- ग्लैडसन डुंगडुंग -
‘‘जंगल में आदिवासी रहते हैं। उन सबको सरकार ने आतंकवादी घोषित कर दिया है। आप ने एक बहुत बड़ी गलती कर दी आदिवासियों के इलाके में आकर। न तो ये इंसान हैं और न ही जानवर। ये शैतान हैं शैतान!’’ ‘‘अरे ये शैतानों को इंसान बनाने के लिए ही हम आये हैं। इसके लिए हमारी पूरी जिन्दागी भी है।’’ डेरा सच्चा सौदा के संत गुरमीत राम रहीम सिंह की फिल्म ‘एमएसजी-2’ के ये डायलॉग ने देशभर के आदिवासियों का खून खौला दिया था। फिल्म पर प्रतिबंध लगाने और सेंसर बोर्ड के सदस्यों एवं फिल्म के निर्माता व निर्देश के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग को लेकर आदिवासियों ने देश भर में विभिन्न तरीकों से प्रतिवाद किया एवं न्यायालय का दरवाजा भी खटखटा। आदिवासी वोट बैंक की चिंता में झारखंड, छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश की भाजपा सरकारों ने फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन वहीं केन्द्र सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा क्योंकि यह आदिवासी पहचान और अस्मिता पर एक सुनियोजित हमला था। इस मामले पर दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद सबसे बड़ा सवाल उभर कर सामने आया है कि क्या सही में आदिवासी लोग शैतान हैं?
इस मामले में फिल्म सेंसर बोर्ड एवं केन्द्र सरकार के रवैये की अपेक्षा दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय ज्यादा चैकाने वाला था। झारखंड के घाटशिला निवासी प्रेम मार्डी ने फिल्म का लाईसेंस रद्द करवाने और सेंसर बोर्ड के सदस्यों एवं फिल्म के निर्माता व निर्देश के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग को लेकर सविधान के अनुच्छेद 226 का उपयोग करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर किया था। दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश राजीव सहाय इनसुला ने इस मामले पर सुनवाई करते समय अजीबो-गरीब फैसला सुनाकर याचिका खारिज कर दी। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता ने आर्जी दी है कि आदिवासी का मतलब अनुसूचित जनजाति है इसलिए फिल्म एमएसजी-2 के द्वारा ‘आदिवासियों के प्रति नफरत फैलाने की कोशिश की गई है। लेकिन मेरे समझ से आदिवासी का अर्थ ‘देशज’ लोगों से है ‘अनुसूचित जनजाति’ से नहीं जो संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत आते हैं। मैंने इसको जांचने का प्रयास किया। असल में आर्यों के आने से पहले भारत में रहने वालों को आदिवासी कहा जाता था।’
वे आगे कहते हैं कि ‘यह सुनिश्चित होने के लिए मैंने संविधान को हिन्दी में भी पढ़ा लेकिन आदिवासी शब्द कही नहीं मिला। अंग्रेजी शब्द 'ट्राइबल' के जगह पर ‘जनजाति’ शब्द का उपयोग किया गया है। इसलिए मैं पुनः दृढ़ता के साथ कह रहा हूँ कि आदिवासी शब्द अनुसूचित जनजाति के लिए नहीं बल्कि जो भारत या विश्व में पहले से रहते थे उनके लिए प्रयोग किया जाता है, जो अब बंगलादेश, नेपाल और श्रीलंका में हैं। अमेरिका के देशज लोग आदिवासी हैं। मैंने फिल्म के ट्रेलर में भी ऐसा कुछ नहीं पाया, जिसमें आदिवासियों के बारे में हिंसा फैलाने की कोशिश किसी ने की हो। इसलिए याचिका खारिज की जाती है क्योंकि इसमें कोई दम नहीं है।’
