सोमवार, 22 जनवरी 2018

विकास के नाम पर दगाबाजी

ग्लैडसन डुंगडुंग

झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने घोषणा किया है कि वेदांता कंपनी का प्रस्तावित स्टील परियोजना उनका ड्रीम प्रोजेक्ट है यानी वेदांता कंपनी को झारखंड में स्थापित करना उनका सपना है। यह परियोजना झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले स्थित मनोहरपुर प्रखंड के डिम्बुली एवं अनंतपुर गांव में स्थापित किया जाना है। इस परियोजना से प्रतिवर्ष 1 मिलियन टन स्टील उत्पादन करने का प्रस्ताव है, जिसके लिए 15,000 करोड़ रूपये का पूंजीनिवेश होगा। वेदांता कंपनी ने दावा किया है कि इस विकास परियोजना से लगभग 7,000 लोगों को रोजगार मिलेगा, जिसमें 2,000 लोगों को प्रत्यक्ष एवं 5,000 लोगों को अप्रत्यक्ष रोजगार मिलना शामिल है। 

कंपनी में मिलने वाली नौकरी को ही रोजगार माना जाता था लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों कहा है कि किसी दफ्तर के बाहर चाय-पकौड़ा बेचना भी रोजगार है। इसलिए इसे कंपनी के द्वारा अप्रत्यक्ष रोजगार उपलब्ध कराना माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि वेदांता कंपनी का स्टील प्लांट स्थापित होने से 2000 लोगों को कंपनी में नौकरी मिलेगा और 5000 लोगों को कंपनी के बाहर चाय-पकौड़ा, हड़िया-दारू, सिगरेट-बिड़ी, इत्यादि बेचने का अवसर उपलब्ध होगा। कंपनी के द्वारा रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने का कितना शानदार तरीका है? चाय-पकौड़ा, हड़िया-दारू, सिगरेट-बिड़ी, इत्यादि बेचने के लिए पूँजी लोग लगायेंगे और वेदांता कंपनी इसको अपना उपलब्धि गिनायेगी? क्या यह लोगों के घाव पर नमक छिड़कने जैसा नहीं है?   

वेदांता कंपनी को प्रस्तावित प्लांट के लिए 600 एकड़ जमीन चाहिए, जिसमें 300 एकड़ प्लांट स्थापित करने और टाउनशीप इत्यादि कार्य के लिए 300 एकड़। कंपनी के पास अभी कुल 151.10 एकड़ जमीन है, जिसमें वी.एस. डेम्पो कंपनी के द्वारा ग्रामीणों से खरीदी गई 110 एकड़ रैयती जमीन और झारखंड सरकार के द्वारा लीज पर दिया गया 41.10 एकड़ परती जमीन शामिल है। लेकिन डिम्बुली गांव के रैयत वेदांता कंपनी के प्रस्तावित परियोजना का जोरदार विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि विकास के नाम पर उनके साथ दगाबाजी किया गया है। इस मामले को गंभीरता से देखने पर रैयतों का विरोध जायज दिखाई देता है। 

गोवा की कंपनी ‘वी.एस. डेम्पो एंड को. प्रा. लि. ने 6 अक्टूबर 2005 को झारखंड सरकार के साथ एक समझौता किया था, जिसके तहत निम्न कोटि के लौह-अयस्क में उच्च गुणवता में परिवर्तित कर स्टील बनाने वाले स्टील प्लांट का स्थापना करना था, जिसमें एक हजार करोड़ रूपये की पूंजीनिवेश का प्रस्ताव था। 18 अक्टूबर 2005 को कंपनी के प्रोजेक्ट मैनेजर के.के. कलाम ने पश्चिमी सिंहभूम के उपायुक्त को इस परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण करने हेतु आवेदन भेजा। 

