मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

आपकी राजनीति ठीक नहीं है काॅमरेड ?

- ग्लैडसन डुंगडुंग -


झारखंड की भाजपा सरकार ने मधुमक्खी के छाता को छेड़ दिया है। छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 एवं संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 को आदिवासियों के सुरक्षा कवच का दर्जा प्राप्त है और आदिवासी लोग इन्हें अपना विरासत मानते हैं क्योंकि इन कानूनों की उत्पति ही बिरसा उलगुलान, संताल हूल और कोल विद्रोह जैसे ऐतिहासिक क्रांतियों से हुई है। लेकिन जन भावनाओं को दरकिनार करते हुए भाजपा सरकार ने उद्योगपति, व्यापारी एवं प्रवासी मध्यवर्ग को खुश करने के लिए इन कानूनों का संशोधन कर दिया है, जिसका आदिवासी लोग पूरजोर विरोध कर रहे हैं, पुलिस की लाठी-गोली खा रहे हैं और जेल भी जा रहे हैं। राज्य प्रायोजित दमन के बावजूद जमीन बचाने का जज्बा देखकर दिल बागबाग हो जाता है। लेकिन राजनीतिक परिदृश्य सामने आते ही दिल टूट जाता है। उद्योगपतियों के साथ समझौता करने वाले, आम जनता पर गोली चलवाने वाले एवं आंदोलनकारियों को जेल भेजवाने वाले नेताओं को ये क्रांतिकारी लोग फूल-मालाओं से स्वागत करते हैं, उनके सभाओं में जाते हैं और चुनाव के समय उन्हें वोट देकर जीताते हैं। यह कैसी राजनीति है कामरेड? जब तक आदिवासियों की राजनीति सही नहीं होगी वे लूटते, रोते-बिलखते और तड़पते रहेंगे। 

इसको और ज्यादा गहराई से समझने के लिए कुछ बड़े जनांदोलनों का राजनीतिक विश्लेषण जरूरी है। इसमें एक है कोईलकारो जनांदोलन। खूंटी जिले के तपकारा के पास कोईल और कारो नदियों को बांधकर 710 मेगावट बिजली उत्पादन करने की सरकार की योजना थी, जिसके खिलाफ आदिवासियों ने लगभग तीन दशक तक संघर्ष कर सरकार को परियोजना वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन इस इलाका में राजनीतिकरूप से भाजपा का ही दबदबा है। 2005 में यहां भाजपा के कोचे मुंडा चुनाव जीते और जब भाजपा सत्ता में आयी तो अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में अर्सेलर मित्तल कंपनी का समन्वित इस्पात करखाना लगाने के लिए 25,000 एकड़ जमीन अधिग्रहण करने हेतु एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर किया गया। फिर और एक आंदोलन मितल कंपनी के खिलाफ शुरू हुआ। जनांदोलन इतना जबर्दस्त था कि झारखंड सरकार, खूंटी की कांग्रेस सांसद सुशीला केरकेट्टा एवं स्थानीय भाजपा नेताओं के समर्थन के बावजूद मित्तल कंपनी को वहां से भागना पड़ा। लेकिन फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में मितल कंपनी के साथ एम.ओ.यू. करने वाली भाजपा को ही लोगों ने वोट दिया। खूंटी का लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा सीट भी भाजपा की झोली में ही गया।

नेतरहाट की वादियां जनांदोलन का दूसरा गढ़ है, जहां आदिवासियों ने पिछले चार दशकों से केन्द्र सरकार द्वारा प्रस्तावित परियोजना ‘फिल्ड फायरिंग रेंज’ को रोक दिया है। यहां आज भी साल में एक बार 22 एवं 23 मार्च को आंदोलनकारियों की भीड़ देखी जा सकती है। लेकिन यहां की राजनीति भी कांग्रेस और भाजपा से बाहर नहीं निकल पायी है। ‘फिल्ड फायरिंग रेंज’ परियोजना कांग्रेस सरकार के द्वारा प्रस्तावित है लेकिन यहां के लोग कांग्रेस को ही वोट देते रहे हैं। और अब यह भाजपा का गढ़ बन गया है। झारखंड गठन के बाद इस क्षेत्र में भी भाजपा लगातार जीत रही है। इस इलाका में ‘जान देंगे, जमीन नहीं’ का नारा बुलंद है लेकिन आंदोलन से जुड़े लोग वोट उन्हीं पार्टियों को दे रहे हैं जो आदिवासियों का जान भी ले रहे हैं एवं जमीन भी, और उन्हीं के विकास के नाम पर। जल, जंगल और जमीन को लेकर क्रांति करने वाले लोग राजनीतिक विश्लेषण से क्यों दूर भागते हैं? क्या असली दुश्मन को पहचाने बगैर कोई लड़ाई जीती जा सकती है?  

