गुरुवार, 3 जनवरी 2019

इतिहास में आदिवासी योद्धाओं के साथ दगाबाजी

ग्लैडसन डुंगडुंग

आजादी प्रत्येक व्यक्ति के गरिमा का अहम हिस्सा है। इसलिए हर कोई आजादी से प्यार करता है चाहे वह आजादी व्यक्तिगत या देश के लिए हो। आदिवासी समाज में यह स्वायत्तता के रूप में मौजूद है। आदिवासियों ने अपनी स्वायत्तता को बरकरा रखने के लिए बहुत ज्यादा कुर्बानी दी है। उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत को ही अस्वीकार कर दिया था। यदि भारत के आजादी का सही इतिहास लिखा जाता तो उसमें सबसे पहले आदिवासी योद्धाओं का ही नाम होता। लेकिन भारत के आजादी का इतिहास जातिवाद एवं पुर्वाग्रह से ग्रसित इतिहासकारों के द्वारा लिखा गया है इसलिए उसमें आदिवासी योद्धा पहले पंक्ति में नहीं हैं। हमारे देश के विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है कि मंगल पांडे के नेतृत्व में हुए 1857 का सिपाही विद्रोह आजादी की पहली लड़ाई थी। क्या यह सही इतिहास है? हकीकत यह है कि सिपाही विद्रोह से दशकों पहले देश के अलग-अलग हिस्से में आदिवासियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कई विद्रोह किया था, जिसमें हजारों की संख्या में आदिवासी शहीद हो चुके थे। ब्रिटिश हुकूमत ने कई आदिवासी योद्धाओं को फांसी पर लटका दिया लेकिन उन्हें जानबूझकर आजाद भारत के इतिहास में जगह नहीं दिया गया है, जो आदिवासी समाज के साथ दगाबाजी है।  

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खड़ा होने का साहस करने वालों में सबसे अग्रिम पंक्ति में पहाड़िया आदिवासी योद्धा बाबा तिलका मांझी का नाम आता है। 1765 में बंगाल, बिहार एवं उड़िसा का दीवानी अधिकार हासिल करने के बाद जब ब्रिटिश हुकूमत ने आदिवासियों से जमीन का लगान मांगा तब बाबा तिलका मांझी ने यह कहते हुए लगान देने से इंकार कर दिया कि जमीन तो उन्हें भगवान ने उपहार में दिया है। इसलिए वे ब्रिटिश सरकार को लगान नहीं देंगे। लेकिन जब ब्रिटिश हुकूमत ने इन आदिवासियों साथ जोरजबरदस्ती से लगान वसूलना शुरू किया तक बाबा तिलका मांझी के नेतृत्व में पहाड़िया आदिवासियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह कर दिया। बाबा तिलका मांझी ने पहाड़िया सेना का गठन किया और भागलपुर के कलेक्टर अगस्टिन क्लीवलैंड को तीन-धनुष से मार गिराया। फलस्वरूप, ब्रिटिश सैनिकों ने छापामारी करते हुए तिलाबोर पहाड़ में छुपे तिलका मांझी को पकड़कर चार छोड़ों के बीच बांध दिया और उन्हें घसीटते हुए भागलपुर टाउन ले गये जहां हजारों की संख्या में इक्टठी भीड़ के सामने बरगद के पेड़ पर लटका दिया। बाबा तिलका मांझी आजादी के बहुत बड़े योद्धा थे। 

ब्रिटिश उपनिवेश के खिलाफ हुए आदिवासी आंदोलनों में ‘कोल विद्रोह’ एक अहम स्थान रखता है, जिसमें उरांव, मुंडा और हो आदिवासियों ने छोटानागपुर से लेकर कोल्हान तक मिलकर संघर्ष किया। 1820 में पोड़हाट के राजा ने ब्रिटिश हुकूमत को जमीन का लगान देने पर अपनी सहमति दे दी। लेकिन आदिवासी लोग राजा से सहमत नहीं थे इसलिए उन्होंने विद्रोह शुरू कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत ने राजा की मदद के लिए अपनी सेना भेजी। आदिवासियों को अंग्रेजों की गुलामी पसंद नहीं थी। वे अपने इलाकों में स्वतंत्रपूर्वक रहना चाहते थे। लेकिन जमींदारों ने ब्रिटिश हुकूमत के साथ मिलकर आदिवासियों के उपर शोषण एवं दमन किया। 1831 में हो आदिवासियों ने उरांव एवं मुंडा आदिवासियों के द्वारा ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ चलाये जा रहे कोल विद्रोह में हिस्सा लिया। आदिवासियों के बीच असंतोष की लहर दौड़ गई क्योंकि उनके गांवों की जमींदारी उनसे छीनकर बाहरी लोगों को दे दिया गया और मुंडाओं पर पुलिसिया जुल्क किया गया। सिंहभूम सीमा क्षेत्र में स्थित 12 गांवों का मालिकाना हक सिंगराय मानकी से छीनकर सिक्खों को दे दिया गया, जिसे आदिवासियों के बीच आक्रोश और ज्यादा बढ़ गया। कोल विद्रोह के प्रमुख अगुओं में बुद्धु भगत, सिंगरा मानकी एवं बिंदराय मानकी थे। लेकिन इन्हें भी इतिहास में भुला दिया गया है। कोल विद्रोह का सही तरीके से अनुसंधान करने पर कई और योद्धा सामने आयेंगे क्योंकि इस आंदोलन का इलाका काफी व्यापाक था।  

