शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

झारखंडी राजनीति का पुनरूथान?

- ग्लैडसन डुंगडुंग -

13 अप्रैल 2017 को सुबह जैसे ही लिट्टीपाड़ा विधानसभा उप-चुनाव की मतगणना शुरू हुई, पत्रकारों का एक वाट्सप ग्रुप में संदेश भेजने का काम भी शुरू हो गया। लेकिन जैसे ही चैथे राउंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार साईमन मरांडी 4100 वोटों से आगे निकले, इस ग्रुप में मतगणना से संबंधित संदेश आना बंद हो गया। शांम को चुनाव परिणाम आया, जिसमें साईमन मरांडी 12,900 वोट से विजयी घोषित किये गये। इसके बाद वाट्सप पर एक अंतिम संदेश आया, जिसमें लिखा था ‘‘रघुवर हटाओ, भाजपा बचाओ’’। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि लिट्टीपाड़ा उपचुनाव जीतना भाजपा के लिए कितना जरूरी था। अब यह बहुत स्पष्ट हो गया है कि सीएनटी/एसपीटी के मसले पर रघुवर दास की हठधर्मिता से झारखंड में भाजपा के लिए उल्टी हवा बहना शुरू हो गई है और झारखंडी राजनीति का पुनरूथान भी। निश्चित तौर पर यह उप-चुनाव जीतना भाजपा के लिये जितना जरूरी था उतना ही जरूरी झारखंड मुक्ति मोर्चा और झारखंडियों के लिए भी था। यदि इस उप-चुनाव में भाजपा जीत जाती तो सरकार और भाजपा नेता यह प्रचार करते कि सीएनटी/एसपीटी कानूनों में किये गये संशोधन से आदिवासी लोग खुश है लेकिन विपक्षी पार्टियां एवं जनसंगठन सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं। इसके साथ ही रघुवर दास सरकार और बेलागाम हो जाती। अब यहां से झारखंडी राजनीति की एक नयी शुरूआत होगी, जिसके केन्द्र में झारखंड की माटी और आदिवासी होंगे।  

लिट्टीपाड़ा विधानसभा उप-चुनाव जीतना भाजपा के लिए बहुत बड़ी परीक्षा थी जिसके लिए भाजपा ने अपना सबकुछ झोंक दिया था। चुनाव से ठीक तीन दिन पहले अधूरा पूल का उद्घाटन करने के बहाने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें मोदी ने संताल आदिवासियों को भाजपा की ओर आकार्षित करने के लिए अपने भाषण की शुरूआत हिन्दी में लिखा हुआ ‘संताली भाषा’ से किया, चुनाव आचार संहिता के खिलाफ आदिवासी महिलाओं के बीच मोबाईल बांटा, ड्यूटी पर तैनात किये गये जवानों के बीच अस्तित्वविहीन ‘पहाड़िया बटालियन’ का नियुक्त पत्र बंटा तथा क्षेत्र के विकास की बड़ी-बड़ी बातें की और साथ में रघुवर दास की तारीफ भी। इसके अलावा मुख्यमंत्री रघुवर दास के साथ उनके पांच कैबिनेट मंत्री और भाजपा का पूरा कूनबा विधानसभा क्षेत्र में कैम्प किये हुए था। भाजपा ने स्व0 अनिल मुर्मू की पत्नी और बेटी को भी पार्टी में शामिल करते हुए उनके घर में पार्टी का झंडा लहरा दिया था, चुनाव के लिए सरकारीतंत्र का उपयोग किया तथा जनता के पैसे पर भाजपा को चुनाव जीताने के लिए अभियान चलाया। लेकिन यह सब कोई काम का नहीं रहा। 

