गुरुवार, 3 जनवरी 2019

आदिवासियों के विनाश का साक्षी है ‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’

ग्लैडसन डुंगडुंग

भारत के आधुनिक विकास के इतिहास में एक और काला अध्याय जुड़ गया है। 31 अक्टूबर 2018 को भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के नर्मदा जिले स्थित केवड़िया के साधु बेट द्वीप में स्थापित सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति ‘स्टैच्यू आफ यूनिटी’ का उद्घाटन किया, जिसके प्रतिरोध में आदिवासियों ने गुजरात बंद का आह्वान किया और परियोजना से प्रभावित 72 गांवों के आदिवासी शोक मनाये जिसमें राज्यभर के 75,000 आदिवासी शामिल हुए। इन आदिवासियों ने प्रतिरोध मार्च निकाला, प्रधानमंत्री को कालाझंडा दिखाया और हवा में काला गुब्बारा छोड़ा। इन 72 गांवों के आदिवासियों के घरों में खाना नहीं पकाया गया। वे ऐसा शोक तब मनाते हैं जब उनके गांव में किसी की मृत्यु हो जाती है। वे ‘स्टैच्यू आफ यूनिटी’ के विरोध में शोक इसलिए मनाये क्योंकि यह परियोजना उनके लिए विनाशकारी साबित हुआ है। गुजरात सरकार ने ‘स्टैच्यू आफ यूनिटी’ को स्थापित करने के लिए ग्रामसभाओं के निर्णयों के विरूद्ध पुलिस और कानून का सहारा लेकर आदिवासियों की जमीन छीन लिया है, उनके धार्मिक स्थलों को बर्बाद किया है और खेत, खलिहान एवं गांवों को पानी में डुबो दिया है। क्या हम इसे देश की एकता का प्रतीक मान सकते हैं? क्या यह आदिवासियों के विनाश का प्रतीक नहीं है? 

यहां मौलिक प्रश्न यह है कि क्या आदिवासी देश की एकता और अखंडता का हिस्सा नहीं हैं? यह कैसा स्टैच्यू आफ यूनिटी’ है, जिसमें आदिवासियों को शामिल नहीं किया गया है? क्या अमेरिका की तरह ही भारत भी आदिवासियों के लाश पर विकास की इमारत खड़ा नहीं कर रहा है? यह ठीक उसी तरह है जिस प्रकार से देशभर में ‘जनहित, प्रगति, राष्ट्रहित, विकास और आर्थिक तरक्की के नाम पर आदिवासियों से उनकी जमीन, जंगल और जलस्रोत छीनकर उन्हें संसाधनविहीन बना दिया गया है लेकिन उन्हें उसका हिस्सा नहीं बनाया गया। आदिवासी कबतक अपने ही देश में छले जायेंगे? क्या आदिवासियों के आंखों मे अंशू डालकर देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय एकता की बात करना शोभा देता है? यह किस तरह का राष्ट्रीय एकता और अखंडता है जिसके लिए आदिवासियों के अस्तित्व को दांव पर लगा दिया गया है? ऐसे फर्जी एकता और अखंडता का विरोध क्यों नहीं किया जाना चाहिए?   

‘स्टैच्यू आफ यूनिटी’ नरेन्द्र मोदी का ड्रम प्रोजेक्ट है। इसकी शुरूआत 2010 में हुई थी। गुजरात सरकार ने इस कार्य को अंजाम तक पहुंचाने के लिए 7 अक्टूबर 2010 को ‘सरदार वल्लभाई पटेल राष्ट्रीय एकता ट्रस्ट’ की स्थापना की और छड़ इक्ट्ठा करने के लिए देशभर में अभियान चलाकर 5 लाख लोगों से दान के रूप में 5 हजार मेट्रक्स टन छड़ इक्टठा किया गया। लेकिन इसे मूर्ति बनाने के बजाय दूसरों कार्यों में लगाया गया। यह लोगों के भावनाओं के साथ खिलवाड़ ही है। इसके बाद सुराज हस्ताक्षर अभियान एवं एकता मैराथन दौड़ का आयोजन किया गया। मूर्ति स्थल को पर्यटन स्थल बनाने के लिए ‘केवड़िया एरिया डेवलापमेंट आथोरिटी’ का गठन किया गया तथा इसके लिए गुरूदेश्वर वायर-कम-कैसवेट मानव निर्मित झील परियोजना की शुरूआत की गई। इस परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ उठ खड़े हुए आदिवासियों को रास्ते से हटाने के लिए स्टेट रिजर्व पुलिस फोर्स का एक यूनिट ‘नर्मदा बटालियन’ का गठन किया गया, जो परियोजना स्थल पर कैम्प करती रही।   

