गुरुवार, 3 जनवरी 2019

असूर आदिवासियों को चिढ़ाता विकास

ग्लैडसन डुंगडुंग

झारखंड के नेतरहाट की वादियों में स्थित टुटवापानी विस्थापन विरोधी जनांदोलन का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है। इस क्षेत्र के आदिवासियों ने पिछले तीन दशक से भारतीय सेना के लिए प्रस्तावित ‘नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज’ परियोजना को रोक कर रखा है। ’’जान देंगे, जमीन नहीं देंगे’’। यही वह नारा है, जिसने सेना के आफसरों और जवानों को भयभीत कर रखा है। लेकिन विडंबना यह है कि बाक्साइट पत्थरों से भरे सैकड़ों ट्रक प्रतिदिन इसी टुटवापानी मोड़ से गुजरते हुए शहर की ओर जाते हैं। इस क्षेत्र में उरांव, मुंडा, बिरजिया, नगेशिया और असूर आदिवासी रहते हैं लेकिन ट्रकों से ढोये जा रहे बाक्साइट के अधिकांश पहाड़ असूरों के हैं। बाक्साइट के पहाड़ों को तोड़-तोड़कर और जमीन के अंदर पड़े बाक्साइट के पत्थरों को कोड़-कोड़कर बेचा जा रहा है विकास के नाम पर। टुटवापानी मोड़ से असूरों की दुनिया शुरू होती है। असूर आदिवासी यहां पठारों के उपर निवास करते हैं। 

ऐतिहासिक रूप से असूरों को यहां का प्रथम निवासी माना जाता है, जिन्होंने सबसे पहले लोहे की खोज की थी। असूरों के वंशज बताते हैं कि असूर दंपति सुकरा और सुकरी जब पत्थरों से बनाये गये चुल्हे पर खाना पकाने लगे तब आग की गर्मी से पत्थर पिघलकर लोहा बन गया। उन्होंने उस लोहा से तीर और कुल्हाड़ी बनाया। धीरे-धीरे यह पेशा का रूप लिया और असूरों की निर्भरता औजार बनाकर बेचने पर हुई। लेकिन जब टाटा जैसे कंपनी कृषि औजार बनाकर बेचने लगे तब असूरों के द्वारा बनाये गये औजारों की मांग खत्म हो गई। इसके बाद इन्होंने अपनी आजीविका को पूर्णरूप से खेती पर निर्भर बना दिया। लेकिन आज भी वे  हथौड़ा को भगवान मानकर उसकी पूजा करते हैं। पूंजीवाद के समर्थक कहते हैं कि बड़े उद्योग रोजगार देते हैं लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। कड़वा सच्च यह है कि बड़े उद्योग आदिवासियों से न सिर्फ उनकी जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधन छीनते हैं लेकिन उनका पारंपरिक रोजगार भी खत्म कर देते हैं। इस तरह से आदिवासियों को संसाधनविहीन किया जाता है।

28 दिसंबर 2018 को हम 21 लोगों का एक समूह, जिसमें शोधकर्ता, लेखक एवं एक्टिविस्ट थे, आदिवासियत को समझने के लिए जंगलों की ओर निकल पड़े थे। जब हमलोग टुटवापानी पहुंचे तब शांम के लगभग सात बज रहे थे। लेकिन इलाका में शनाटा पसरा हुआ था। यहां का तापमान रात में काफी नीचे गिर जाता है। इसलिए लोग काम का निपटाकर शांम को जल्दी ही अपना-अपना बिस्तर पकड़ लेते हैं। हमारी गाड़ी जैसे ही मुख्यसड़क को छोड़कर असूरों की दुनिया में प्रवेश करने वाली कच्ची सड़क पर उतरी, गाड़ी की लाल-पीली रोशनी में बाक्साइट के धुलकण तैरने लगे। सड़क और गड्डढ़े सामानांतर चल पड़े। सड़क पर पत्थर भी दिखाई देने लगे। ये बाक्साइट के पत्थर हैं। जब ट्रक चलते-चलते सड़कों को गडढ़ों में तब्दील कर देते हैं तब बाक्साइट के कम अंश वाले पत्थरों को इन गड्डढ़ों में डालकर सड़क बनाया जाता है। यहां प्रतिदिन सुबह चार बजे से लेकर रात दस बजे तक बाक्साइट की ढुलाई होती है। इसी से आप समझ सकते हैं कि पहाड़ों को बेचने की कितनी जल्दबाजी है। जंगल के बीच रात के अंधेरे को चीरते हुए अलग-अलग हिस्से से चार स्थानों से निकलने वाले प्रकाश और बीच में रंगबिरंगी छोटी-छोटी बल्ब की खुबशुरत प्रकाश थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दिखाई पड़ते हैं। ये असल में बाक्साइट के पहाड़ों को ढोकर जंगल से शहर की ओर जा रहे ट्रक हैं। हर शांम ऐसे ही रोशन होता है जंगल लेकिन यह असूरों को थोड़ी सी भी खुशी नहीं दे पाता।  