दिल्ली उच्च न्यायालय के जजमेंट से कई सवाल उठता है। न्यायाधीश ने कहा है कि आर्यो के आने से पहले भारत में आदिवासी रहते थे तो सवाल यह है कि वे कहां गये? क्या वे लोग बंगलादेश, नेपाल एवं श्रीलंका में हैं? न्यायाधीश की माने तो बंगलादेश, नेपाल, श्रीलंका, अमेरिका और अफ्रिका के आदिवासी लोग शैतान हैं? यह कैसी मानसिकता है? इसमें सबसे अहम सवाल यह है कि क्या न्यायाधीश पक्षपाती हैं, पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं या अशिक्षित हैं, जिन्होंने निर्णय देने से पहले सुप्रीम कोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण जजमेंट नहीं पढ़ा? सीए सं. 11/2011 एस.एल.पी. (सी) सं. 10367/2010 कैलास एवं अन्य बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मार्कंडे काटजू एवं न्यायाधीश ज्ञानसुधा मिश्रा की खंडपीठ ने जजमेंट में ट्राइबल, शेड्यूल्ड ट्राइब एवं आदिवासी जैसे शब्दों का लगातार प्रयोग किया है।
संविधान सभा के बहस में जयपाल सिंह मुंडा, जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, डा. भीमराव अंबेदकर इत्यादि ने आदिवासी, अबोर्जिनल, ट्राइबल, शेड्यूल्ड ट्राइब का उपयोग बार-बार किया है। भारतीय संविधान के मसौदा के अनुच्छेद-13 (5) में आदिवासी शब्द को रखा गया था, जिससे डा. भीमराव अंबेदकर ने हटवा दिया। इसके अलावा भी मानव शास्त्रियों के अध्ययन, इतिहास पुस्तकों, योजना आयोग, हाई पावर कमेटी एवं राज्य सरकारों के दस्तावेजों में आदिवासी, ट्राइबल, शेड्यूल्ड ट्राइब एवं अनुसूचित जनजाति जैसे शब्दों का उपयोग किया गया है। बावजूद इसके न्यायाधीश ने आदिवासी और ट्राइबल, शेड्यूल्ड ट्राइब को अलग-अलग बताकर याचिका खारिज कर दी। इससे क्या समझा जाये?
यहां दिलचस्प बात यह है कि फिल्म एमएसजी-2 में आदिवासियों को शैतान घोषित किया जाता है और गुरमीत राम रहीम सिंह को इंसान, जो यह दावा करता है कि वह शैतानों को इंसान बनायेगा तथा उसका पूरा जीवन इसी काम के लिए है। असल में देखा जाये तो आदिवासी पहचान, अस्मिता और अस्तित्व पर यह कोई नया हमला नहीं है बल्कि हजारों वर्षों से यह इसी तरह से चलता आ रहा है। यह सिलसिला आर्यों के भारत पर आक्रमण करने के साथ ही शुरू हो गया था। उन्होंने आदिवासी इलाकों को कब्जा कर उनके सभ्यता को तहस-नहस कर दिया। इसके बाद वे स्वयं को देव, सुर, श्रेष्ठ, पवित्र, सभ्य इत्यादि घोषित कर दिया और आदिवासियों को दानव, असूर, बर्बर, शैतान एवं राक्षस। इसके बाद जब मुगल आये तो उन्होंने भी आदिवासियों को जंगली के अलावा और कुछ नहीं माना।
