- ग्लैडसन डुंगडुंग -
आदिवासी एवं अन्य वनाश्रित समुदायों के लिए वन अधिकार कानून 2006 एक ऐतिहासिक कानून है, जिसके लागू होने से इनके जीवन में एक नई उम्मीद जगी थी। भारत सरकार ने पहली बार दुनियां के सामने स्वीकार किया था कि इन समुदायों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है, जिसे न्याय में बदलने के लिए उनके पारंपरिक वन अधिकारों को कानूनी मान्यता दी जायेगी। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि भारतीय संसद द्वारा वन अधिकार कानून को पास किये हुए एक दशक पूरा हो जाने के बाद ऐसा महसूस होने लगा है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारें जान-बूझकर इस कानून को लागू नहीं करना चाहते हैं, जिसका मूल कारण सरकार पर खनन कंपनियों, खनन माफिया, जंगल माफिया, ठेकेदार और वन विभाग का दबाव है। वनाधिकार की जमीनी हकीकत बेहद निराशा जनक है। इसमें बड़े मसले हैं दावेदारों के दावों को खारिज करना, ग्रामसभाओं के निर्णयों के खिलाफ वनभूमि का रकबा घटाना, सामुदायिक अधिकारों को सिरे से नाकारना, विकास के नाम पर जंगलों को उजाड़ना एवं दावेदारों के खिलाफ फर्जी मुकदमा तथा कम्पा के नाम पर दावेदारों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई।
भारत सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा जारी एफआरए स्टेटस रिपोर्ट के अनुसार 31 अगस्त 2016 तक देशभर में 42,09,403 दावेदारों ने दावा-प्रपत्र जमा किया, जिसमें 40,07,352 व्यक्तिगत एवं 1,12,051 सामुदायिक दावा शामिल है। इन दावों में से 36,59,223 दावों का निष्पादन किया गया है एवं 5,50,180 दावा लंबित है। निष्पादित दावों में से 16,98,310 दावेदारों को पट्टा निर्गत किया गया, जिसमें 16,50,867 व्यक्तिगत एवं 47,443 सामुदायिक पट्टा शामिल है जबकि 19,60,913 दावों को निरस्त कर दिया गया है, जो निष्पादित दावों का कुल 53.5 प्रतिशत है। इस तरह से आधा से अधिक दावों का खारिज हो जाना अपने आप में आदिवासी एवं अन्य वनाश्रित समुदायों के अधिकारों को सुनिश्चित करने का दावा करने वाले केन्द्र एवं राज्य सरकार की असली मंशुबा को उजागर करता है।
यदि खारिज किये गये दावों को राज्य स्तर पर देखें तो प्रतिशत के हिसाब से कर्नाटक पहले पायदान पर है, जहां 95.7 प्रतिशत दावों को खारिज किया गया है। राज्य में 1,97,246 निष्पादित दावों में से 1,88,943 दावों को खारिज कर दिया गया है। लेकिन यदि इसे संख्या के आधार पर देखें तो छत्तीसगढ़ इसमें सबसे आगे हैं, जहां 8,55,696 निष्पादित दावों में 5,07,907 दावों को खारिज कर दिया गया है। इसी तरह 6,08,930 निष्पादित दावों में से 3,74,732 खारिज दावों के साथ मध्यप्रदेश दूसरे स्थापन पर है और 3,40,980 निष्पादित दावों में से 2,30,732 खारिज दावों के साथ महाराष्ट्र तीसरे पायदान पर। इसमें एक गंभीर पहलू यह है कि वनाधिकारों का दावा उन्हीं राज्यों में सबसे ज्यादा खारिज किया गया है, जहां सबसे ज्यादा खनन कार्य चल रहा है या भविष्य में खनन की ज्यादा संभावनाएं हैं। क्या खनिज सम्पदा को कब्जा करने के लिए आदिवासी एवं अन्य वनाश्रित लोगों के अधिकारों को नाकारा जा सकता है?