असूरों की दुनिया में बाक्साइट खनिज की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता उनके लिए कलंक बन गया है। उनको अपने पूर्वजों की जमीन से बेदखल होना पड़ रहा है। सरकारी दस्तावेज में असूर समुदाय को आदिम जनजाति का दर्जा दिया गया है। केन्द्र और राज्य सरकारें दावा करते हैं कि वे इनके कल्याण के लिए लगे हुए है लेकिन पिछले सात दशकों में इनका कल्याण नहीं हो पाया है बल्कि इनकी जनसंख्या निरंतर घटती जा रही है। वे अब सिमटकर सिर्फ 7783 जन बचे हुए हैं। असूरों का इलाका मूलतः गुमला, लोहरदगा, लातेहार और पलामू जिले तक फैला हुआ है। यह क्षेत्र उंचाई पर मौजूद समतल स्थल है इसलिए इसे पाट कहा जाता है। यहां अधिकांश गांवों के नाम के साथ पाट शब्द जोड़ा गया है। चारों तरफ बाक्साइट ही बाक्साइट है। लेकिन बाक्साइट खनन से उन्हें काफी नुक्शान हुआ है। सरकार, खनन कंपनियां और खनन माफिया यहां देश के संविधान और कानूनों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन करते हैं।  

रात के अंधेरे में प्रमुख कच्ची सड़क से जुड़े प्रत्येक गांव का सड़क एक ही तरह के दिखाई पड़ते हैं क्योंकि इनमें ट्रक, ट्रैक्टर और धरती कोड़ मशीनों के अवागमन के निशान हैं। गांव का रास्ता दिखाने के लिए असूर दंपति हमारे साथ हैं लेकिन हमलोग जंगल में दिशाहीन होकर एक घाटी पर पहुंच जाते हैं। हमें भटकाने के जिम्मेवार ट्रक और धरती कोड़ मशीन हैं असूर दंपति नहीं। ये असूर दंपति यहां आखिरी बार कुछ एक साल पहले आये थे तब स्थिति कुछ अलग थी। बाक्साइट उत्खनन के कारण आज उन्हें भी अपना इलाका पहचानने में काफी कठिनाई हो रही है। अंततः आठ बजे रात को हमलोग चैरापाट पहुंचते हैं। यह असूरों का गांव था लेकिन अब यह मुंडा बहुल हैं। लोहे की खोज में अधिकांश असूर परिवार यहां से कहीं और चले गये। हालांकि विद्यालय में काफी संख्या में असूर बच्चियां अब भी शिक्षा ग्रहण कर रही हैं, जो आस-पास के गांवों के हैं। लंबी यात्रा के कारण सभी लोग थककर चूर हो गए है। इसलिए खीचड़ी भात खाकर सो जाते हैं।

अगले दिन, आवासीय विद्यालय के टूटे खिड़की से तीर की तरह प्रवेश कर रहा सूर्य की रोशनी हमें बता रहा है कि काफी पहले ही सुबह हो चुकी है। विद्यालय का पहरेदार पांच बजे ही नहाधोकर तैयार है हमें जंगलों और पहाड़ों के बीच झरने के पास ले जाने के लिए। बिस्तर पर पड़े हुए आंख खोलते ही खंडहर के अंदर होने का एहसास होता है। खिड़कियां टूटे हुए हैं। बरसात में पानी टपकने के निशान स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। कई जगहों पर छट का भीतरी हिस्सा टूटकर गिरा है। आवासीय विद्यालय में वर्ग आठ तक की 88 बच्चियां रहती हैं। वे छुट्टिया मनाने अपने-अपने घर गये हुए हैं। 