भारत में अंगे्रजों के आने के बाद ‘विकास’ नामक भूत का आगमन हुआ और आदिवासियों से उनके आजीविका के संसाधनों को लूटने के बाद उन्हें भूखा, नंगा, गरीब, लाचार, असभ्य, अपराधी, हसिये के लोग इत्यादि से नवाजा गया। वहीं गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन कहा तो अम्बेदकर ने असभ्य। और संघ परिवार ने आदिवासियों को वनवासी बताते हुए उनके खिलाफ संगठित मुहिम खोल दिया। इस तरह से आदिवासियों के लिए वनवासी शब्द का उपयोग जोर-शोर से होने लगा क्योंकि आर्य लोग स्वयं को देश का असली निवासी घोषित करना चाहते हैं। इसी बीच 1974 के संपूर्ण क्रांति से देश में एनजीओ की बाढ़ आयी और आदिवासी इलाकों में काम करने वाले दिकू लोग आदिवासियों के लिए अपना जीवन देने का दावा करने लगे। आदिवासियों के लिए एक के बाद एक मसीहा पैदा हुए लेकिन बहुसंख्यक आदिवासी वहीं का वहीं पड़े रहे। सरकारी, एनजीओ और गैर-आदिवासी समाज ने आदिवासियों को भूखा, गरीब, लाचार, पिछड़ा, असभ्य इत्यादि घोषित कर उन्हें मुख्यधारा में लाने, उनका विकास करने और उन्हें बेहतर जीवन उपलब्ध कराने के आड़ में पैसा, नाम और सोहरत बटोर लिया। एमएसजी-2 इसकी अगली कड़ी भर है।
झारखंड में वोट बैंक खिसकने के डर से भाजपा सरकार ने फिल्म पर सबसे पहले प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन प्रतिबंध लगाने के बाद मुख्यमंत्री रघुवर दास ने अपने फेसबुक में जो लिखा वह शर्मनाक है, जो इस बात की ओर इंगित करता है कि संघ परिवार कैसे आदिवासियों को अपने कब्जें में लेकर उनका पहचान, अस्मिता और अस्तित्व को दफन करना चाहता है। उन्होंने लिखा, ‘‘आदिवासी वनवासी भाई-बहनों की भावनाओं से खेलने की इजाजत राज्या में किसी को नही...आदिवासी भाई-बहनों के लिए असंवैधानिक और अमर्यादित भाषा का प्रयोग करने वाली फिल्म एमएसजी-2 के प्रसारण की अनुमति नहीं दी जायेगी।’’ लेकिन आदिवासियों को ‘वनवासी’ कहना भी अमर्यादित भाषा और गाली है क्योंकि आर्यों और मुगलों ने आदिवासियों को जंगली कहा, जिसका अर्थ ही असभ्य, बर्बर और पिछड़ा है।
फिल्म एमएसजी-2 में आदिवासियों को ‘शैतान’ घोषित करना, आदिवासी पहचान, अस्मिता और अस्तित्व पर एक संगठित हमला है। गुरमीत राम रहीम सिंह को अच्छी तरह से पता था कि आदिवासियों पर जितना भी हमला किया जाये, केन्द्र सरकार उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेगी क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आदिवासियों के लिए ‘वनबंधु’ जैसे शब्द का सरकारीकरण किया है। मोदी अनुसूचित जातियों के लिए ‘दलित’ शब्द का प्रयोग करते हैं लेकिन अनुसूचित जनजातियों को ‘आदिवासी’ शब्द से संबोधित करने की हिम्मत नहीं है उनमें क्योंकि उनका आका संघ परिवार विगत कई दशकों से आदिवासी पहचान, अस्मिता और अस्तित्व को मिट्टी में मिलाने के लिए युद्धस्तर पर लगा हुआ है, जिसके तहत संघ परिवार आदिवासियों के लिए ‘वनवासी’ शब्द का उपयोग करता है क्योंकि देश में आदिवासी शब्द की स्वीकृति से ही बहुसंख्यक गैर-आदिवासी लोग बाहरी हो जायेंगे और आदिवासी लोग देश के मूलनिवासी।
