शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

आत्महत्या को मजबूर आदिवासी सभ्यता

- ग्लैडसन डुंगडुंग -

8 फरवरी, 2015। यह देश और दुनियां के लिए याद रखने लायक खास तारीख न हो और शायद यह इतिहास में भी जगह न पाये। लेकिन आदिवासियों के लिए यह एक खास तारीख है। यह इसलिए क्योंकि दिल्ली में ‘ट्राइबल फेस्टिवल’ यानी ‘आदिवासी महोत्सव’ का आयोजन किया गया था, जिसमें देश के लगभग सभी क्षेत्रों के आदिवासियों ने ‘स्टेज’ में अपनी पहचान एवं संस्कृति का जलवा दिखाया। ढोलक, मांदर और नगाड़े की थाप पर वे नाचे, गाये और झूमे। इतना ही नहीं, कार्यक्रम की समाप्ति के बाद उन्होंने सामुहिक नृत्य किया और हड़िया भी पीये। बावजूद इसके, यह महोत्सव आदिवासी समाज का आईना दिखाता है कि कैसे आदिवासी लोग अपनी सभ्यता को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रहे हैं।  

दिल्ली आदिवासी महोत्सव में कई अलग-अलग दृश्य दिखाई दिये। जहां एक तरफ पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासी युवाओं में उम्मीद की किरण दिखा, जो पारंपरिक और आधुनिकता दोनों के बीच अभी तक तालमेल बनाये हुए हैं तो वहीं दक्षिण भारतीय आदिवासियों की पूर्ण निर्भरता आधुनिक दक्षिण भारतीय फिल्मों के नृत्यों और गीतों पर ही दिखाई देती है। इसमें झारखंड, ओडिसा, बंगाल, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, इत्यादि राज्यों से पलायन कर दिल्ली में बसे उरांव, मुंडा, संताली, हो और खड़िया आदिवासियों की तस्वीर सबसे ज्यादा झंकझोरने वाली थी। 50-60 वर्षीय माॅं-बाप स्टेज पर नाच रहे थे, गा रहे थे और मांदर, ढोल एवं नगाड़े बजा रहे थे। वहीं आधुनिक फैंशन में डूबे उनके बच्चे यह नजारा देख रहे थे। ये आदिवासी युवा एक ऐसा आधुनिक आदिवासी समाज का निर्माण करते दिखाई पड़ते हैं, जहां आधुनिक फैंशन, स्टाईल, अंग्रेजी भाषा, लैपटाॅप और स्मार्ट मोबाईल तो है लेकिन उनकी अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाज का दूर-दूर तक कहीं अता-पता नहीं। क्या यह सुचमुच आदिवासी समाज है?

यह तस्वीर सिर्फ दिल्ली में रह रहे आदिवासियों की ही नहीं है। पूरा उतर और मध्य भारत इसके चपेट में है। गांवों से शहरों में तब्दील होते आदिवासी इलाकों की तस्वीर लगभग यही है, जो आदिवासियों के भविष्य के लिए खतरनाक संकेत हैं। लेकिन पढ़-लिखकर शहरों में नौकरी कर रहे आदिवासी इसे मुख्यधारा में शामिल होना कहते हैं। वे पक्का बिल्डिंग, गाड़ी और बैंक बैंलेश से काफी संतुष्ट दिखते हैं। अपने बच्चों को अंग्रेजी बोलते और आधुनिक फैशन में डूबे हुए देखकर वे बहुत खुश दिखाई पड़ते हैं लेकिन वहीं उनके बच्चे न अपनी भाषा जानते हैं और न ही उन्हें अपनी संस्कृति व सभ्यता के बारे में कुछ मालूम है। आदिवासी लोग बहुत तेजी से अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और सभ्यता गंवा रहे हैं।  

यही स्थिति रही तो अगले 100-200 वर्षों में आदिवासी सिर्फ देश के संग्राहलयों में रखे गये कांच के बक्से में दिखाई देंगे। मैं जब यह बात बोलता हूँ तो लोगों को मेरी बातों पर भरोसा नहीं होता हैं और वे मुझसे सवाल पूछते हैं कि देश के 10 करोड़ आदिवासी ऐसे कैसे खत्म हो जायेंगे? लेकिन यहां बात संख्या का नहीं है। क्या कोई आदिवासी अपनी अलग पहचान, भाषा, संस्कृति, पारंपरा और सभ्यता के बगैर आदिवासी बना रह सकता है? शहरों में रहने वाले आदिवासी बच्चों को आदिवासी कहलाने में शर्म महसूस होती है इसलिए वे अपना गोत्र छुपाते हैं। वे अपनी भाषा नहीं जानते, अपने संस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाज को समझना नहीं चाहते हैं। क्या सिर्फ आदिवासी चेहरा और कादकाठी होने से कोई आदिवासी हो सकता है? फिर आदिवासी समाज कैसे बच सकता है? लेकिन सवाल यह भी है कि आदिवासी युवा ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं? क्या आदिवासी युवा इसके लिए दोषी हैं? 