भारत के आजादी के इतिहास में संताल हुल का जिक्र न होना सबसे ज्यादा चैकाने वाली बात है। संताल हुल के योद्धा सिदो-कान्हो, चाॅंद-भैरव और फूलो-झानो को अधिकांश लोग नहीं जानते हैं क्योंकि इन्हें इतिहास में जगह नहीं दिया गया है। संताल हुल इसलिए ज्यादा महत्व रखता है क्योंकि यह 1855 में हुआ और इसके ठीक दो वर्ष बाद यानी 1857 में सिपाही विद्रोह हुआ जिसे भारत के आजादी के इतिहास में प्रथम स्थान दिया गया है जबकि संताल हुल सिपाही विद्रोह से भी बड़ा था, जिसमें 60,000 हजार संतालों ने भाग लिया। संताल हुल में सिदो-कान्हो को फांसी की सजा दी गई और 15,000 संताल अंग्रेजी सेना के गोलियों के शिकार हुए। संताल हुल में प्रमुख भूमिका निभाने वाले सिदो-कान्हो, चाद-भैरव और फूलो-झानो सभी भाई-बहन थे। जब ब्रिटिश हुकूमत ने संताल इलाके को अपना उपनिवेश बनाने की कोशिश कीतब इन लोगों ने पूरे संताल समाज को एकजुट किया। इसके बाद 30 जून 1855 को सिदो-कान्हो ने स्वयं को संतालों का राजा घोषित करते हुए ऐलान कर दिया कि संताल इलाका में उनका राज चलेगा ब्रिटिश हुकूमत का नहीं इसलिए वे अंगेरजों को अपनी जमीन का लगान नहीं देंगे। इस तरह से संताल लड़ाकू और ब्रिटिश सैनिकों के बीच युद्ध छिड़ गया, जिसमें हजारों लोग मारे गये और सिदो-कान्हू को फांसी पर लटकाया गया। संताल हुल के योद्धाओं में कई और नाम हो सकते हं क्योंकि सिर्फ एक परिवार के द्वारा पूरे संताल समाज को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खड़ा करना असंभव सा दिखता है क्योंकि सूचनाओं का संप्रेषण एवं लोगों को दूर-दराज से एकजुट करना बहुत चुनौतीपूर्ण रहा होगा। इसलिए नये तरीके से अनुशंधान की जानी चाहिए। 

आदिवासियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सबसे पहले और सबसे ज्यादा संघर्ष किया है तथा कुर्बानी भी सबसे ज्यादा दिया है। लेकिन आजादी के योद्धाओं को इतिहास में जगह नहीं देना इनके साथ सरासर धोखा है। यदि ईमानदारी से अनुसंधान करते हुए भारत के आजादी के आंदोलन का इतिहास लिखा जायेगा तो इसमें हजारों आदिवासी योद्धाओं का नाम सामने आयेगा, जिन्हें इतिहास में नाकार दिया गया है। इसलिए तथाकथित मुख्यधारा के इतिहासकारों को आदिवासी इतिहासकारों, साहित्यकारों एवं लेखकों के साथ मिलकर भारत के आजादी का इतिहास फिर से लिखना चाहिए। आदिवासियों के साथ किये गये ऐतिहासिक अन्याय को न्याय में बदलने का यह सुनहरा अवसर होगा। लेकिन क्या तथाकथित सभ्य, शिक्षित एवं विकसित समाज के इतिहासकार, साहित्याकार एवं बुद्धिजीवी इसके लिए तैयार होंगे? 

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