सोमवार, 29 जून 2015

सेल्फी से बेटी बचाने का नाटक?

- ग्लैडसन डुंगडुंग -

29 जून, 2015 को सुबह फेसबुक खोलते ही कुछ मित्रों की सेल्फी अपनी बेटियों के साथ दिखाई पड़ी, जो मोदी प्रभाव का नतीजा था। रविवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रेडियों कार्यक्रम ‘मन की बात’ में बोलते हुए देश के 100 जिले विशेष तौर पर हरियाणा में घटते लिंगानुपात पर चिंता व्यक्त करते हुए लड़कियों की सुरक्षा के लिए सोशल मीडिया पर अभियान चलाने की वकालत की थी। उन्होंने ‘सेल्फी विद डाॅटर’ में सेल्फी निकलकर पोस्ट करने का आग्रह भी किया था। निश्चित रूप से बड़ा मीडिया काॅवरेज पाने के लिए यह आईडिया बहुत अच्छा था। लेकिन ’सेल्फी विद डाॅटर’ अभियान से जुड़कर सोशल मीडिया में अपनी बेटियों के साथ सेल्फी डालने वाले लोगों से मेरा प्रश्न यह है कि क्या वे अपनी बेटियों की शादी में दहेज नहीं देंगे और बेटों के लिए दहेज नहीं मांगेंगे? अगर इस प्रश्न का जवाब वे हां में देते हैं तो निश्चित तौर पर बेटी बचेगी वरना सेल्फी विद डाॅटर जैसे अभियान क्या मजाक बनकर नही रह जायेगा?

निश्चित रूप से देश में लिंग अनुपात में भारी गिरावट गंभीर चिंता का विषय हैं। रिपोर्ट की माने तो भारत में प्रतिवर्ष लगभग 5 लाख मादा भ्रूण हत्या की जाती है। पिछले दो दशकों में लगभग 1 करोड़ मादा भ्रूण हत्या की गई है, जो यूरोप के स्वीट्जरलैंड जैसे कई छोटे देशों के कुल जनसंख्या से भी ज्यादा है। यह देश के लिए बेहद शर्मनाक है। राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2001 से 2010 तक दहेज के लिए 74,351 महिलाओं की हत्या की गयी एवं 42,032 महिलाओं को प्रताड़ित किया गया। मादा भ्रूण हत्या एवं दहेज प्रथा का एक दूसरे से काफी गहरा संबंध है। लेकिन इसमें सबसे आश्चार्य करने वाली बात यह है कि नरेन्द्र मोदी ने रेडियों में अपने ‘मन की बात की, ट्वीट किया और सेल्फी भी ली लेकिन दहेज प्रथा पर अब तक वो मौन हैं। यह कौन नहीं जानता है कि मादा भ्रूण हत्या का सबसे प्रमुख कारण समाज में बेटी को बोझ समझा जाना है और उसका जड़ दहेज प्रथा है। लेकिन मोदी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ एवं ‘सेल्फी विद डाॅटर’ जैसा अभियान चलाकर मादा भू्रण हत्या जैसे समस्या की जड़ काटने के बजाये पतियां तोड़ने की कोशिश में जुटे हैं। मोदी को इस सवाल का जवाब तलाशना चाहिए कि आदिवासी समाज में मादा भू्रण हत्या क्यों नहीं होती है? 

यह इसलिए क्योंकि आदिवासी समाज में दहेज प्रथा मौजूद ही नहीं है इसलिए मोदी को ‘सेल्फी विद डाॅटर’ के जगह आदिवासी समाज से बेटी बचाना सीखना चाहिए जहां बेटा और बेटी के बीच कोई भेदभाव नहीं होता है और न ही दहेज की लेन-देन होती है। दहेज जैसा महा दानव आदिवासी संस्कृति का हिस्सा ही नहीं है। लेकिन मोदी ने अपने बेटी बचाओ अभियान के दौरान हरियाण से ‘सेल्फी विद डाॅटर’ का जिक्र तो किया लेकिन आदिवासी समाज का नाम तक नहीं लिया। जबकि देश में आदिवासी समाज बेटी बचाने के लिए रोल माॅडल है जहां बेटियों की संख्या बेटों से कहीं ज्यादा है। क्या यह आदिवासी समाज के साथ बेईमानी नहीं है? वे कैसे प्रधानमंत्री हैं जो आदिवासी समाज से नफरत और सेल्फी से प्यार करते हैं? निश्चित रूप से यह बेटी बचाने के नामपर खूद को स्टार बनाने का अभियान है। हां यह जरूर कहा जा सकता है कि मोदी ने देश की चार भ्रष्ट बेटियां - सुषमा स्वराज, स्मृति ईरानी, बसुंधरा  राजे सिंधिया और पंकजा मुंडे को जरूर बचाया है। 

