- ग्लैडसन डुंगडुंग -
24-25 फरवरी 2015 को देश की राजधानी दिल्ली स्थित जंतर-मंतर एक बार फिर से यु़द्ध स्थल बना। इस बार आंदोलन का केन्द्र मोदी सरकार द्वारा लागू किया गया ‘भूमि अधिग्रहण अध्यादेश’ था, जिसके विरोध में देश के लगभग 200 किसान संगठन, जनसंगठन, जनांदोलन, एनजीओ और राजनीतिक पार्टियों ने मोर्चा खोल दिया था। इसके अलावा एकता परिषद् से जुड़े 5000 किसान, भूमिहीन और आदिवासियों ने हरियाण के पलवल से जंतर-मंतर तक लगभग 80 किलोमीटर की पदयात्रा की। वहीं यूपीए सरकार को हटाकर भाजपा को सत्तासीन करने वाले भ्रष्टाचार विरोधी नेता अन्ना हजारे भी किसानों के साथ मिलकर मोदी सरकार के खिलाफ हुंकार भरते रहे। फलस्वरूप, काॅरपोरेट के हितैशी और किसान विरोधी छवि बनते देख भाजपा सरकार बचाव के मुद्रा में आ गयी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को संसद में बोलने पर मजबूर होना पड़ा। मीडिया ने भी इस आंदोलन को भूना कर अपना टीआरपी खूब बढ़ाया।
इस आंदोलन के केन्द्र में तीन तरह के लोगों पर चर्चा थी - किसान, आदिवासी और भूमिहीन। इनके हकों के सवाल पर आंदोलनकारी क्रांतिकारी नारा लगा रहे थे, सरकार को सबक सिखाने की बात कह रहे थे और इन्हें किसी भी हाल में न्याय दिलाने का वादा कर रहे थे। शायद ऐसा करना किसी का राजनीतिक तो किसी का संगठनिक और सामाजिक जुमला भी हो सकता है। हालाकि आंदोलन के मंचों से लेकर टेलिविजन चैनलों द्वारा प्रायोजित परिचर्चा कार्यक्रमों पर गौर करने से एक दूसरी तस्वीर भी उभर कर सामने आयी। आंदोलन के भीड़ में बहुसंख्यक लोग किसान, आदिवासी और भूमिहीन लोग थे। वहीं आंदोलन के मंचों पर किसान नेता तो मौजूद थे लेकिन आदिवासी और भूमिहीन लगभग नदारत थे। वे सिर्फ भीड़ का हिस्सा ही बनकर रह गये थे और मीडिया उनको पीड़ित और ठगे हुए असहाय लोगों के रूप में प्रस्तुत कर रहा था। सवाल यह है कि क्या आदिवासी और भूमिहीन लोग उधार के सेनापतियों के बदौलत अपनी लड़ाई जीत पायेंगे? यह प्रश्न उठाने के कई वजह हैं।
मैं विगत 20 वर्षों से भूमि अधिकार एवं विस्थापन विरोधी आंदोलनों से जुड़ा हूॅ और इस बार भी मैं पदयात्रियों के साथ लगभग 20 किलोमीटर पैदल चला। हमेंशा की तरह इस बार भी मैंने देखा कि 40-45 वर्षीय महिलाएं नाचते-गाते और झूमते जंतर-मंतर पहुंची। 5000 पदयात्रियों में लगभग 4000 तो आदिवासी लोग ही थे। वे अपने कपड़े और खाने के समान का मोटरी बांधकर सिर में ढोते हुए पैदल चल रहे थे। बहुतों के पैरों में चप्पल भी नहीं था और कुछ ने तो अपने छोटे बच्चों को भी पीठ पर बांध रखा था। ये लोग विगत दो दशकों से इस उम्मीद के साथ रैली, धरना और सत्याग्रह में शामिल हो रहे है कि एक दिन उन्होंने अपने पूर्वजों की जमीन पर मालिकाना हक मिल जायेगा। लेकिन अंततः आंदोलनों के मंचों से शोषक वर्ग से उभरे नेतृत्वकर्ताओं के मुंह से अपना दुःखड़ा क्रांतिकारी तरीके से सुनकर वे वापस चले जाते हैं। यह गंभीर विषय इसलिए है क्योंकि जो समुदाय भारत में आजादी के आंदोलन शुरू होने से 100 वर्ष पहले ही अपने नेतृत्व में अंग्रेजों को नको चन्ने चबवा दिया था उस समुदाय में आज ऐसा क्या हो गया कि वह शोषक वर्ग से पैदा हुए नेतृत्वकर्ताओं से अपने लिए न्याय की उम्मीद कर रहा है? आदिवासियों की जुबान आज क्यों बंद हो गयी है? क्या वे सचमुच जुबानहीन हो गए हैं या उनकी जुबान काट ली गयी है? क्योंकि इस पूरे आंदोलन को गौर करने से यह नातीजा निकलता है कि आदिवासी सबकुछ गवां रहे हैं और शोषकवर्ग से उभरकर आदिवासियों का मसीहा बने नेतृत्वकर्ता देश और दुनियां में नाम, शोहरत, इज्जत, पैसा और पुरस्कार बटोर रहे हैं।