इसके बाद कंपनी ने मनोहरपुर प्रखंड के डेम्बुली गांव में जमीन चिन्हित किया, जिसमें आदिवासी रैयतों का 126 एकड़, गैर-आदिवासी रैयतों का 12.81 एकड़ एवं 145 एकड़ परती (गैर-मजरूआ) जमीन शामिल था। रैयतों से जमीन खरीदने के लिए कंपनी ने गांव के ही दो लोगों को काम पर लगा दिया। ये लोग गांव के प्रत्येक रैयत से अलग-अलग बात करने लगे। इन्होंने रैयतों से कहा कि कंपनी रैयतों के परिवारों के सभी सदस्यों को नौकरी देगा, विस्थापितों का पुनर्वास करेगा, रैयतों को शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी बुनियादी सुविधा भी उपलब्ध करायेगा। इस तरह से उनका विकास होगा। आदिवासी रैयतों ने इनकी बात मानकर कंपनी को अपनी जमीन देने हेतु सहमति दे दी। 12 फरवरी 2007 को कंपनी ने 32 रैयतों एवं परियोजना मैंनेजर के हस्ताक्षर युक्त घोषणा-पत्र स्टाम्प पेपर पर जारी कर दिया और रैयतों से जमीन खरीदने का काम भी शुरू हो गया।  

इस तरह से वर्ष 2007 से 2009 तक वी.एस. डेम्पो कंपनी ने जमीन दलालों के माध्यम से चुपचाप डिम्बुली के रैयतों से 950 रूपये प्रति डीसमील की कीमत पर 110.53 एकड़ जमीन खरीद लिया। लेकिन रैयतों के साथ स्टाम्प पेपर पर जमीन का समझौता करते समय कंपनी फंस गया। कंपनी के अधिकारियों को लगा कि वे पांच वर्षों के अंदर डिम्बुली में स्टील प्लांट स्थापित कर लेगें इसलिए उन्होंने समझौता-पत्र में लिखा कि यदि वी.एस. डेम्पो पांच वर्षों के अंदर उक्त जमीन पर प्लांट स्थापित नहीं करता है तो जमीन रैयतों को वापस दे दिया जायेगा। इतना ही नहीं समझौता-दस्तावेज में यह भी लिखा गया कि कंपनी उक्त जमीन को किसी दूसरे कंपनी को नहीं बेचेगा। 

इसी बीच जब वी.एस. डेम्पों के द्वारा गांव की जमीन खरीदने की भनक पूरे गांव के लोगों को हुई तो उन्होंने इसका विरोध करना शुरू किया। लोगों के विरोध को देखते हुए कंपनी के आफसरों ने गांव में एक आमसभा का आयोजन किया, जिसमें कंपनी के आफसर जमीन बेचने वाले रैयतों के साथ-साथ पूरे गांव के लोगों के साथ बात-चीत कर गांव में प्लांट स्थापित करने हेतु रास्ता बनाना चाहते थे। लेकिन आमसभा में कंपनी के आफसरों के पहुंचते ही हंगामा शुरू हो गया। ग्रामीणों का जोरदार विरोध को देखते हुए जमीन बेचने वाले रैयत भी सहम गये और कंपनी के आफसरों को बैरंग वापस लौटना पड़ा। 

जब पांच वर्ष बीत जाने के बाद भी कंपनी अपना प्लांट स्थापित करने में असफल हो गया तो 2013 में डेम्पों के मालिक ने ‘‘डेम्पो माईनिंग कारपोरेशन’ को 1750 करोड़ रूपये में देश की सबसे बड़ी खनन कंपनी गोवा स्थित ‘सेसा गोवा लिमिटेड’ को बेच दिया। सेसा गोवा लि. ने सारंडा जंगल स्थित दुबिल माईंस से 999.40 हेक्टेयर का खनन लीज हासिल कर चुका है। इस तरह से डिम्बुली गांव की जमीन पर सेसा गोवा लि. के पास आ गया। सेसा गोवा लि. गोवा, कर्नाटक और ओड़िसा में बड़े पैमाने पर लौह-अयस्क का खनन कार्य करता है और अब यह कंपनी झारखंड में भी प्रवेश कर चुका था।  