लेकिन क्या इससे सुप्रीम कोर्ट द्वारा 5 जनवरी 2011 को दिया गया अहम फैसला बदल जायेगा, जिसमें कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि 8 प्रतिशत आदिवासी ही भारत देश के असली निवासी हैं और शेष 92 प्रतिशत लोग आप्रवासियों के संतान हैं? सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि आदिवासी लोग गैर-आदिवासियों जैसा न किसी को ठगते हैं, झूठ बोलते हैं और न ही किसी को लूटते हैं। उनका चरित्र गैर-आदिवासियों से श्रेष्ठ है। और निश्चित तौर पर इस सत्य को इंकार नहीं किया जा सकता है।
हैरान करने वाली बात यह है कि फिल्म का इतना विरोध होने के बावजूद डेरा सच्चा सौदा ने राष्ट्रीय पत्रिका आॅटलूक हिन्दी के स्पाॅटलाई पेज में दावा किया है कि एमएसजी-2 सच्ची घटना पर आधारित फिल्म है। इसमें कहा गया है कि वर्ष 2000 में राम रहीम सिंह राजस्थान के झांडोल में सत्संग के लिए गए हुए थे। वहां के लोगों ने उन्हें बताया की पास ही आदिवासी इलाका है, उधर भूलकर भी नहीं जाना। वे लोग जानवरों की तरह रहते हैं। अगर कोई इंसान गलती से चला जाए तो मार-पीट, लूट-पाट और कत्ल कर देते हैं। जैसे ही वे सेवादारों के साथ वहां गए तो पहले आदिवासियों ने जहर बुझे तीरों से उन पर प्रहार किया, पत्थर फेंके लेकिन जैसे ही उन लोगों ने देखा कि ये लोग उन्हें खाने-पीने का सामान मुफ्त में दे रह हैं तो उन्होंने पास आना शुरू किया और गुरूजी को सुनना शुरू किया।
डेरा सच्चा सौदा दावे के साथ कहता है कि उन आदिवासियों का जीवन पूरी तरह असभ्य था। वे लोग बिल्कुल नग्न थे, महुए की शराब बनाकर दिन-रात नशे में रहते थे। 3-4 दिनों में एक कत्ल हो जाते थे। छोटी उमें में ही लड़के-लड़कियों को भगा ले जाते थे और शादी से पहले ही बच्चे हो जाते थे, मां-बाप की शादी में बच्चे नाचते-कूदते थे। जिंदा पशुओं को उल्टा लटकाकर उनका खून पीते थे और नाखूनों से फाड़कर कच्चा मांस खा जाते थे। ऐसा असभ्य जीवन जीते थे वे लोग । जैसे ही गुरूजी ने आदिवासी क्षेत्र को सुधारने का बीड़ा उठाया, दिन-प्रतिदिन उन लोगों में सुधार आने लगा। गुरूजी की ऐसी कृपा उनपर हुई कि वे अपना लूट-पाट का पुश्तैनी धंधा छोड़कर सभ्य मानव का जीवन जीने लगे। इन लोगों को व्यावसायिक प्रशिण दिया। जिनके हाथों में हर वक्त जहर बुझे तीर, पत्थर रहते थे अब वे निपुणता से कार्य करने लगे हैं। डेरा सच्चा सौदा का यह दावा निश्चित तौर पर खोखला है, जिसने गुरमीत राम रहीम सिंह को भगवान बनाने की कोशिश में आदिवासियों को शैतान घोषित कर दिया है।
निश्चित तौर पर फिल्म एमएसजी-2 और डेरा सच्चा सौदा का रवैया एक बार फिर से इस बात का सबूत पेश करता है कि कैसे बहुसंख्यक गैर-आदिवासी भारतीयों के मन में आदिवासियों के प्रति नफरत, द्वेष और पूर्वाग्रह भरा पड़ा है और वे उससे मुक्त होना नहीं चाहते हैं। इसलिए अब गुरमीत राम रहीम सिंह, संघ परिवार और गैर-आदिवासी समाज को सोचना होगा कि असल में असभ्य, चरित्रहीन, असूर, बर्बर, दानव, राक्षस और शैतान कौन है? यह तो तय है कि अगर आदिवासी शैतान हैं तो फिर दुनियां में इंसान कोई भी नहीं हो सकता है क्योंकि दुनियां का सर्वश्रेष्ठ मानवीय मूल्य - समानता, सामुहिकता, स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय सिर्फ आदिवासी जीवन-दर्शन में है। श्रेष्ठ, सभ्य, शिक्षित, उच्च श्रेणी और विकसित होने का दंभ भरने वाले लोगों को आदिवासी समाज से बहुत कुछ सीखना अभी बाकी है।