जब आदिवासियों को जानकारी हुई कि नर्मदा डैम के बाद फिर से उनकी जमीन ली जायेगी और डैम के लिए लिया गया जमीन को दूसरे कार्य में लगाया जायेगा तब उन्होंने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। केवड़िया, काठी, वगाड़िया, लिम्बाडीह, नवागम एवं गोरा गांव के लोगों ने 1961-62 में नर्मदा डैम के लिए उनसे ली गई 927 एकड़ जमीन को वापस देने की मांग की क्योंकि उन्हें अबतक इस जमीन का मुआवजा नहीं दिया गया है। आदिवासियों के आंदोलन को देखते हुए गुजरात सरकार ने गुरूदेश्वर को तलुका बनाने की घोषणा की और उनके अन्य मांगों को पूरा करने का वचन दिया। इस तरह से 31 अक्टूबर 2013 को गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेन्द्र मोदी ने इसका शिलान्यास किया। सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति ‘स्टैच्यू आफ यूनिटी’ 182 मीटर उंचा है, जो दुनिया का सबसे उंचा मूर्ति है, जो 2398 करोड़ रूपये की लागत से बना है। 

इस परियोजना में आदिवासियों के कुल 72 गांव प्रभावित हुए हैं। आदिवासियों का आरोप है कि गुजरात सरकार ने ग्रामसभाओं के निर्णयों के खिलाफ जबरर्दस्ती जमीन लेने के बाद भी अपना वादा पूरा नहीं किया है। सरकार ने सिर्फ कुछ लोगों को ही जमीन का मुआवजा दिया है। गुरूदेश्वर के रमेश भाई बताते हैं कि सरकार ने आदिवासियों की जमीन ले ली और बदले में सिर्फ पैसा दिया है लेकिन पुनर्वास पैकेज के रूप में किया गया वादा - जमीन के बदले जमीन और सरकारी नौकरी अबतक किसी को नहीं मिला है। गांवों में ऐसे भी आदिवासी हैं, जिन्होंने गैर-कानूनी भूमि अधिग्रहण के विरोध में अबतक जमीन का पैसा भी नहीं लिया है। कुछ विस्थापित आदिवासियों को अपने गांवों से हटाकर बंजर जमीन में बसाया गया है इसलिए आदिवासी सवाल उठा रहे हैं कि वे बंजर जमीन में क्या करेंगे?

‘स्टैच्यू आफ यूनिटी’ के लिए आदिवासियों का खेत-टांड़ और घर-बारी के साथ-साथ उनके धार्मिक स्थल को भी पानी में डूबो दिया गया। नर्मदा डैम के 3.2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पहाड़ी ‘टेकड़ी’, जिसे ‘वराता बाबा टेकड़ी’ कहा जाता है आदिवासियों के देवता है, जिसे आदिवासियों से छीन लिया गया है। यह सुप्रीम कोर्ट के फैसला का खुला उल्लंघन है। ‘‘ओड़िसा माईनिंग कोरपोरेशन बनाम वन व पर्यावरण मंत्रालय एवं अन्य सी स. 180 आफ 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुए स्पष्ट कहा है कि जिस तरह से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 एवं 26 के तहत दूसरों को धार्मिक आजादी है उसी तरह आदिवासियों को भी धार्मिक आजादी का मौलिक अधिकार है। इसलिए उनके धार्मिक अधिकारों की सुरक्षा और धार्मिक स्थलों का संरक्षण किया जाना चाहिए। लेकिन केन्द्र एवं राज्य सरकारों को आदिवासियों के अधिकारों से कोई सरोकार ही नहीं है इसलिए उनके अधिकारों के साथ मजाक किया गया है। आदिवासियों के धार्मिक स्थल को छीनने के लिए क्या नरेन्द्र मोदी को उनसे माफी नहीं मांगनी चाहिए?      