आदिवासियों के सशक्त नेतृत्व के बारे में हमें इतिहास भी बहुत कुछ बताता है। जब अंग्रजों ने आदिवासियों से जमीन का राजस्व मांगा तो उसके जवाब में बाबा तिलका मांझी ने कहा था कि जमीन हमें भागवान ने उपहार में दिया है तो फिर बीच में सरकार कहां से आयी? जब सरकार ने हमें जमीन दिया ही नहीं तो हम उसे राजस्व क्यों दे? और जब अंग्रेजों ने आदिवासियों से जबर्रदस्ती जमीन का राजस्व वसूलना शुरू किया तो आदिवासियों ने इसके खिलाफ संघर्ष किया। इसी तरह 1832 में सिंगराय-बिंदराय के नेतृत्व में माटी बचाने का आंदोलन हुआ तो वहीं 1855 में सिदो-कान्हों और चांद-भैरो के नेतृत्व में संताल आदिवासियों ने संताल हुल को अंजाम दिया। इसका अगला पड़ाव में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने उलगुलान का बिंगुल फूंका। इस तरह से आदिवासियों ने अपनी जमीन, इलाका और स्वयातता का संघर्ष 1772 से शुरू किया जो भारत के आजादी तक जारी रहा और आजादी के बाद अस्मिता और विस्थापन आंदोलन के रूप में परिवर्तित हो गया। ये सारे आंदोलन सफल इसलिए हुए क्योंकि इन संघर्षों का कमान आदिवासियों के हाथों में था। उन्होंने क्रांति से अपने समाज का अस्त्वि बचाया।
आजादी के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के झूठे वादों पर विश्वास करते हुए मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों को समझा-बुझाकर उनके अस्तित्व को ही समाप्त करने वाली तथाकथित विकास परियोजनाओं को सहम्मति दी। लेकिन जब उन्हें यह मालूम हुआ कि उनके साथ धोखा किया गया है तब उन्होंने आदिवासी महासभा के अधिवेशन में कहा कि काश इतिहास उन्हें यह सबक सिखाया होता तो वे नेहरू की बातों पर विश्वास नहीं करते। यह शोषक समाज के नेतृत्व द्वारा आदिवासी समाज को धोखा देने का सबसे बड़ा उदाहरण था। नेहरू के तथाकथित आधुनिक भारत निर्माण के कारण आदिवासियों को अपनी जल, जंगल, जमीन, पहाड़, खनिज, भाषा, संस्कृति, परंपरा, पहचान और अस्तित्व तक गवांना पड़ा। लेकिन आदिवासी लोगों ने हार नहीं माना और अन्यायपूर्णा विकास परियोजनाओं के लिए अपने दम पर लड़ते रहे। लेकिन धीरे-धीरे इस लड़ाई को शोषक वर्ग से उपजे नेतृत्वकर्ताओं ने अपने कब्जे में ले लिया और आदिवासी समाज को भीड़ का हिस्सा बनाना शुरू किया। इस तरह से वे आदिवासियों के मसीहा बन गये।
इसका उदाहरण यह है कि जहां-जहां आदिवासियों ने अपने सामुदायिक नेतृत्व के बदौलत संघर्ष किया वहां उन्हें कामयाबी मिली चाहे यह कोईल-कारो, नेतरहट फील्ड फायरिंग रेंज या विश्व के इस्पात बादशाह अर्सेलर मित्तल के खिलाफ हुए आंदोलन हो। इन आंदोलनों में कोई स्टार नहीं बना जबकि वहीं नर्मदा बांध विरोधी आंदोलन जैसे देश में कई आंदोलन हुए, जिससे आदिवासियों का मसीहा जन्म लिये लेकिन आदिवासी लोग लड़ाई हार गये क्योंकि वे सिफ्र भीड़ का हिस्सा थे। आदिवासियों का खेत-खलिहान, जंगल, पहाड़, पहचान, भाषा, संस्कृति और अस्तित्व समाप्त हो गया लेकिन उनके मसीहा दुनियां में सितारों की तरह चमक रहे हैं। आज आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन, पहाड़ और खनिज बचाने के नाम पर चल रहे अधिकांश जनांआंदोलन के नेतृत्वकार्ता शोषक वर्ग के उपज हैं जो स्वास्र्थी, मौकापरस्त और समझौतावादी हैं। और यही सबसे बड़ी वजह है इसलिए आदिवासी लोग अपनी लड़ाई लगातार हार रहे हैं।
जहां तक भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का प्रश्न है केन्द्रीय वित मंत्री व भाजपा के रणनीतिकार अरूण जेटली ने अध्यादेश का बचाव करते हुए कहा है कि यूपीए सरकार द्वारा लागू किया गया ‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनव्यर्वस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013’ राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा था इसलिए उनकी सरकार कानून में बदलाव ला रही है। लेकिन मौलिक प्रश्न यह है कि जब यूपीए सराकर यह कानून ला रही थी तक