गुरुवार, 3 जनवरी 2019

न्यायालयों के विरोधाभाषी फैसले

 ग्लैडसन डुंगडुंग 

न्यायपालिका को लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ माना जाता है। न्यायालय का निर्णय सर्वोंपरि होता है। इसलिए केन्द्र एवं राज्य सरकारें, राजनीतिक दल, धार्मिक संस्थान, सामाजिक संगठन एवं आम जनता कोर्ट के निर्णय को मानने के लिए बाध्य होते हैं। लेकिन आदिवासी समाज से संबंधित कई मामलों में उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के फैसले विरोधाभाषी हैं, जिससे आदिवासी समाज को भारी नुकशान उठाना पड़ रहा है। इन न्यायालयों ने कहीं प्रकृति के सिद्धांत के खिलाफ फैसला दिया है तो कहीं प्रकृति के सिद्धांत को सर्वोपरि बताकर समाज के विरूद्ध निर्णय लिया है। आदिवासी समाज प्रकृति के सिद्धांत पर चलता है इसलिए ये फैसले समाज को खोखला करने में मद्दगार साबित हुए हैं। यहां न्यायालयों के कुछ फैसलों का जिक्र जरूरी है।  

पहला मसला है आदिवासी माता एवं गैर-आदिवासी पिता से जन्में बच्चों को आदिवासी का दर्जा देने से संबंधित। सुप्रीम कोर्ट ने ‘अंजन कुमार बनाम यूनियन आफ इंडिया एवं अन्य 2006 3 एस.सी.सी. 257’ के मामले में फैसला देते हुए कहा कि आदिवासी माता एवं गैर-आदिवासी पिता की संतान आदिवासी होने का दावा नहीं कर सकते हैं क्योंकि संतान की जाति उसके पिता से निर्धारित होती है। यह फैसला प्रकृति के सिद्धांत के अनुरूप था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ‘रामेशबाई दबाई नायक बनाम स्टेट आफ गुजरात एवं अन्य एस.एल.पी. सिविल 4282 आफ 2012 के मामले में आदिवासी माता एवं गैर-आदिवासी पिता से उत्पन्न संतानों के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए फैसला दिया कि आदिवासी माता एवं गैर-आदिवासी पिता की संतान को आदिवासी का दर्जा दिया जा सकता है यदि उसके जीवन के शुरूआती दौर में गैर-आदिवासी पिता से किसी तरह का लाभ नहीं मिला हो, वह अपने आदिवासी मां के घर में आदिवासी बच्चे की तरह वंचित, अनादर एवं अपमानजनक स्थिति में पला-बढ़ा हो तथा उसे उस आदिवासी समुदाय ने स्वीकार किया हो साथ ही दूसरे समुदाय के लोग भी उसे आदिवासी ही मानते हो। 

यहां सोचने वाली बात यह है कि क्या न्यायालय प्रकृति के नियम को बदल सकता है? क्या ऐसे बच्चों का नस्ल बदल सकता है? आदिवासी माता एवं गैर-आदिवासी पिता से जन्में बच्चों में अनुवांशिक गुण पिता का होता है। इसलिए उनका शरीरिक बनावट, विचार एवं व्यवहार आदिवासियों से बिल्कुल अलग होता है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद आदिवासी माता एवं गैर-आदिवासी पिता से जन्में बच्चे स्वयं को आदिवासी घोषित कर आदिवासियों से उनके संवैधानिक एवं कानूनी हक छीन रहे हैं। हद तो यह है कि अपने पिता के घर में पले-बढ़े ऐसे बच्चे भी स्वयं को आदिवासी माता के घर में बचपन गुजरने की बात कह कर आदिवासी होने का दावा पेश कर रहे हैं। क्या यह आदिवासियों के हक को जबरदस्ती छीनने वाला कदम नहीं है? क्या दूसरों की हकमारी आदिवासी जीवन-दर्शन में है और यदि नहीं है तो ऐसे बच्चे आदिवासी कैसे हो सकते हैं?     