भूमि अधिग्रहण का विरोध करने पर आदिवासियों को विकास विरोधी होने का तामगा पहनाया जाता है लेकिन गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता भी ‘स्टैच्यू आफ यूनिटी’ परियोजना का विरोध किया है। उन्होंने आरोप लगाया है कि ‘स्टैच्यू आफ यूनिटी’ पेसा कानून 1996 का उल्लंघन कर गैर-कानूनी तरीके से बनाया गया है। पेसा कानून 1996 के अनुसार ग्रामसभा का निर्णय अंतिम होता है। लेकिन आदिवासियों के विरोध के बावजूद गुजरात सरकार ने इस परियोजना को आगे बढ़ाया। वगाड़िया गांव के अरविन्द तडवी कहते हैं कि नर्मदा डैम का पानी नहर के जरिये कच्छ पहुंचता है लेकिन आदिवासियों के 28 गांवों को पानी नहीं दी जाती है। यह आदिवासियों के साथ अन्याय है।  

इसके अलावा देशभर के 50 पर्यावरणविदों ने भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु मंत्रालय को पत्र लिखकर ‘स्टैच्यू आफ यूनिटी’ परियोजना का विरोध किया था। उनका आरोप है कि गुजरात सरकार ने इस परियोजना के लिए पर्यावरण स्वीकृति हासिल नहीं किया है। इस परियोजना से शूलपानेश्वर अभ्यरण्य एवं नर्मदा के निचला हिस्सा, जो इको सेनसिटिव जोन के रूप में चिन्हित है, प्रभावित होगा। यह परियोजना पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 एवं ईआईए अधिसूचना सितंबर 2006, एनजीटी एवं न्यायलयों के आदेशों का उल्लंघन है। लेकिन इन सारे विरोधों को दरकिनार करते हुए भाजपा सरकार ने चुनाव में भावनात्मक फायदा उठाने के लिए कांग्रेस से उनकी विरासत और आदिवासियों से उनकी जमीन छीनकर स्टैच्यू आफ यूनिटी को स्थापित किया है। क्या यह शर्मनाक नहीं है? असल में स्टैच्यू आफ यूनिटी आदिवासियों के लिए स्टैच्यू आफ डिस्ट्रक्शन एंड डिसप्लेसमेंट है। इससे हम आदिवासियों के विनाश का स्मारक भी कह सकते हैं।  

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आदिवासियों से संबंधित कार्यक्रमों के अपने भाषणों में कई बार दोहराते हुए कहा है कि उनके रहते कोई माय का लाल नहीं है जो आदिवासियों की जमीन छीन ले। लेकिन हकीकत ठीक इसके विपरीत है। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद नर्मदा डैम की उच्चाई बढ़ाने का निर्णय लिया, जिसे आदिवासियों की जमीन डूब गई। स्टैच्यू आफ यूनिटी बनाने के लिए आदिवासियों की जमीन छीनकर उन्हें मातम मनाने पर मजबूर कर दिया है। इसी तरह झारखंड के आदिवासियों की जमीन को लूटकर अडानी और वेदांता को देने की पूरजोर कोशिश की जा रही है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी भी अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्षरत हैं। इसलिए अब आदिवासियों को अपनी गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए कि चुनाव में जुमलेबाजी करने वाले नेता उनके रक्षक नहीं हो सकते हैं क्योंकि कारपोरेट घराना और इन नेताओं के बीच में एक बहुत मजबूत गांठजोड़ बन चुका है। यह गांठजोड़ जनहित, राष्ट्रहित, विकास, आर्थिक तरक्की और राष्ट्रीय एकता के नाम पर आदिवासियों को उनकी ही जमीन पर जमींदोज कर रहा है।

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