विद्यालय परिसर के अंदर मौजूद चपाकल में पानी नहीं निकलता है और पानी टंकी में कभी पानी नहीं आया। विद्यालय के देखभाल का जिम्मा संभालने वाले मेलन असूर बताते हैं कि पानी की टंकी सिर्फ लोगों को दिखाने के लिए बनाया गया है। यहां सिर्फ दो शौचालय हैं लेकिन उपयोग लायक नहीं। ये बच्चियां सुबह-सुबह शौच करने के लिए जंगल जाती हैं। झरना में नहाती हैं, कपड़े धोती हैं और उसी झरना के पानी को पीती भी हैं। यहां स्वच्छ भारत अभियान का नमोनिशानी नहीं है। लकड़ी के जलावन से खाना पकाया जाता है इसलिए कई कमरे में सखुआ की लकड़ी भर दी गई है। विद्यालय के चारो तरफ लगभग आठ-दस सोलर लाईट लगाये गये हं, लेकिन बैट्री के अभाव में ये सिर्फ शोभा बढ़ाने का काम कर रहे हैं। कक्षा एक से आठ तक के बच्चियों को पढ़ाने के लिए सिर्फ तीन सरकारी शिक्षक हैं। इसे आसानी से समझा जा सकता है कि इन बच्चियों का भविष्य कैसे गढ़ा जा रहा है। 

विद्यालय कैम्पस से बाहर निकलते ही इलाका लाल दिखाई पड़ता है। विद्यालय के पास बाक्साइट खनन कार्यालय है, जहां ट्रक और धरती कोड़ मशीन खड़े हैं लेकिन कंपनी का कोई साईनबार्ड नहीं है। यह पहला इशारा है कि यहां सबकुछ अच्छा नहीं है। अमूमन खनन लीज मिलते ही खनन कंपनियां सबसे पहले अपना साईनबोर्ड गाड़कर घोषणा कर देते हैं कि यह इलाका उनका है। यहां की बेनामी कंपनियां ऐसे नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें पकड़ाने का डर सताता है। थोड़ा आगे बढ़ने पर जंगल दिखाई पड़ते हैं और जंगल के बीच-बीच में बाक्साइट निकलने के लिए खुदाई की गई गड्डढ़े और लाल मिट्टी। ऐसा दिखाई पड़ता है मानो कोई रात में आकर बाक्साइट चुराकर भाग गया हो। गांव के लोग इसका राज खोलते हैं। यहां दो तरह का खनन होता है एक कानूनी और दूसरा गैर-कानूनी। इस क्षेत्र में अदित्या बिड़ला की बाक्साइट कंपनी ‘हिंडल्को’ सरकार से लीज लेकर खनन कार्य कर रही है। हिंडल्को बाक्साइट की सबसे बड़ी उत्खनन कंपनी है, जो प्रतिवर्ष 2.23 मिलियन टन बाक्साइट का उत्खनन करती है। लेकिन कई निजी बेनामी कंपनियां गैर-कानूनी तरीके से खनन कार्य कर रहे हैं। 
चैरापाट में आदिवासियों की रैयती जमीन और जंगलों के बीच-बीच में खोद-खोदकर बाक्साइट निकाला गया है और अब उत्खनन का काम जंगल में चल रहा है। इसके लिए बेनामी कंपनियों के पास एक छोटा सा कार्यालय, कई ट्रक और धरती कोड़ मशीन हैं। इन्होंने बड़ी चलाकी से स्थानीय युवाओं को अपने जाल में फंसा कर रखा है। ये कंपनियां स्थानीय युवाओं को ठेकेदार के रूप में खड़ा किये हुए हैं, जिनका काम बाक्साइट खनन हेतु रैयतों को जमीन देने के लिए तैयार करना होता है। इसके बदले में कंपनी इन्हें प्रति ट्रक 1500 रूपये देती है तथा जमीन मालिक को 200 रूपये। ये बेनामी कंपनियां कच्चा माल को हिंडल्को जैसी कानूनी लीजधारियों को 9500 रूपये प्रति ट्रक की दर से बाक्साइट बेचते हैं। यदि जमीन मालिक, स्थानीय ठेकेदार, मजदूर, ढुलाई एवं आफसर व नक्सली लेवी के खर्च को अलग कर दिया जाये तो ये बेनामी कंपनी के मालिक प्रति ट्रक कम से कम 5000 रूपये कमाते हैं। ये बेनामी कंपनियां वन संरक्षण कानून 1980, वन अधिकार कानून 2006 एवं पेसा कानून 1996 के तहत अनुमति लिये बगैर ही खनन कार्य कर रहे हैं। यह संविधान की पांचवीं अनुसूची के प्रावधान, वन संरक्षण कानून 1980, वन अधिकार कानून 2006 एवं पेसा कानून 1996 तथा सुप्रीम कोर्ट के समता एवं नियमगिरि जजमेंट का उल्लंघन है। यहां ग्रामसभा से अनुमति लेने की जरूरत नहीं होती है। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? क्या गांव वाले सवाल नहीं उठाते हैं? क्या बड़े पैमाने पर हो रहे गैर-कानूनी उत्खनन के बारे में सरकार को नहीं पता? इनमें से कुछ सवालों का जवाब हमें बहुत जल्द ही मिल जाता।   