यहां मौलिक प्रश्न यह है कि आखिर भाजपा से कहां चुक हुई है? भाजपा क्यों यह उप-चुनाव हार गया? क्या भाजपा ने संताल वोटरों को समझने में भूल की? भाजपा नेताओं की सबसे बड़ी भूल यह है कि वे न आदिवासी समाज को समझते हैं और न हीं उनके इतिहास और जीवन-दर्शन को। इन्हें लगता है कि आदिवासियों को धर्म (सरना-ईसाई) के नाम पर आपस में लड़ा दो, भौंकता हुआ कुत्ता के सामने हड्डी फेंकने जैसे ही इन्हें छोटा-मोटा कुछ दे दो या एक आदिवासी समुदाय को दूसरे के खिलाफ खड़ा करके वोट बटोर लो। भाजपा ने लिट्टीपाड़ा में संताल होड़ बनाम संताल ईसाई तथा पहाड़िया बनाम संताल का कार्ड खेलने की कोशिश की। लेकिन भाजपा नेताओं को यह समझ में नहीं आया कि आदिवासियों के लिए जमीन सर्वोंपरि है। उन्होंने संतालों को पहले ही गंभीर चोट दिया था जिसपर मलहम-पट्टी करने के बजाये वे भावनाओं से खेलकर वोट बटोरने की कोशिश में जुट गये।

यदि आप संतालों से उनकी जमीन, पहचान, संस्कृति, परंपरा और विरासत छीनने की कोशिश करते हुए उनके अस्तित्व पर हमला करेंगे तो क्या वे आपको वोट देंगे? 1855 का संताल हुल झारखंड के इतिहास में सबसे बड़ा क्रांति था, जिसमें 20,000 संताल मारे गये थे एवं सिदो-कान्हू को अंग्रेजो ने फांसी पर लटका दिया था। इसलिए संताल लोग सिदो-कान्हू को भगवान की तरह मानते हैं। तीर-धनुष उनका पारंपरिक हथियार है, जिसके बदौलत उनके पूर्वज अंग्रेजों से मुकबला किये और उन्हें अपनी जमीन, स्वायत्तता, परंपरा और संस्कृति को बचाने के लिए कानून बनाने के लिए मजबूर कर दिया था। इस क्रांति के मूल में जमीन था। लेकिन भाजपा नेताओं ने संतालों से सबकुछ लूट लेना चाहा। संताल परगना काश्तकारी (अनुपूरक अनुबंध) अधिनियम 1949 का संशोधन बिना उनकी सहमति से किया। सिदो-कान्हो की मूर्ति तोड़ी गई, जिसके खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई तथा प्रधानमंत्री मोदी, राज्यपाल मुर्मू एवं मुख्यमंत्री दास ग्रुप फोटो खिचवाने के चक्र में सिदो-कान्हू की प्रतिमा स्थल पर जूता-चप्पल पहनकर चढ़ा गये, जिससे संताल लोग बहुत नाराज हुए। इससे उनके बीच सीधा संदेश गया कि भाजपा नेताओं के लिए आदिवासी शहीदों की कोई कद्र नहीं है। इसके अलावा सीएनटी/एसपीटी आंदोलन के समय दुमका के कॉलेज हॉस्टल से जिला प्रशासन के द्वारा तीर-धनुष को कब्जा कर इसे प्रतिबंधित किया गया और अपनी जमीन बचाने के लिए आंदोलन कर रहे संतालों को फर्जी मामलों में फंसा कर पुलिस के द्वार प्रताड़ित किया गया। क्या संताल लोग इतना अन्याय स्वीकार कर सकते थे? उन्होंने इसी अन्याय का जवाब भाजपा को उप-चुनाव में दिया। 