यह मामला यहीं खत्म नहीं होती है। लंदन स्थित वेदांता कंपनी ने भारत में स्टील उत्पादन के क्षेत्र में कूदने का मन बना लिया था। लेकिन कंपनी नये सिरे से काम शुरू करने के बजाये स्थापित कंपनी का अधिग्रहण कर अपना कदम बढ़ाना चाहता था। इसके लिए वेदांता ने सेसा गोवा लि. का 51 प्रतिशत शेयर जो जापानी कंपनी ‘मिटसुई’ के पास था उसे अप्रील 2007 में ही 981 मिलियन डालर में खरीद लिया था। इस तरह से वह सेसा गोवा लि. का मालिक बन गया। लेकिन 2013 वेदांता के शेयर की कीमत 6.7 प्रतिशत बढ़ गया, जिससे सेसा गुवा लि. में वेदांता का मार्केट कैपिटल 15,122 करोड़ रूपये हो गया। वेदांता कंपनी ने सेसा गुआ लि. का 45,000 करोड़ रूपये का कर्ज भी भर दिया। इस तरह से वेदांता कंपनी ने सेसा गुवा लि. को खरीद लिया। वेदांता रिर्सोसेस ने सेसा गोवा एवं स्टारलाईट इंडस्ट्रीज को मिला कर सेसा स्टारलाईट नामक कंपनी बना दिया, जिसे बाद में वेदांता लिमिटेड का नाम दिया गया। अब स्टील खनन के क्षेत्र में यह कंपनी वेदांता लिमिटेड के नाम से काम कर रहा है।  

सेसा गोवा कंपनी को खरीदने का परिणाम यह हुआ कि वेदांता लिमिटेड सारंडा का खनन लीज और डिम्बुली गांव की जमीन का स्वतः हकदार हो गया। इस तरह से वेदांता का डिम्बुली गांव में प्रवेश हुआ। 16-17 फरवरी 2017 को झारखंड की राजधानी रांची स्थित खेलगांव में ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट हुआ, जिसमें दुनियाभर से 11,000 छोटे-बड़े व्यापारी शामिल हुए, जिसमें वेदांता कंपनी के मालिक अनिल अग्रवाल भी थे। इसी समिट के बाद स्टील प्लांट के लिए झारखंड सरकार एवं वेदांता कंपनी के बीच समझौता हुआ था। अब वेदांता कंपनी डिम्बुली गांव के उन्हीं दलालों के माध्यम से उक्त जमीन को अधिग्रहण करने का प्रयास कर रही है, जिसका गांव के लोग विरोध कर रहे है। 

यहां यह भी जानना मजेदार होगा कि झारखंड में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ चल रहे जनांदोलनों के मद्देनजर झारखंड सरकार ने 2015 में भूमि बैंक का गठन कर राज्यभर के 21 लाख एकड़ गैर-मजरूआ जमीन को इसमें सूचीबद्ध कर दिया है। इसी भूमि बैंक में डिम्बुली गांव की परती जमीन को भी डाल दिया गया था, जिसमें से 41.10 एकड़ परती जमीन को झारखंड सरकार ने चुपके से वेदांता कंपनी को दे दिया है। यह जमीन गांव में अलग-अलग जगहों पर कहीं रास्ता, कहीं सामाजिक जमीन तो कहीं धार्मिक जमीन के रूप में मौजूद है। परती जमीन के अगल-बगल में ग्रमीणों का रैयती जमीन है। हकीकत में गांव के परती जमीन पर ग्रामसभा का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने ’’ओड़िसा माईनिंग कारपोरेशन बनाम वन व पर्यावरण मंत्रालय एवं अन्य(सी) सं. 180 आफ 2011’’ के मामले पर फैसला देते हुए कहा है कि गांव के प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन करने के लिए ग्रामसभा सक्षम है। इसलिए यह ग्रामसभा को ही तय करना है कि गांव के प्राकृतिक संसाधनों का कैसे उपयोग हो। डिम्बुली के मामले में झारखंड सरकार ने पेसा कानून 1996 और सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट का खुलम-खुला उल्लंघन किया है क्योंकि ग्रामसभा से बगैर अनुमति के ही परती जमीन को वेदांता कंपनी को दे दिया है। क्या परती जमीन पर सरकार का सम्पूर्ण हक बनता है?     