हैरान करने वाली बात यह है कि फिल्म का इतना विरोध होने के बावजूद डेरा सच्चा सौदा ने राष्ट्रीय पत्रिका आॅटलूक हिन्दी के स्पाॅटलाई पेज में दावा किया है कि एमएसजी-2 सच्ची घटना पर आधारित फिल्म है। इसमें कहा गया है कि वर्ष 2000 में राम रहीम सिंह राजस्थान के झांडोल में सत्संग के लिए गए हुए थे। वहां के लोगों ने उन्हें बताया की पास ही आदिवासी इलाका है, उधर भूलकर भी नहीं जाना। वे लोग जानवरों की तरह रहते हैं। अगर कोई इंसान गलती से चला जाए तो मार-पीट, लूट-पाट और कत्ल कर देते हैं। जैसे ही वे सेवादारों के साथ वहां गए तो पहले आदिवासियों ने जहर बुझे तीरों से उन पर प्रहार किया, पत्थर फेंके लेकिन जैसे ही उन लोगों ने देखा कि ये लोग उन्हें खाने-पीने का सामान मुफ्त में दे रह हैं तो उन्होंने पास आना शुरू किया और गुरूजी को सुनना शुरू किया।
डेरा सच्चा सौदा दावे के साथ कहता है कि उन आदिवासियों का जीवन पूरी तरह असभ्य था। वे लोग बिल्कुल नग्न थे, महुए की शराब बनाकर दिन-रात नशे में रहते थे। 3-4 दिनों में एक कत्ल हो जाते थे। छोटी उमें में ही लड़के-लड़कियों को भगा ले जाते थे और शादी से पहले ही बच्चे हो जाते थे, मां-बाप की शादी में बच्चे नाचते-कूदते थे। जिंदा पशुओं को उल्टा लटकाकर उनका खून पीते थे और नाखूनों से फाड़कर कच्चा मांस खा जाते थे। ऐसा असभ्य जीवन जीते थे वे लोग । जैसे ही गुरूजी ने आदिवासी क्षेत्र को सुधारने का बीड़ा उठाया, दिन-प्रतिदिन उन लोगों में सुधार आने लगा। गुरूजी की ऐसी कृपा उनपर हुई कि वे अपना लूट-पाट का पुश्तैनी धंधा छोड़कर सभ्य मानव का जीवन जीने लगे। इन लोगों को व्यावसायिक प्रशिण दिया। जिनके हाथों में हर वक्त जहर बुझे तीर, पत्थर रहते थे अब वे निपुणता से कार्य करने लगे हैं। डेरा सच्चा सौदा का यह दावा निश्चित तौर पर खोखला है, जिसने गुरमीत राम रहीम सिंह को भगवान बनाने की कोशिश में आदिवासियों को शैतान घोषित कर दिया है।
निश्चित तौर पर फिल्म एमएसजी-2 और डेरा सच्चा सौदा का रवैया एक बार फिर से इस बात का सबूत पेश करता है कि कैसे बहुसंख्यक गैर-आदिवासी भारतीयों के मन में आदिवासियों के प्रति नफरत, द्वेष और पूर्वाग्रह भरा पड़ा है और वे उससे मुक्त होना नहीं चाहते हैं। इसलिए अब गुरमीत राम रहीम सिंह, संघ परिवार और गैर-आदिवासी समाज को सोचना होगा कि असल में असभ्य, चरित्रहीन, असूर, बर्बर, दानव, राक्षस और शैतान कौन है? यह तो तय है कि अगर आदिवासी शैतान हैं तो फिर दुनियां में इंसान कोई भी नहीं हो सकता है क्योंकि दुनियां का सर्वश्रेष्ठ मानवीय मूल्य - समानता, सामुहिकता, स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय सिर्फ आदिवासी जीवन-दर्शन में है। श्रेष्ठ, सभ्य, शिक्षित, उच्च श्रेणी और विकसित होने का दंभ भरने वाले लोगों को आदिवासी समाज से बहुत कुछ सीखना अभी बाकी है।
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