भाजपा की दूसरी बड़ी भूल थी संतालपरगना और संताल आदिवासियों की स्थिति के लिए जेएमएम नेता गुरूजी शिबू सोरेन एवं हेमंत सोरेन को जिम्मेवार बताकर शोरगुल मचाना। भाजपा नेताओं को लगा कि जिस तरह से झूठ के बुनियाद पर कांग्रेस को देशभर में बदनाम कर एक भ्रष्ट पार्टी के रूप में स्थापित करने में उन्हें कामयाबी मिली और इसके लिए उन्होंने एक ही जुमला का इस्तेमाल बार-बार किया कि पिछले 70 सालों में देश में विकास का कोई काम नहीं हुआ क्योंकि कांग्रेस के नेता सिर्फ देश को लूटने में लगे रहे, ठीक वैसे ही भाजपा नेताओं ने झारखंड मुक्ति मोर्चा और उनके नेताओं के बारे में भी जुमलेबाजी शुरू किया। लेकिन उन्हें यह मालूम होना चाहिए था कि संताल लोग संतालपरगना के विकास की स्थिति एवं संतालों की दयनीय स्थिति के लिए गुरूजी को दोषी नहीं मानते हैं बल्कि वे उनके लिए आज भी भगवान हैं। इसलिए भाजपा नेताओं के द्वारा गुरूजी के ऊपर आरोप लगाना उनके लिए ही भारी पड़ गया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि यदि नरेन्द्र मोदी और शिबू सोरेन को एक साथ खड़ा किया जाये तो संताल लोग मोदी के बजाये गुरूजी के साथ जायेंगे।  

भाजपा की तीसरी बड़ी भूल थी जनता को गुरूजी और हेमंत सोरेन के बीच मतभेद दिखाना। भाजपा ने जिस तरह से उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के बीच मतभेद को वोटरों के बीच भुनाया था ठीक उसी को दोहराने के लिए झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने लिट्टीपाड़ा के वोटरों के बीच यह बात फैलाने की कोशिश की कि गुरूजी और हेमंत सोरेन के बीच साईमन मरांडी को टिकट देने को लेकर मतभेद है इसलिए गुरूजी चुनाव प्रचार के लिए नहीं निकल रहे हैं। जब यह बात फैली तो रघुवर दास को मुंह से जवाब देने के बजाये हेमंत सोरेन स्वयं गुरूजी को लेकर मैदान में उतर गये और रघुवर दास का मुंह चुप करा दिया। अब भाजपा नेताओं के बीच गुरूजी के काट के लिए कुछ भी नहीं बचा था। मोदी भी उनके काम नहीं आये। गुरूजी का चुनाव अभियान में शामिल होना भाजपा के लिए बड़ी मुसीबत बन गया।  

भाजपा की चैथी बड़ी भूल थी वोटरों को भविष्य का सब्जबाग दिखाना। मुख्यमंत्री रघुवर दास ने बार-बार कहा कि आने वाले तीन साल में वे संताल परगना को विकसित कर देंगे। लेकिन पिछले दो सालों में उन्होंने क्या किया यह बताने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं था। वोटरों को रघुवर दास के वादा पर विश्वास नहीं करने का बहुत कारण मौजूद है। पिछले विधानसभा चुनाव के समय नरेन्द्र मोदी ने दुमका में कहा था कि उनके रहते कोई माई का लाल आदिवासियों की जमीन नहीं छीन सकता है। लेकिन राज्य में भाजपा की सरकार बनने के बाद स्थानीय नीति बनायी गई और सीएनटी/एसपीटी कानूनों में संशोधन किया गया। इतना ही नहीं रघुवर दास ने अगस्त 2016 तक 3.5 लाख लोगों को वनाधिकार कानून 2006 के तहत वनपट्टा देने का वादा किया था लेकिन 50 हजार लोगों को भी नहीं दे सके। उन्होंने 31 मार्च, 2017 तक झारखंड को कैशलेश बनाने का वादा किया था लेकिन अबतक एक भी पंचायत कैशलेश नहीं हो पाया। इसी तरह उन्होंने झारखंड को स्वीटजरलैंड बनाने की बात कही थी लेकिन वन विभाग के अधिकारी सागवान लगाने के लिए प्राकृतिक जंगलों को जलकर नष्ट कर रहे हैं और रघुवर दास खामोश हैं। आजतक उन्होंने एक भी ऐसा काम नहीं किया है, जिसपर जनता विश्वास कर सकती है। इसलिए उनके वादों को वोटर सिर्फ जुमला समझ बैठे।  