गांव वाले बताते हैं कि 25 दिसंबर 2018 की रात यानी हमारे गांव पहुंचने से सिर्फ तीन दिन पहले ग्यारह माओवादी लड़ाके विद्यालय के पास स्थित खनन कंपनी के दफ्तर में पहुंचे थे। उनके लिए देसी मुर्गा पकाया गया था। वे खाना खाने के बाद निकल पड़े। गांव वालों ने हमें बताया कि वे पास के ही जंगल में हैं और हमारे मौजूदगी के बारे में उनको खबर मिल चुकी है। यदि हम उनके लिए खतरा पैदा करेंगे तो वे हमारे उपर हमला करेंगे। जब खनन माफिया और मोआवादियों के बीच इस तरह का गांठजोड़ हो तो कौन व्यक्ति या ग्रामसभा उनके खिलाफ आवाज उठा सकता है? क्या आवाज उठाने वालों को सरकार संरक्षण दे पायेगी? माओवादियों को आदिवासियों का मसीहा बताने वाले बौद्धिक जगत के लोगों के लिए यह एक तमाचा है। ये माओवादी यहां सड़क बनाने नहीं दे रहे हैं। इसलिए असूर आदिवासियों को 20 से 25 किलोमीटर की दूरी बाक्साइट पत्थरों से मुठभेड़ करते हुए गुजरना पड़ता है। माओवादियों को लगता है कि सड़क बनते ही खनन माफिया के साथ उनका गांठजोड़ टूट सकता है। पुलिस कभी भी यहां पहुंच सकती है। उनका सुरक्षित स्वर्ग असुरक्षित हो जायेगा। यहां माओवादियों ने बाक्साइट उत्खनन को उगाही का जड़िया बना दिया है। वे अब गांव के आदिवासियों के साथ बैठक नहीं करते हैं बल्कि उनकी बैठक खनन माफिया के साथ होती है। अब आप ही समझ लीजिये के वे किनके लिए लड़ रहे हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि वे असूरों के लिए नहीं लड़ रहे हैं बल्कि अपना पाकेट भर रहे हैं और पूंजीपतियों का भला कर रहे हैं।

अब गांव के आदिवासियों की आजीविका पर सवाल खड़ा हो गया है क्योंकि खेती लायक टांड को बाक्साइट उत्खननकर बर्बाद कर दिया गया है। अभी जंगलों के बीच और छोटे-छोटे टिल्हों पर खुदाई की जा रही है। लेकिन जब खेतों की खुदाई की जायेगी तब लोग क्या करेंगे? एक बार खुदाई हो गई तो खेत खेती करने लायक नहीं रह जायेंगे और प्रति ट्रक मिले 200 रूपये से कितना दिन जिन्दा रहा जा सकता है? यहां के आदिवासी पूर्णरूप से खेती पर ही निर्भर हैं। खेतों में धान के कटे तने और लकड़ी से बनाये गये मचान में मवेशियों के लिए सुरक्षित रखा गया पुआल इस बात के सबूत हैं कि इस वर्ष यहां धान की फसल अच्छी हुई है। यहां के आदिवासी खेती से खुश हैं। अपने दहिने हाथ के अंगली से इशारा करते हुए मेलन असूर बताते हैं कि यदि इन खेतों में बाक्साइट उत्खनन शुरू होता है तो यहां के आदिवासियों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। इन आदिवासियों के अस्तित्व के बारे में किनको चिंता है? लेकिन हकीकत में यहां कोई भी सुरक्षित नहीं है। आदिवासी, जंगल--पहाड़, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और नदी-झरना सभी का अस्तित्व दांव पर लगा हुआ है। आदिवासी खनन कंपनियों के द्वारा जंगल, पहाड़ और जमीन से अलग कर दिये गये पत्थरों को बारी का घेरा बनाकर अपनापन का एहसास कराते हैं। 

गांव के बीच घरों से गुजरते हुए आदिवासी बच्चों के मन में बन रही तस्वीर उभर आती है। अब इन बच्चों के चित्रकला में फल-फूल, पेड़-पौधे और पशु-पक्षी गायब हो चुके हैं। यहां प्रत्येक घर के दिवारों पर बाक्साइट से लदे ट्रक और धरती कोड़ मशीनों की तस्वीर भरी पड़ी है। मन में सवाल उठता है कि क्या अब ये बच्चे अपना भविष्य जमीन को बचाने के बजाय उसे कोड़कर बाक्साइट के रूप में वहां छिपे खजाना को बेचकर पैसा कमाने में देख रहे हैं? मैं सोचता हॅं कि इस क्षेत्र के विद्यालयों में शिक्षक बच्चों को पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को लेकर क्या पढ़ाते होंगे? क्या वे कभी बाक्साइट उत्खनन का पर्यावरण पर प्रभाव को लेकर बात करते हैं?