जब डेम्बुली गांव के आदिवासियों को इसकी भनक लगी तो उन्होंने 12 जून 2017 को ग्रामसभा का आयोजन किया गया, जिसमें 85 ग्रामीणों का हस्ताक्षरयुक्त आपŸ-पत्र तैयार कर मनोहरपुर के अंचलाधिकारी को सौंप दिया। ग्रामीणों का कहना है कि उनके रैयती जमीन के बीच-बीच में स्थित गैर-मजरूआ जमीन को सरकार वेदांता कंपनी को कैसे दे देगी? उक्त जमीन पर प्लांट कैसे लगेगे? यह तो उनके जमीन को कब्जा करने का एक षड्यंत्र है। ग्रामीणों ने ग्रामसभा के माध्यम से मनोहरपुर के अंचलाधिकारी को लिखा कि ग्रामसभा राजस्व ग्राम डिम्बुली थाना न. 86 की परती जमीन को वेदांता लिमिटेड को लीज बन्दो बस्ती पर आपŸ करता है तथा तत्काल इस प्रस्ताव को खारिज किये जाये। 

वी.एस. डेम्पो को अपनी जमीन देने वाले रैयत देवदत नायक, गोपबंधु, रंजीत नायक, बैद्यनाथ मुंडारी, संजय नायक, पार्वती नायक, किशोरी नायक, निर्मला नायक, गोविंद नायक कहते हैं कि उन्होंने डेम्पो कंपनी को पांच वर्ष के लिए अपनी जमीन दी थी अब जमीन के एग्रीमंट की अवधि खत्म हो गई है और कंपनी इस अवधि मंप्लांट नहीं लगा पायी है इसलिए अब उन्हें जमीन वापस देना होगा। डेम्बुली गांव के रैयत कह रहे हैं कि वी.एस. डेम्पो ने सशर्त एग्रीमेंट के तहत प्लांट स्थापित नहीं किया इसलिए अब उनके द्वारा कंपनी को दी गई जमीन उन्हें वापस मिलनी चाहिए। पूर्व-ग्रामप्रधान अखिलेन्द्र नायक कहते हैं कि उन्होंने वी.एस. डेम्पो को जमीन दी थी वेदांता को नहीं। इसलिए उन्हें उनकी जमीन वापस मिलनी चाहिए। वे वेदांता को जमीन नहीं देंगे। 

पिछले वर्ष छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 एवं संतालपरगना काश्तकारी अधिनियम 1949 में संशोधन करने के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने बार-बार कहा था कि वे झारखंड और आदिवासियों का विकास करना चाहते हैं इसलिए इन कानूनों का संशोधन कर रहे हैं। उन्होंने इस बात पर जोर देकर कहा था कि यदि किसी भी विकास परियोजना के लिए अधिगृहित जमीन पर पांच वर्षों के अन्दर प्लांट स्थापित नहीं होता है तो उक्त जमीन को रैयतों को वापस कर दिया जायेगा और उन्हें दिया हुआ मुआवजा राशि भी लौटाना नहीं पड़ेगा। 

लेकिन क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि वी.एस. डेम्पो कम्पनी के द्वारा रैयतों से किये गये समझौता की अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी डेम्बुली गांव के रैयतों को जमीन वापस करने के बजाये रघुवर दास उक्त जमीन को वेदांता कंपनी को देने पर तुले हुए हैं। क्या यह विकास के नाम पर रैयतों के साथ दगाबाजी नहीं है? इस स्थिति में कंपनी और मुख्यमंत्री रघुवर दास के द्वारा किये गये वादों पर कैसे विश्वास किया जाये? क्या सरकार विकास शब्द का उपयोग रैयतों से जमीन छीनने के लिए नहीं कर रही है? यह विकास किसके लिए और किसके कीमत पर हो रहा है? क्या रैयतों से जमीन खरीदते समय पारदर्शी तरीके से उनकी पूर्ण सहमति नहीं लेनी चाहिए?   

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