भाजपा की पांचवीं सबसे बड़ी भूल थी तानाशाही रवैया अपनाना। रघुवर दास ने शुरू से ही ऐसा दिखाया कि राज्य और आदिवासियों के विकास का ठेका सिर्फ भाजपा ने ले रखा है। सिर्फ वे ही जानते हैं कि आदिवासियों के लिए सही और गलत क्या है। सड़क से लेकर सदन तक भारी विरोध के बावजूद सीएनटी/एसपीटी कानूनों में संशोधन करने के बाद रांची में ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट का आयोजन किया तथा राज्यभर के गैर-मजरूआ जमीन को भी भूमि बैंक में डाल दिया। इससे आदिवासियों के बीच यह स्पष्ट संदेश गया कि रघुवर दास आदिवासी एवं राज्य के विकास के नाम पर यहां के प्राकृतिक संसाधनों - जमीन, जंगल, पहाड़ जलस्रोत और खनिज को पूंजीपतियों को सौंपना चाहते हैं। इस दौरान उनकी सरकार ने कोई भी ऐसा काम नहीं किया, जिससे जनता को लगे कि सरकार उनके विकास लिए प्रतिबद्ध है। बल्कि सरकार ने सीएनटी/एसपीटी कानूनों का संशोधन का विरोध करने वालों के लिए बंदुक और कानून का धौंस दिखाना शुरू कर दिया। फलस्वरूप, रघुवर दास का सारा कार्य उनको एक तानाशाह के रूप में स्थापित किया। 

लेकिन ठीक उसके विपरीत, झारखंड मुक्ति मोर्चा ने हेमंत सोरेन के नेतृत्व में स्थानीय नीति से विरोध शुरू किया जो सीएनटी/एसपीटी के मसले पर उनको जुझारू नेता बना दिया। उन्होंने सीएनटी/एसपीटी के मसले पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों को भी अपने साथ लिया। वे इस संघर्ष को गांव-गांव से लेकर विधानसभा, राजभवन और राष्ट्रपति भवन तक पहुंचा दिया। फलस्वरूप, राष्ट्रपति ने सीएनटी/एसपीटी संशोधन आर्डिनेंश को वापस लौटा दिया। इसके बाद जब झारखंड सरकार ने विधानसभा में सीएनटी/एसपीटी संशोधन विधेयकों को पेश किया तो झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायकों ने सदन के अंदर और बाहर भारी विरोध किया। इसके बाद उन्होंने इस संघर्ष को फिर से दिल्ली तक पहुंचा दिया। इतना ही नहीं जेएमएम विधायक अनिल मुर्मू जब जिन्दा थे तब उन्होंने लिट्टीपाड़ा इलाके में सीएनटी/एसपीटी मसले पर जनता के बीच आक्रोश पैदा किया था। उन्होंने स्पष्ट संदेश दिया था कि यदि इन कानूनों में संशोधन किया गया तो सड़कों पर खून की नदी बहेगी। इसीलिए अनिल मुर्मू की एक पत्नी का भाजपा में शामिल होने के बाद भी पार्टी को कोई फायदा नहीं मिला क्योंकि मुर्मू जनता के बीच यह स्थापित कर चुके थे कि भाजपा आदिवासियों का दुश्मन है।    

लिट्टीपाड़ा चुनाव परिणाम का सरकार के सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा लेकिन निश्चित तौर पर इसके दुर्गामी परिणाम होंगे। इस उप-चुनाव ने हेमंत सोरेन और झारखंड मुक्ति मोर्चा के लिए संजीवनी प्रदान किया है। ऐसा प्रश्न उठने लगा था कि गुरूजी के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा का क्या होगा? क्या यह पार्टी भी कांग्रेस की राह पर जायेगा? हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री और जेएमएम के केन्द्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बनाने के बाद कई वरिष्ठ नेताओं के अंदर असंतोष फैल गया था। साईमन मरांडी ने इसी कारण पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थामा था। लेकिन इस जीत के बाद हेमंत सोरेन का कद और बढ़ेगा और वे पार्टी में सर्वमन्य नेता हो जायेंगे। यह इसलिए भी क्योंकि पार्टी ने उनके नेतृत्व में सीएनटी/एसपीटी और स्थानीय नीति के खिलाफ संघर्ष का बिंगुल फूका है और यह जीत उसी का नतीजा है। अब झारखंड में जेएमएम के इर्द-गिर्द एक महागठबंधन बनेगा, जिसमें कांग्रेस, राजद, जेडीयू जैसे पार्टियां होंगी। और यदि महागठबंधन नहीं भी बनता है तो जेएमएम और कांग्रेस के बीच गठबंधन होगा। अगले चुनाव में सीएनटी/एसपीटी कानूनों में संशोधन के खिलाफ चल रहे जनांदोलनों का समर्थन भी इसी गठबंधन को मिलेगा। 