दूसरा मसला है गैर-आदिवासी लड़की के द्वारा आदिवासी लड़का से शादी करने के बाद आदिवासी होने का दावा पेश करना। सुप्रीम कोर्ट ने ‘मुर्लिधर दयानदेव केसेकर बनाम विश्वनाथ पांडू बर्डे 1995 2 एस.सी.सी. 309 जे.टी. 1995 7 एस.सी.93 में फैसला दिया कि आर्थिक सशक्तिकरण गरीबों का मौलिक अधिकार है एवं संविधान के अनुच्छेद-15 4, 16 4 एवं 46 के द्वारा उन्हें आर्थिक सशक्तिकरण के लिए अवसर उपलब्ध कराया गया है। इसलिए गैर-आदिवासी महिला को सिर्फ आदिवासी पुरूष से शादी करने के आधार पर आदिवासी होने का लाभ नहीं दिया जा सकता है क्योंकि इस तरह का कदम संविधान को धोखा देने जैसा होगा। यह फैसला भी बिल्कुल सही है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ए.आई.आर. 1972 एस.सी. 1840 में पहले फैसला दे चुका है कि यदि गैर-आदिवासी महिला आदिवासी परंपराओं को मानती हो, आदिवासी समाज के अन्य सदस्यों के द्वारा स्वीकार की गई हो और उसका अनुमोदन समाज के पंचों के द्वारा किये जाने के बाद आदिवासी पुरूष से शादी करती है तो वह उस समुदाय की सदस्य बन जाती है। यहां मौलिक प्रश्न यह है कि सिर्फ आदिवासी परंपराओं को मानने और आदिवासी समाज के द्वारा स्वीकृति देने से उसका नस्ल बदल जाता है? गैर-आदिवासी माता एवं पिता से जन्मा बच्चा आदिवासी कैसे बन सकता है? क्या इसी रीति से एक आदिवासी ब्राह्मण बन सकता है? यह फैसला भी आदिवासी समाज के खिलाफ है। इस फैसले के कारण आदिवासी लड़के गैर-आदिवासी लड़कियों से शादी करेंगे जिसका असर आदिवासी लड़कियों पर पड़ेगा। इस तरह से आदिवासी समाज का ताना-बाना टूटेगा। 

तीसरा मासला है आदिवासी लड़की के द्वारा गैर-आदिवासी लड़का से शादी करने के बाद भी आदिवासी समाज को मिलने वाले संवैधानिक एवं कानूनी लाभ लेने से संबंतिध है। ‘राजेन्द्र श्रीवास्तव बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र क्रिमिनल अपील सं. 2347 आफ 2009 के मामले में बम्बे उच्च न्यायालय ने फैसला देते हुए कहा कि उच्च जाति के पुरूष से शादी करने मात्र से आदिवासी या दलित महिला की जाति नहीं बदलती है क्योंकि आदिवासी या दलित समुदाय में जन्म लेने के कारण वह जीवनभर अभाव, भेदभाव एवं अमान्वीय जीवन जीती है। न्यायालय गैर-आदिवासियों से शादी करने वाली आदिवासी महिलाओं को पीड़ित मानता है। यदि गैर-आदिवासियों से शादी करने के बाद आदिवासी महिलाएं पीड़ित बनी रहती हैं तो कोर्ट ऐसे शादियों पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाता है? क्या सचमुच गैर-आदिवासियों से शादी करनेवाली आदिवासी महिलाएं पीड़ित हैं? उन्हें पीड़ित कौन बना कर रखा है? 

यहां मौलिक प्रश्न यह है कि जब गैर-आदिवासी लड़की आदिवासी लड़का से शादी करने के बाद आदिवासी बन सकती है तो आदिवासी लड़की गैर-आदिवासी लड़का से शादी करने के बाद गैर-आदिवासी क्यों नहीं बनती है? क्या ऐसा कानून सिर्फ आदिवासी समाज पर लागू होता है? कोर्ट के इस फैसले के कारण आदिवासी समाज बड़े पैमाने पर अपनी बेटी, सरकारी नौकरी और जमीन खो रहा है। गैर-आदिवासी लोग सम्पन्न आदिवासी परिवारों के पढ़े-लिखे लड़कियों को निशाना बनाते हैं, उनके नाम से जमीन खरीदते हैं, आरक्षित सीट से नौकरी हासिल करते हैं, उन्हें आरक्षित सीटों से चुनाव लड़वाते हैं और आदिवासी इलाके में असानी से घुसते हैं। इस तरह से उन्हें चैतरफा लाभ मिलता है। आज यह आदिवासी समाज को लूटने का एक बड़ा हथियार बन चुका है। क्या न्यायालय ऐसे फैसलों को बदलेंगे? 

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