इसमें दूसरा बड़ा मसला है वनभूमि का रकबा कम करना, जिसको एक केस से समझने का प्रयास करते हैं। एक खेरवार आदिवासी जतन सिंह अपनी पत्नी कोमली और दो बेटे दीपक एवं संदीप के साथ झारखंड के लातेहार जिलान्तर्गत नक्सल प्रभावित प्रखंड गारू में स्थित हुरदाग गांव में रहते हैं जहां उनके पास 50 डिसमिल पुश्तैनी जमीन और 3.16 डिसमिल वनभूमि है। यह परिवार अपनी आजीविका खेती, वनोपज और दिहाड़ी मजदूरी से चलाता है। वन अधिकार कानून के तहत ग्रामसभा ने जतन सिंह के नामपर 3.16 डिसमिल वनभूमि का पट्टा निर्गत करने हेतु अनुमंडल स्तरीय वनाधिकार समिति, लातेहार को सिफारिश भेज दिया था लेकिन पट्टा जारी करने वाला जिला स्तरीय वनाधिकार समिति, लातेहार ने जतन सिंह के नाम पर मात्र एक डिसमिल वनभूमि का पट्टा निर्गत किया है। ग्रामसभा के निर्णय को गैर-कानूनी तरीके से कौन बदला यह जतन सिंह को नहीं बताया गया। यहां मौलिक प्रश्न यह है कि अब जतन सिंह अपने परिवार का आजीविका कैसे चलायेगा? यह सिर्फ जतन सिंह का सवाल नहीं है बल्कि बहुसंख्य दावेदारों के साथ ऐसा ही किया गया है।
कानूनी रूप से देखें तो वन अधिकार कानून के तहत दावेदारों के अधिकारों को मान्यता देने की शक्ति ग्रामसभा को दी गई है इसलिए ग्रामसभा ही वनभूमि का रकबा घटाने या दावा को निरस्त करने का अधिकारिक संस्था है, जिसके सिफारिश के आधार पर अनुमंडल एवं जिला स्तरीय वनाधिकार समितियां अंतिम निर्णय ले सकते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि ग्रामसभाओं में पारित करने के बाद जब इन दावा-अभिलेखों को अनुमंडल स्तरीय समितियों में जमा करने के लिए अंचल कार्यालयों को सुपूर्द कर दिया जाता है तब चालाकी करते हुए वन विभाग के अधिकारी, राजस्व कर्मचारी एवं अंचल अधिकारी मिलकर अधिकांश दावा-अभिलेखों को अंचल कार्यालयों में ही खारिज कर देते हैं और रिकार्ड में ग्रामसभा द्वारा खारिज दर्शाया जाता है। इस तरह से ग्रामसभाओं द्वारा पारित दावा-अभिलेख अनुमंडल एवं जिला स्तरीय वनाधिकार समितियों तक हुबहु पहुंचते ही नहीं हैं। इस षड्यंत्र में वन विभाग के पदाधिकारी, राजस्व कर्मचारी, अंचल अधिकारी के साथ-साथ अनुमंडल पदाधिकारी एवं उपायुक्त भी शामिल हैं।
इसी तरह के धांधली के विरोध में विगत 10 नवंबर 2016 को झारखंड के 197 दावेदारों ने राज्यपाल को वनभूमि का पट्टा वापस कर दिया क्योंकि उन्हें व्यक्तिगत अधिकार के तहत 8 से 10 एकड़ वनभूमि के जगह पर मात्र 2 से 25 डिसमिल वनभूमि का ही पट्टा दिया गया था। उनका कहना था कि एक परिवार जंगल के अंदर इतनी कम जमीन पर कैसे अपनी आजीविका चला सकता है क्योंकि अधिकांश वनभूमि को वृक्षारोपन के नाम पर वन विभाग ने घेरना शुरू कर दिया है। यह निश्चित रूप से हास्यास्पद है क्योंकि वनभूमि का पट्टा आजीविका चलाने के लिए दिया जा रहा है तो सवाल यह है कि जंगल में कृषि एवं वनोपज पर आश्रित एक परिवार मात्र 25 डिसमिल जमीन में अपनी आजीविका कैसे चला सकता है? सरकार का यह रवैया इन लोगों के साथ मजाक नहीं है?