झारखंड गठन के बाद कोल्हान का पोटका क्षेत्र जनांदोलन का गढ़ बना क्योंकि भूषण स्टील एवं पावर लिमिटेड व जिंदल स्टील लिमिटेड ने पोटका में स्टील प्लाॅंट लगाने का प्रस्ताव रखा था। 2005 से लेकर 2010 तक इस इलाके में आदिवासियों ने जबर्दस्त आंदोलन किया। फलस्वरूप,जिंदल कंपनी को कहीं भी जमीन नहीं मिली और वह उस इलाका से भाग खड़ा हुआ। भूषण कंपनी कुछ गैर-आदिवासियों का जमीन खरीदकर वहां बैठ गया लेकिन आदिवासियों की जमीन नहीं ले सका। भाजपा नेता मेनका सरकार ने भूषण कंपनी को बैठाने का भरपूर प्रयास किया तथा 2010 में उसके भूमि पूजन में भी शामिल हुई। उस समय आदिवासियों ने मेनका सरकार द्वारा दिया गया विकास के पाठ को भी नाकार दिया था। लेकिन 2009 एवं 2014 के लोकसभा चुनाव में उस क्षेत्र के लोगों ने भाजपा को वोट दिया एवं 2014 के विधानसभा चुनाव में मेनका सरकार फिर से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंची। यहां लोग आज भी विस्थापन के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। 

यह बेवकूफी नहीं तो और क्या है कि आदिवासी लोग एक तरफ विस्थापन के खिलाफ लड़ते हैं और दूसरी ओर जमीन लूट को सुनिश्चित करने वाली पार्टी को वोट देते हैं? फिर आंदोलन करने की जरूरत क्या है? लोगों को ‘‘जान देंगे, जमीन नही देंगे’’ का नारा सिखाने के बजाये माथा पर हाथ रखकर रोने सिखाना चाहिए, संगठित होकर विरोध करने के बजाये जल, जंगल, जमीन और अपना अस्तित्व को खत्म करते हुए हड़िया-दारू पीकर मस्त रहना सिखाना चाहिए और मंदर, नगाड़ा एवं आदिवासी नाच से टाटा, बिरला, जिंदल, मित्तल और कोहिनूर का स्वागत करने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके साथ-साथ विस्थापन के बाद झूग्गी-झोपड़ी में रहना, रिक्शा चलाना और दूसरों के घरों में दाई और नौकर बनकर काम करने की प्रशिक्षण देनी चाहिए और कुछ भी नहीं तो कम से कम विस्थापित होने तक चैन की जीवन जीना सिखाना चाहिए। क्योंकि आदिवासी लोग उन्हें ही अपना प्रतिनिधि चुनते हैं जो न संसद और न ही विधानसभा में विस्थापन, जमीन लूट और आदिवासी अत्याचार जैसे मुद्दों को उठाते हैं?  

वैसे झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री व भाजपा नेता अर्जुन मुंडा आजकल क्रांतिकारी हो गये हैं और झारखंड के आंदोलनकारी उनकी तारीफ कर रहे हैं। लेकिन क्या सचमुच उनकी राजनीतिक सोच बदल गई है और वे अब बिरसा के वंशजों को बचाना चाहते हैं? क्या उन्हें आजतक यह समझ में नहीं आया था कि औद्योगिक विकास ही आदिवासियों के समाप्ति का मूल कारण है? पश्चिमी सिंहभूम के कालीमाटी और साकची में टाटानगर की स्थापना से पहले वहां 95 प्रतिशत आदिवासी थे, जो मात्र सौ साल के बाद पांच प्रतिशत पर आ गये। क्या औद्योगिकरण की हकीकत को समझने के लिए यह काफी नहीं है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्जून मुंडा ही एम.ओ.यू. के बादशाह हैं, जिनके कार्यकाल में औद्योगपतियों के साथ 54 एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर हुआ। यह हमलोग कैसे भूल सकते हैं कि उन्होंने बिरसा मुंडा की धरती खूंटी में मितल नगर बसाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी? और जब लक्ष्मी मितल साहब नाराज हो गए थे तो अपनी टीम के साथ उनको मनाने के लिए लंदन गए थे। क्या यदि विगत चुनाव में उन्हें अपनों के द्वारा नहीं हराया गया होता तो आज वे आदिवासी हित की बात करते? क्या अर्जुन मुंडा का मन परिवर्तन हो गया है? 