यहां एक मुद्दा यह भी है कि मोदी अपने अभियान में हमेशा सिर्फ मध्यवर्ग को ही केन्द्र में रखते हैं, जिनके पास स्मार्ट मोबाईल, इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग है। क्या यह सरकार सिर्फ मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है या मोदी सिर्फ मध्यवर्ग को रिझाकर भाजपा के लिए सुरक्षित वोट बैंक बनाना चाहते है? भारत गावों का देश हैं और अब भी लगभग 70 प्रतिशत लोग गांवों में ही रहते हैं। तेन्दुलकर कमेटी रिपोर्ट की मानों तो 70 प्रतिशत ग्रामीण लोग सिर्फ 20 रूपये में जीते हैं। ऐसे में क्या ये लोग ‘सेल्फी विद डाॅटर’ जैसा कार्यक्रम में कैसे भाग ले सकते हैं, जिनके लिए स्मार्ट मोबाईल, कम्पयूटर और इंटरनेट आज भी एक सपना जैसा ही बना हुआ है? यह भी गजब ही है कि मोदी रेडियों में मन की बात करते हैं और मुद्दे मध्यवर्ग का उठाते हैं, जिन्हें रेडियों से बहुत मतलब नहीं है? सबसे बड़ा सवाल यह है कि गरीबों के मन की बात कौन सुनेगा? क्या मोदी गरीबों के लिए भी कोई अभियान चलायेंगे? 

अगर सेल्फी विद डाॅटर अभियान बेटियों को दहेज रूपी महा दानव से बचा सकता है तब तो यह अभियान सही है वरना यह भी मोदी के अन्य राजनीतिक एवं मीडिया में छाये रहने के लिए बनाया गया अभियान जैसा ही बाद में ठंढ पड़ जायेगी। सेफी विद डाॅटर के जगह पर ‘सेल्फी विद नाॅ डाॅवरी’ जैसे अभियान चलाया जाना चाहिए। हैरानी तब होती हैं जब बेटियों को बचाने के लिए सरकार दहेज प्रथा तक का सरकारीकरण कर रहीं है। बेटी बचाओं के नाम पर बैंकों में खाता खोलने, पैसा जमा करने एवं ज्यादा ब्याज देने जैसा योजना चलायी जा रही है एवं 21 वर्ष की आयु में पूरा पैसा निकालने की छूट। यानी बेटी को दहेज देने के लिए पैसा जमा करने और सरकारी मदद? क्या यह दहेज को बढ़ावा देना नहीं है? जबकि बेटी बचाने के लिए उन्हें आर्थिकरूप से सशक्त बनाना एवं दहेज प्रथा को समाप्त करने का उपाय ढूढ़ना चाहिए था। क्या दहेज बहुसंख्यक समाज के संस्कृति का हिस्सा बन चुका है इसलिए मोदी दहेज प्र्रथा पर अपना मुंह नहीं खोलते हैं? क्या आर.एस.एस. ने उन्हें दहेज प्रथा के खिलाफ बोलने से मना किया है? आखिर मोदी दहेज प्रथा कि खिलाफ क्यों नहीं बोलते हैं? 

कभी-कभी यह सोचकर मन डोल जाता है कि समाज के मुख्यधारा में होने का दंभ भरने वाले लोंगों की हालत इतनी दायनीय हो गयी है कि उन्हें अपनी बेटियों के साथ सेल्फी खिंचकर देश के प्रधानमंत्री के सामने सबूत पेश करना पड़ रहा है कि वे भी अपनी बेटियों से प्यार करते हैं। आदिवासी समाज बेटियों के साथ न तो सेल्फी लेता है और न ही उन्हें बेटियों से प्यार करने का सबूत देना पड़ता है क्योंकि जो दिखावा में अपनी बेटियों के साथ प्यार करते हैं उन्हें सबूत की जरूरत पड़ती है और जो अपनी बेटियों को दिल से प्यार करते हैं, उन्हें दिखाने की जरूरत ही नहीं। लोग इस गलतफहमी में भी न रहे कि आदिवासियों के पास स्मार्ट मोबाईल नहीं है इसलिए ‘सेल्फी विद डाॅटर’ में शामिल होकर पैंतरेबाजी नहीं कर रहे हैं। शिक्षित, विकसित और सभ्य होने का दावा करने वाले लोगों को ‘सेल्फी विद डाॅटर’ जैसा एक विशुद्ध राजनीतिक अभियान में शामिल होकर बेटी बचाने का नवटंकी करने के बजाये दहेज प्रथा को समाज से उखाड़ फेकने का प्रयास करना चाहिए। जो भी हो अपनी बेटियों को बचाने के लिए मोदी एंड कंपनी को आदिवासी समाज से ही सीखना पड़ेगा क्योंकि दूसरा कोई रास्ता नहीं है। 

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