहुंच सके। रूस और वेनेजुएला चाहते थे की सौदी-अरब तेल उत्पादन में कमी करे ताकि तेल की कीमत में वृद्धि हो सके। लेकिन सौदी-अरब तेल उत्पादन को कम करने पर राजी नहीं हुआ क्योंकि उसे 1980 में इसी तरह के निर्णय को अमल करने का खमियाजा भुगतना पड़ा था। उसने तेल का उत्पादन कम कर दिया था लेकिन तेल की कीमत लगातार घटती गयी और अंत में उसे शेयर बाजार में अपना शेयर गवांना पड़ा था। तेल की कीमत में कमी आने से तेल आयातक देश जैसे चीन, भारत, अमेरिका, जापान, पाकिस्तान इत्यादि के लिए तो बहुत अच्छा है लेकिन रूस, वेनेजुएला, इरान, इराक एवं लिबिया जैसे देशों के लिए आत्म-हत्या करने जैसा स्थिति पैदा कर सकता हैं। तेल ने दुनियां में जहां एक तरफ खुशी दी है तो दूसरे तरफ गम भी। लेकिन हमारे देश में हमलोग अब भी खुशी और गम के बीच में ही लटका दिये गए हैं।
हकीकत यह है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में पिछले वर्ष के प्रथम तिमाही के मुकबले लगभग 55 प्रतिशत की भारी कमी होने के बावजूद हमारे देश में पेट्रोल एवं डीजल काफी महंगा बिक रहा है। यह इसलिए क्योंकि इसमें केन्द्र एवं राज्य सरकारें कई तरह के टैक्स जोड़ते हैं जो कुल मिलाकर पेट्रोल एवं डीजल की कीमत का 50 प्रतिशत है। इसमें 24 से 26 प्रतिशत केन्द्र सरकार का टैक्स एवं 20 से 30 प्रतिशत राज्य सरकार का टैक्स तथा 1 से 2 प्रतिशत तेल कंपनियों का विक्री कर जुड़ा हुआ है। आज हमारे देश में पेट्रोल और डीजल की असली कीमत क्रमशः 35 एवं 25 रूपये प्रति लीटर होना चाहिए था। केन्द्र सरकार अगर चाहे तो आज पेट्रोल और डीजल की कीमत सरकारी खजाने को भरते हुए 15 से 20 रूपये तक कम कर सकती है, जिससे खाद्य एंव अन्य जरूरत की चीजें और ज्यादा सस्ती हो सकती है। लेकिन मोदी सरकार ने आॅकड़ों की बाजीगरी एवं राष्ट्रवादी भाषण पिलाने के अलावा आम जनता को उचित फायदा पहुंचाने के लिए अबतक ज्यादा कुछ नहीं किया है। बल्कि वे कच्चे तेल के प्रभाव का राजनीति लाभ जमकर लेते रहे क्योंकि अभी तक उनके भाषण में लोगों को उम्मीद दिखती हैं लेकिन यह ज्यादा दिनों तक बरकरार नहीं रहेगा क्योंकि लोग अब उनका काम देखना चाहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में उलटफेर होते ही देशवाशियों को यह पता चल जायेगा की मोदी देश के लिए कितना भाग्यशाली हैं।
‘आॅपेक’ के सेक्रेटरी जेनेरल अब्दुल्ला अल-बादरी ने कहा है कि कच्चे तेल की कीमत अपने सबसे न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुकी है इसलिए अब संभावना है कि भविष्य में यह 200 डाॅलर प्रति बैरल तक छलांग लगा सकता है। अगर ऐसी स्थिति आयी तो हमारे देश में पेट्रोल और डीजल क्रमशः 100 एवं 90 रूपये प्रति लीटर बिकेगा। क्या ऐसी स्थिति होने पर मोदी स्वंय को अभाग्यशाली घोषित करेंगे या भाग्यशाली बने रहेंगे ? हालांकि ऐसी स्थिति आने के लिए कुछ जरूरी शर्तें भी हैं जैसे इराक या लिबिया में युद्ध छिड़ जाये, चीन की अर्थव्यवस्था में तेजी से उछाल आ जाये एवं यूरोप में मंदी खत्म हो जाये या अमेरिका और कनाडा के तेल उत्पादन में रूकावट आ जाय। तत्काल ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है लेकिन यह संभावना है. इसलिए नरेन्द्र मोदी को समय रहते आॅकड़ों की बाजीगरी और भाषणबाजी छोड़कर देश के विकास एवं अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के काम पर लग जाना चाहिए, वरना अगला लोकसभा चुनाव आते-आते उनकी हालत भी यूपीए-2 जैसी हो सकती है क्योंकि तेल का खेल बहुत नुकशानदेह है, जिसका खामियाजा मनमोहन सिंह भुगत चुके हैं।
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