इसी तरह सत्ता से दूर रहने के बाद झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मारंडी भी आदिवासियों के पक्षधर हो गए हैं। इन दिनों आदिवासी ही उनकी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा का प्राथमिक मुद्दे हो गए हैं। होना भी चाहिए लेकिन क्या उन्होंने इतिहास से सबक लिया है या यह सिर्फ सत्ता में पहुंचने का रास्ता है? इतिहास का विशलेषण करने से यह पता चलता है कि उनके शासनकाल में 2 फरवरी 2001 को खूंटी के तपकारा में पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोली बरसायी, जिसमें 8 आदिवासी एवं 1 मुस्लिम सहित 9 लोग मारे गये थे। झारखंड में उन्होंने ही 2001 में औद्योगिक नीति लायी और आदिवासियों को अपनी जमीन बेचकर अमीर बनने की सलाह दी। आदिवासियों के सुरक्षा कवच छोटानागपुर एवं संथाल परगना काश्कारी कानूनों में संशोधन करने की पूरजोर वकालत की और ग्रेटर रांची की परिकल्पना भी। क्या उन्हें भी अब यह समझ में आ रहा है कि जमीन के बगैर आदिवासी लोग अस्तित्वविहीन हो जायेंगे? क्या आदिवासियों को उनकी राजनीतिक में विश्वास करना चाहिए? क्या वे आदिवासियों की जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज को बचाने के लिए संघर्ष करेंगे? 

जब सवाल आदिवासी राजनीति की हो तो झारखंड राज्य के आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा को भी नहीं छोड़ा जा सकता है। हम लोग काठीकुंड आंदोलन को भूल गए क्या? हम लोग यह कैसे भूल सकते हैं कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता व तत्कालीन कृषिमंत्री नलिन सोरेन एवं युवा नेता बसंत सारेन ने काठीकुंड में संताल आदिवासियों की जमीन पर कोलकाता की कंपनी ‘सीएसईसी’ का पावर प्लांट स्थापित करने के लिए पूरजोर कोशिश की जबकि 6 दिसंबर 2008 को आंदोलनकारियों के उपर गोली चलायी गई, जिसमें साईगत मरांडी एवं लखीराम टुडू मारे गये, मुन्नी हांसदा सहित कई लोग जेल में रहे तथा सैंकड़ों आंदोलनकारियों पर फर्जी मुकदमा चलाया गया? उस समय झारखंड मुक्ति मोर्चा का आदिवासी आत्मा कहां था? क्या पार्टी ने इसके लिए आदिवासियों से माफी मांगा? क्या हेमंत सोरेन इतिहास से सबक सीख चुके हैं? क्या आदिवासी लोग उनपर भरोसा कर सकते हैं? क्या वे झारखंड की माटी को बचाने के लिए ईमानदारी से लड़ेंगे? 

इसमें विशेषकर दो राष्ट्रीय पार्टियां - भाजपा और कांग्रेस दोनों को पता है कि आदिवासी लोग धर्म का आफिम खाना बहुत पसंद करते हैं। भाजपा की रीढ़ ‘संघ परिवार’ ने सरना धर्म मानने वाले आदिवासियों को धर्म का आफिम खिला-खिलाकर उनके दिमाग में यह भर दिया है कि ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासी ही उनका सबसे बड़ा दुश्मन हैं इसलिए वे भाजपा के साथ ही सुरक्षित हैं। फलस्वरूप, जंगल और जमीन बचाने की लड़ाई छोड़कर कुछ सरना नेता ईसाई मिशनरियों के खिलाफ मोर्चा बंदी करते रहते हैं। इसी तरह कांग्रेस ने भी ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासियों के मन में यह धारणा बैठा दिया है कि ईसाई आदिवासी लोग उसी के साथ सुरक्षित हैं। इसलिए बहुसंख्य ईसाई आदिवासी लोग विगत सात दशक से कांग्रेस को ही वोट देते आ रहे हैं। लेकिन हकीकत यह है कि इन दोनों पार्टियों की आर्थिक नीति एक ही है, जिसके तहत आदिवासियों की जमीन जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज को विकास के नामपर उनसे लूटकर पूंजिपतियों को सौंपना है। आदिवासियों की गैर-कानूनी जमीन लूट, विस्थापन, राज्य प्रायोजित हत्या, बलात्कार एवं फर्जी मुकदमों में जेल बंद से सबंधित सबसे ज्यादा मामले उन्हीं राज्यों में है जहां भाजपा या कांग्रेस ने सबसे ज्यादा समय तक शासन किया है। इसलिए अब आदिवासियों को समझना चाहिए कि इन राष्ट्रीय पार्टियों से उनका भला नहीं होने वाला है। 