इस राजनीतिक समीकरण में आजसू, जेडीपी और जेवीएम के लिए एक तरफ कुआं और दूसरे तरफ खाई वाली बात होगी। अब आजसू को अपना वजूद बचाना है तो हर हाल में एनडीए गठबंधन छोड़ना होगा या अपना वजूद गवांने के लिए तैयार रहना होगा। सालखन मुर्मू वाली जेडीपी के लिए अपने बलबूते पर शायद एक सीट भी जीतना मुश्किल होगा। फलस्वरूप, उसपर झारखंडी वोट काटवा पार्टी होने का कलंक लेगा। जेवीएम पर भी बहुत बड़ा सवाल खड़ा हो गया है कि जो पार्टी अपने आठ विधायकों को एक साथ नहीं रख सकता है वह झारखंड का भविष्य कैसे तय करेगा? ऐसा दिखाई पड़ता है कि आजसू, जेवीएम और जेडीपी के गतिविधियों से भाजपा को ही फायदा पहुंच रहा है। इसलिए इन पार्टियों को भाजपा का हमसफर बन जाना चाहिए वरना इनकी वजूद नहीं बचेगा। 

लिट्टीपाड़ा विधानसभा उप-चुनाव में आदिवासियों ने झारखंड मुक्ति मोर्चा को जीताकर यह स्पष्ट संकेत दिया है कि जमीन उनके लिए सम्पति नहीं है बल्कि यह उनकी पहचान, संस्कृति, परंपरा, विरासत और अस्तित्व है। इसलिए जो भी उनके अस्तित्व को मिटाने की कोशिश करेगा वे उसे मिटा देंगे। आदिवासी लोग जमीन को अपनी जान से भी ज्यादा महत्व देते हैं इसलिए उनका नारा ही है ‘‘जान देंगे, जमीन नहीं देंगे’’। यह कोई मामूली नारा नहीं है। जबकि गैर-आदिवासी लोग जमीन को मात्र सम्पति समझते हैं इसलिए अपनी जान बचाने के लिए जमीन बेचकर भाग जाते हैं । 

झारखंड में पिछले चार-पांच दशकों तक भारी जनांदोलन के बावजूद आदिवासी लोग अपनी जमीन और जान दोनों इसलिए गवां रहे थे क्योंकि उन्होंने अबतक इसे राजनीति से अलग रखा था। लेकिन लिट्टीपाड़ा उप-चुनाव में यह नया बदलाव देखने को मिला है जो आदिवासियों को सकारात्मक राजनीतिक दिशा दे सकता है। इस चुनाव में उन्होंने स्पष्ट संदेश दे दिया है कि वे जान देंगे, लेकिन जमीन नहीं देंगे और अपना बहुमूल्य वोट उसी पार्टी को देंगे जो उनकी जमीन बचाने के लिए संघर्ष करेगा। इसलिए अब झारखंड सरकार को सीएनटी/एसपीटी संशोधन विधेयक वापस ले लेना चाहिए उसी में उनकी भलाई है क्योंकि इस चुनाव परिणाम के बाद सीएनटी/एसपीटी संशोधन के खिलाफ जनांदोलन और तीखा होगा, जिसका फायदा 2019 के विधानसभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस गठबंधन को मिलेगा। लिट्टीपाड़ा उप-चुनाव ने झारखंडी राजनीति का पुनरूथान कर दिया है। 

- लेखक एक एक्टिविस्ट, लेखक और शोधकर्ता हैं। 

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