तीसरा मामला सामुदायिक अधिकार का है। भारत सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा जारी एफआरए स्टेटस रिपोर्ट के अनुसार 31 अगस्त 2016 तक देशभर में 1,12,051 सामुदायिक दावा पेश किया गया था, जिनमें से 47,443 सामुदायिक पट्टा शामिल है जबकि 64,608 दावों को खारिज कर दिया गया है, जो कुल दावा का 57.6 प्रतिशत है। छतीसगढ़, बिहार, केरल, राजस्थान एवं तमिलनाडु में सामुदायिक अधिकार के तहत एक भी पट्टा जारी नहीं किया गया है। असल में जंगलों पर सामुदायिक अधिकार नहीं देने का मूल कारण खनिज सम्पदा है क्योंकि अधिकांश खनिज जैसे लौह-अयस्क, बाक्साईट, कोयला इत्यादि जंगल या पहाड़ों में मौजूद है। सामुदायिक अधिकार को लेकर एक दिलचस्प मामला छत्तीसगढ़ से उभर कर सामने आया है। छतीसगढ़ के सूरजपुर जिले के परसाकेते गांव एवं सरगुजा जिले के घाटबर्रा गांव को निर्गत सामुदायिक पट्टा को रद्द कर राजस्थान विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड एवं अदानी मिनरल्स प्रा.लि. को कोयला खनन हेतु वनभूमि दे दिया गया। इसी तरह का मामला सारंडा जंगल का है जहां देश का 25 प्रतिशत लौह-अयस्क है जहां खनन कंपनियां 14,410.09 हेक्टेअर जंगल में खनन कार्य कर रही हैं। यहां 416 आदिवासियों को 315.74 एकड़ वनभूमि का व्यक्तिगत पट्टा निर्गत किया गया है तथा 415 दावों को दखल कब्जा नहीं होने का कारण बताकर खारिज कर दिया गया है। जबकि वहीं 22 नये खनन परियोजनाओं को 9,337.54 हेक्टेअर वनभूमि लीज पर दे दिया गया है। देश में इस तरह के उदाहरण भरे पड़े हैं, जहां आदिवासियों के अधिकारों को नाकारते हुए खनन कंपनियों को जंगलों को सौंपा जा रहा है।
चौथा मसला विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर जंगलों को उजाड़ने को लेकर है। एक तरफ सरकार जंगल उजड़ जाने का बहाना बनाकर आदिवासी एवं अन्य परंपरागत वन निवासियों को वनाधिकार नहीं दे रही है लेकिन वहीं विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर जंगलों को बड़े पैमाने पर उजाड़ा जा रहा है। वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने पिछले सिर्फ दो वर्षों (अप्रैल 2014 से मार्च 2016 तक) में 2000 परियोजनाओं को वन एवं पर्यावरण मंजूरी (स्टेज -2) देते हुए 34,620 हेक्टेअर वनभूमि का हस्तांतरण कर दिया। इसके अलावा वन एवं पर्यावरण की स्टेज-2 की मंजूरी के लिए लाईन में खड़े 1,557 परियोजनाओं को अंतिम मंजूरी मिलते ही कुछ ही दिनों में 40,476 हेक्टेअर वनभूमि विकास परियोजनाओं के हवाले कर दिया जायेगा। ये परियोजनाएं आदिवासी एवं अन्य वनाश्रित समुदायों को वनाधिकार देने के मामलों का निपटारा नहीं होने के कारण रूका हुआ है।
वन एवं पर्यावरण स्वीकृति प्राप्त परियोजनाओं में 22 तरह के परियोजना शामिल हैं। इसमें से एक तिहाई यानी 10,309 हेक्टेअर वनभूमि खनन परियोजनाओं को दिया गया है, जिसमें कोयला, लौह-अयस्क, बाक्साईट एवं अन्य छोटे खनन शामिल हैं। इसके अलावे सड़क निर्माण के लिए 5,671 हेक्टेअर वनभूमि, सिंचाई परियोजनाओं के लिए 4,585 हेक्टेअर एवं ट्रांसमिशन लाईन के लिए 4,158 हेक्टर वनभूमि का हस्तांतरण किया गया है। वनभूमि हस्तांतरण करने में मध्यप्रदेश सबसे उपर है जहां 88 परियोजनाओं के लिए 4,808 हेक्टेअर वनभूमि का हस्तांतरण किया गया है। ओडिसा दूसरे स्थान पर है, जहां 37 परियोजनाओं के लिए 4,618 हेक्टेअर वनभूमि का हस्तांतरण किया गया। केन्द्र एवं राज्य सरकारों को आदिवासी एवं अन्य वनाश्रित समुदायों के अधिकारों की चिंता तो बिल्कुल भी नहीं है लेकिन उन्हें देश के पर्यावरण असंतुलन की भी चिंता नहीं है। उनके विकास का अर्थ है जंगलों को पूंजीपतियों को सौंपकर पैसा कमाना। क्या हमें सरकारों के इस रवैये पर सवाल खड़ा नहीं करनी चाहिए?