आदिवासी युवाओं के बीच चर्चा करने से स्पष्ट पता चलता है कि युवाओं की यह स्थिति मौलिक तौर पर उनके मां-बाप का ही देन है। उन्होंने अपने बच्चों को कभी भी अपनी आदिवासी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और सभ्यता से जानबूझ कर परिचित नहीं करवाया क्योंकि उन्हें आदिवासी होना शर्म महसूस होता था। लेकिन आज जब वे यह जानने लगे हैं कि आदिवासी का मतलब शर्म नहीं बल्कि गर्व का विषय है तक वे स्टेज में नाचते-गाते तो दिखाई देते रहे हैं लेकिन उनकी वजह से आदिवासी सभ्यता ठहर सा गया है, जो एक पीढ़ि से दूसरे पीढ़ि में स्थानांतरण ही नहीं हुआ। जब उनके बच्चे अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और सभ्यता के बारे में कुछ नहीं जानते हैं तो आने वाले पीढ़ि को वे क्या सिखायेंगे? क्या इसका सीधा अर्थ आदिवासी सभ्यता का आत्म-हत्या नहीं है?  

कुछ गैर-आदिवासी बुद्धिजीवियों का विचार है कि आदिवासियों को अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और सभ्यता बचाना है तो उन्हें जंगलों में ही रखा जाना चाहिए क्योंकि आधुनिक शिक्षा और विकास की वजह से ही वे सबकुछ गंवा रहे हैं। लेकिन क्या आज के जमाने में शिक्षा के बगैर कुछ संभव है? निश्चित तौर पर यह विचार आदिवासियों को दुनियां से अलग-थलग कर देने वाला है, जो आज के समय में नहीं चल सकता है। वहीं बहुसंख्यक गैर-आदिवासी नजरिया आदिवासियों को अशिक्षित, असभ्य और अविकसित घोषित कर उन्हें मुख्धारा में लाने पर जोर डालता है। लेकिन वास्तव में यह मुख्यधारा में लाने वाली विचार नहीं है अपितु यह उनके सभ्यता को ही पूरी तरह से नष्ट कर रहा है। यह आदिवासियों का एसिमिलेशन हैं यानी जब नदी का पानी समुद्र में मिल जाती है तो वहां नदी के पानी का कोई अस्तित्व नहीं बच जाता हैं। ठीक उसी प्रकार से ये आदिवासी अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और सभ्यता खो दे रहे हैं लेकिन उन्हें पता ही नहीं चल रहा है। यह विचारधारा की वजह से आदिवासी लोग सबकुछ खो रहे हैं लेकिन हाड़िया और दारू की बढ़ोतरी हो रही है। क्या यह आदिवासी समाज का सबसे बड़ा द्वंद नहीं है?

ऐसी स्थिति में आदिवासियों को पारंपरिक और आधुनिकता दोनों के बीच समंजस्य बनाकर आगे का रास्ता तय करना ही एक मात्र उपाय दिखता है जो बिल्कुल संभव है। बल्कि पूर्वोतर भारत के आदिवासी इसका बखूबी उपयोग कर रहे है। मध्यभारत के लोग को भाषा के सवाल पर तृस्तरीय भाषा पद्धति को अपनाना होगा। उन्हें अपने बच्चों को अपनी मातृभाषा - खड़िया, कुड़ूख, मुंडारी, संताली, हो इत्यादि सिखाना चाहिए। इसके अलावा राष्ट्रीय भाषा - हिन्दी एवं वैश्विक भाषा - अंग्रेजी अवश्य रूप से सिखलाना चाहिए। इसी तरह संस्कृति के सवाल पर आदिवासी नाच-गान, नगाड़ा, मंदर, ढोलक इत्यादि बजाना, आदिवासी परंपरा और रीति-रीवाज जैसे चीजें घर में ही सीखाया जाना चाहिए। कई जगहों पर सामुदायिक सहयोग से सप्ताह में एक दिन दो घंटे का क्लास भी चलाया जा सकता है। आदिवासी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और सभ्यता को बचाने के लिए उसपर गर्व करते हुए जीना पड़ेगा। लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आदिवासी लोग अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और सभ्यता को बचाना चाहते हैं या शिक्षित, सभ्य और विकसित बनने के मुगलते में आदिवासी सभ्यता का आत्महत्या कराकर ही मानेंगेे?

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