यह बहुत ही दिलचस्प तस्वीर है कि झारखंड के संताल परगना एवं कोल्हान क्षेत्र जहां अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहाड़िया विद्रोह, संताल हुल व कोल विद्रोह हुए एवं 1980 व 90 के दशक में झारखंड अलग राज्य की मांग व जंगल आंदोलन चला वहां आज भी झारखंडी पार्टियों का दबदबा है वहीं छोटानागपुर क्षेत्र जहां ऐतिहासिक बिरसा उलगुलान के बाद पिछले तीन दशकों से विस्थापन के खिलाफ सबसे ज्यादा जनांदोलन हुआ है, ‘‘जान देंगे, जमीन नहीं देंगे’’ जैसे नारा की उत्पति हुई और जहां आदिवासियों ने सरकार एवं राष्ट्रीय व बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपना बोरिया-बिस्तर समेटने पर मजबूर कर दिया उसी इलाके में राज्य में सबसे ज्यादा एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर करने वाली पार्टी भाजपा की तूती बोलती है। इससे पहले यह इलाका कांग्रेस का गढ़ था। भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियां झारखंड गठन के खिलाफ थी और उनकी आर्थिक नीतियों की वजह से ही आदिवासी लोग लगातार अपनी जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज से बेदखल हो रहे हैं। इसके बावजूद इस क्षेत्र के आदिवासी लोग इन्हीं दो राष्ट्रीय पार्टियों को अपना संरक्षक मानते हैं और अपना भाविष्य सौंपने पर तुले हुए हैं। क्या इसे आदिवासियों की राजनीतिक नासमझी कहा जाये? क्या आदिवासी लोग राजनीतिकरूप से अपरिपक्व हैं? क्या यह आदिवासी समाज के राजनीतिकरण के अभाव को दर्शाता है? क्या आदिवासी समाज का राजनीतिकरण समय की मांग नहीं है?   

इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आदिवासियों के मुद्दे राजनैतिक हैं जिसका स्थायी समाधान भी राजनैतिक तरीके से ही होगा। यदि उन्हें जनांदोलन भी करना है तो उसमें राजनीतिक दृष्टिकोण स्पष्ट होना चाहिए क्योंकि विगत पांच दशक का इतिहास बताता है कि आदिवासी लोग राजनीतिक समस्याओं का समाधान सामाजिक तरीके से कर रहे हैं इसलिए वे घुमफिरकर उसी मोड़ पर वापस आ जाते हैं, जहां उनकी जान भी ले ली जाती है और जमीन भी। आदिवासियों की स्थिति आज इसलिए ऐसी है क्योंकि वे आंदोलन करते हुए नारा तो देते हैं कि ‘जान देंगे, जमीन नहीं’ लेकिन वे वोट उन्हीं पार्टियों को देते हैं जो उनका जान भी लेता है और जमीन भी। झारखंड सरकार द्वारा सीएनटी/एसपीटी कानूनों को संशोधन करने के खिलाफ झारखंड के चारों ओर जनाक्रोश दिखाई पड़ रहा है। लोग जमीन लूट के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं और भाजपा नेताओं का बहिष्कार भी कर रहे हैं। लेकिन आगामी चुनाव में वे किस पार्टी को वोट देंगे? क्या यह एकजुटता चुनाव के समय बिखर नहीं जायेगी? यद्यपि झारखंड मुक्ति मोर्चा, झारखंड विकास मोर्चा एवं झारखंड पार्टी आदिवासियों के उम्मीदों पर खरा नहीं उतरी लेकिन हमारे पास क्या विकल्प हैं? वामपंथी पार्टियों की हालत क्या हैं? और राष्ट्रीय पार्टियों से झारखंड का कभी भला नहीं हो सकता है। इसलिए आदिवासियों को आज से ही राजनीतिक विकल्प तैयार करना होगा वरना न वो बचेंगे और न ही उनकी जमीन।   

- लेखक एक एक्टिविस्ट, लेखक और शोधकर्ता हैं। 

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