पांचवां बड़ा मुद्दा है आदिवासी एवं अन्य वनाश्रित समुदायों के खिलाफ फर्जी मुकदमा कर उन्हें जेल भेजना तथा कम्पा के नामपर उनके खिलाफ हिंसक कार्रवाई। झारखंड राज्य के लातेहार जिलान्तर्गत मानिका प्रखंड में ही इसके कई उदाहरण हैं। मानिका प्रखंड के चार गांव - जगतु, जेरूआ, कोपे और लंका के आदिवासी और अन्य वनाश्रित समुदाय के लोगों पर अधिकार मांगने के कारण वन विभाग और जिला प्रशासन का अत्याचार सहना पड़ रहा है। इन गांवों में खेरवार आदिवासियों की बहुलता है, जिनकी आजीविका खेती, जंगल और मजदूरी पर आधारित है। उनके पास कुछ रैयती जमीन है, कुछ वनभूमि पर खेती करते हैं और जंगल से वनोपज इकट्ठा कर अपनी आजीविका चलाते है। वहीं वन विभाग और जंगल माफिया की मिलीभगत से जंगल नष्ट हो रहा है लेकिन वन विभाग ने इसका आरोप यहां के आदिवासी और वनाश्रित समुदायों पर मढ़ दिया है। फलस्वरूप इनके उपर अत्याचार जारी रखा है। वर्ष 2007 से 2013 तक चार गावों के 102 लोगों के खिलाफ 30 मामले दर्ज किये गये हैं। इनके उपर 172 एकड़ वनभूमि पर अतिक्रमण कर जोत-कोड़ करने और लकड़ी काटने का आरोप लगाया गया है। इनमें से 13 लोगों को जेल भेज दिया गया था, जिन्हें 45 दिनों तक जेल में रहने के बाद निचली अदालत से बेल मिला है। अब उन्हे प्रत्येक तारीख को कोर्ट का चक्कर लगाना पड़ रहा है। यह आँकड़ा पूरे देश में लाखों में है।
इसी तरह संसद में कम्पा कानून 2016 परित होने के बाद से ही आदिवासी एवं अन्य वनाश्रित समुदाय के लोगों पर वन विभाग का जुल्म एवं अत्याचार शुरू हो चुका है। एक बार फिर से वन विभाग ने इन लोगों को जंगलों से खदेड़ना शुरू किया है। झारखंड के सिमडेगा जिले में धान का फसल बर्बाद किया गया एवं बोकारों के चंदनक्यारी में घरों को तोड़ा गया। इसी तरह तेलंगना में आदिवासियों के द्वारा लगाया गया मकई के फसल को बुलडोजर से रौंद दिया गया और कर्नाटक में 3000 आदिवासियों के घरों को बुलडोजरों से ध्वस्त कर दिया गया। एक तरफ जहां देश का प्रधानमंत्री लोगों को मुफ्त में मकान देने की बात कर रहे हैं वहीं देश के असली निवासियों के घरों को सरकार के द्वारा उजाड़ा जा रहा है। क्या यह
वन अधिकार कानून को लेकर साकारात्मक बात सिर्फ यह है कि आदिवासी और अन्य पारंपरिक वन निवासियों को आजादी के छः दशक बाद कम से कम वनभूमि, सामुदायिक जमीन और सामुदयिक वन संसाधन पर व्यक्तिगत एवं सामुदायिक पट्टा दिया जा रहा है, जो उनके वनभूमि और जंगल में दावेदारी को मन्यता देगा, जिसके बदौलत वे आगे की लड़ाई लड़ सकते हैं। लेकिन खतरा यह है कि वन अधिकार देने के नाम पर उनके अधिकारों को एक सीमित दायरा में बांध दिया जा रहा है तथा केन्द्र एवं राज्य सरकारें चलाकी के साथ 90 से 95 प्रतिशत वनभूमि एवं जंगलों को पुनः वन विभाग को सौंप दे रहे हैं। हकीकत यह है कि कोई भी दावेदार दिये गये वनाधिकार से खुश नहीं है इसलिए इसका पुनः आंकलन किया जाना चाहिए तथा खारिज किये गये दावों पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
लेकिन हकीकत यह है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारें आदिवासी और अन्य वनाश्रित समुदायों को वनाधिकार देना ही नहीं चाहते हैं क्योंकि जिन इलाकों में ये लोग रहते हैं वह खनिज सम्पदाओं से भरा पड़ा है, जिसे सरकारें औद्योगिक गलियारा के तब्दील करना चाहते हैं। इसके बारे में कई राज्यों के औद्योगिक नीतियों में स्पष्टरूप से कहा गया है कि राज्य सरकारें उन इलाकों को पूंजीनिवेशकों के लिए स्वर्ग बनायेंगे। इसलिए यह पहले से तय हो चुका है कि किन-किन इलाकों में और कितना वनभूमि पर दावेदारों को वनभूमि का पट्टा देना है और उसी आधार पर जिला एवं अनुमंडल स्तरीय वनाधिकार समितियों को दिशा-निर्देश दिया गया है। ऐसी स्थिति में आदिवासी और अन्य वनाश्रित समुदायों के लिए वनाधिकार का सपना पूरा नहीं हो सकता है। यह इन समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को बरकरार रखने और सरकार के वादा खिलाफी का एक पुख्ता सबूत है। सवाल यह है कि इन समुदायों के साथ कब तक अन्याय, अत्याचार और शोषण होता रहेगा? कौन इसके लिए जवाबदेह है? क्या ये लोग इस देश के नागरिक नहीं है?
- ग्लैडसन डुंगडुंग एक एक्टिविस्ट, लेखक और शोधकर्ता हैं। उन्होंने ‘आदिवासी और वनाधिकार’ नामक पुस्तक भी लिखा है, जो झारखंड में वनाधिकार की जमीनी हकीकत को उधेड़ती है।
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