प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा ने इसका विरोध करने के बजाये इसमें संशोधन क्यों लाया? क्या तब भाजपा राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता कर रही थी? क्या किसान और आदिवासियों के पास जमीन सुरक्षित रखना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है? क्या जमीन अधिग्रहण से पहले किसान और आदिवासी रैयतों से उनकी इच्छा जानना देशद्रोह का काम है? अगर ऐसा है तो फिर वोट देते समय वही किसान और आदिवासी रैयत लोकतंत्र के मालिक और राष्ट्र निर्माता कैसे बन जाते हैं? यह कैसा लोकतंत्र है जहां देश के रीढ़ की हड्डी कहलाने वाले किसान और देश के मूल निवासी आदिवासियों को उनकी जमीन का अधिग्रहण करने से पहले अपना विचार रखने तक की आजादी नहीं है? क्या ये लोग समग्र विकास का हिस्सा नहीं हैं? क्या वे देशद्रोही और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे है?
सवाल यह भी है कि धरती के महान लोकतंत्र में ऐसा क्यों होता है जहां उद्योगपतियों को अपने विचार रखने, कानून और नीति बनवाने के समय सरकार रेड कार्पेट विछाकर उनका स्वागत करती है? जबकि लोकतंत्र का मालिक कहलाने वाले किसान, खेतिहर और आदिवासियों को कानून बनवाने से लेकर इसे लागू करवाने तक रैली, धरना, प्रदर्शन, पदयात्रा और भूख हड़ताल करना पड़ता है। और जब वे उद्योगपतियों को जमीन नहीं देना चाहते हैं तो उन्हें विकास विरोधी, देशद्रोही और नक्सली कहा जाता है। जब देश का संविधान सभी को समान अधिकार प्रदान करता है तो फिर यह दोहरा व्यवहार क्यों? क्या हम सचमुच एक लोकतंत्रिक देश में रहते हैं? क्या इस देश का किसान, खेतीहर और आदिवासी रैयत इस लोकतंत्र पर गर्व कर सकते हैं? क्या किसान, भूमिहीन और आदिवासियों के लिए लोकतंत्र का जश्न प्रत्येक पांच वर्षों में सिर्फ एक दिन का होता है जब वे अपना अधिकार लूटेरों को सौंप देते हैं? मोदी सरकार का रूख तो इसी तरफ इशारा करती है।
निश्चित तौर पर केन्द्र सरकार ने एक षडयंत्र के तहत भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के द्वारा ‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनव्यर्वस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013’ के मूल उद्देश्य को ही समाप्त कर दिया है, जिसे परियोजना प्रभावित लोगों के अधिकारों को सुनिश्चित करने, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना में पारदर्शिता लाने के लिए लागू की गयी थी। इस कानून के माध्यम से देश के विकास, राष्ट्रहित एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर विस्थापितों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को न्याय में बदलने का वादा किया गया था। इसलिए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को वापस लेना चाहिए क्योंकि इससे जमीन लूट को बढ़ावा मिलेगी जिसका किसान, आदिवासी रैयत एवं कृषक मजदूरों पर विपरीत असर पड़ेगा। लेकिन मोदी सरकार का रूख यह भी बता रही है कि यह सरकार ही काॅरपोरेट की है इसलिए देश के किसान और आदिवासियों के पास संघर्ष करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। ऐसी स्थिति में किसान तो अपने नेतृत्व में संघर्ष को अंजाम दे ही रहे है। इसलिए अब आदिवासियों को अपनी लड़ाई खूद से लड़नी पड़ेगी क्योंकि उधार के सेनापति के भरोसे कोई युद्ध कभी नहीं जीत सकता है। इतिहास इस बात का गवाह है कि जहां-जहां आदिवासियों ने अपने नेतृत्व में संघर्ष किया है वहां उन्हें सफलता मिली है और जहां उधार के कैप्टेन, खिलाड़ी और रेफरी पर भरोसा कर मैच खेला वहां उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा है क्योंकि फाउल और गोल दोनों ये लोग ही तय करते हैं।
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