हमलोग बाक्साइट के पत्थरों से टकराकर गांव के नीचे ठंढ़ से ठिठुरते हुए झरना के पास पहुंचते हैं। बाक्साइट के पहाड़ों से निकलते हुए झरना का पानी खेतों की ओर बहते हुए नदी में मिल जाती है। नदी का पानी काफी ठंढ़ है। सूखी घास पर पडे ओस के बूंदें बर्फ में तब्दील होकर पूरे इलाके को सफेद चादर की तरह ढाक दिये हैं। नदी का पानी छूने भर से बिजली के करेंट की तरह झटका देते हैं।  गांव के आदिवासी पास के जंगल में शौच करने के लिए जाते हैं और इसी पानी का उपयोग करते हैं।  हम भी उनका ही अनुशरण करते हैं। यहां गांव में किसी के घर में शौचालय नहीं है। हालांकि झारखंड सरकार ने बिशुनपुर प्रखंड को खुले में शौच मुक्त प्रखंड के रूप में घोषित कर दिया है। गांव के लोग कहते हैं कि शौचालय बनाने से भी नीचे से पानी ढ़ोकर कौन यहां लायेगा। खाना बनाने और पीने के लिए लाना ही काफी है। हमारे साथियों को खुल्ले में शौच करते वक्त तस्वीर लेने की मनाही है क्योंकि ये तस्वीर राजसत्ता को असाहय कर सकते हैं और भारतीय मीडिया हमें मोदी विरोधी गैंग साबित करने में अपना वक्त बर्बाद कर सकती है। गांव के आदिवासी बच्चियां और महिलाएं झरना  के पानी में बर्तन धोती हैं और बाक्साइट को गलाकर बनाये गये अल्मुनियम के बर्तन में भरकर खाना बनाने और पीने के लिए सिर में ढोकर ले जाती हैं। इस पानी में काफी मात्रा में मिनरल है। 

इस इलाके में कोई अस्पाताल नहीं है। गांव के लोग बताते हैं कि बीमार पड़ने पर वे बिशनपुर जाते हैं जो गांव से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, जहां जाने के लिए आवागमन की कोई सुविधान नहीं है। इसलिए लोग बाक्साइट के ट्रकों को ही भाड़ा देकर बस की तरह इस्तेमाल करते हैं। यह ट्रक चालाक और सह-चालाक के उपरी अमदनी का बड़ा स्रोत है। मेलन असूर बताते हैं आवासीय विद्यालय के बच्चे बीमार पड़ते है तो उन्हें उनके माता-पिता को सौप दिया जाता है क्योंकि यहां इलाज की कोई व्यवस्था नहीं है। सरकारी अस्पताल 40 से 50 मिलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। खनन कंपनियों को विद्यालय या अस्पताल चलाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। यदि यहां के आदिवासी बाक्साइट पहाड़ों को लादकर ले जाने वाले ट्रकों को रोकते तब उन्हें अपना सामाजिक दायित्व याद आती और वे विद्यालय एवं अस्पताल खोलने का प्रयास करते। लेकिन इन ट्रकों को रोकने की कोई साहस नहीं करता है। इस क्षेत्र में पांच सरकारी आवासीय विद्यालय हैं, जिनमें लड़कों के लिए तीन एवं लड़कियों के लिए दो है। लड़कों के विद्यालयों में छात्रों के लिए संख्या भी ज्यादा निर्धारित किया गया है। यह बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओं का नारा देने वाली सरकार के द्वारा लिंगभेद का एक अद्भूत नमूना है। आवासीय विद्यालय, जोभीपाट में प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत हुए चैत असूर बताते हैं कि इन विद्यालयों में शिक्षकों की भारी कमी है, शौचालय की व्यवस्था नहीं है और विद्यालय भवन जर्जर हालत में हैं। वे कहते हैं, ‘‘सिर्फ कागज में ही सबकुछ अच्छा है।’’ 

गांव में बिजली के पोल गाड़े गये हैं और कुछ पोलों को बिजली के तारों से एक-दूसरों को जोड़ा गया है लेकिन कई पोलों के बीच तार टूटे हुए हैं। झारखंड सरकार ने पहले ही घोषणा कर दिया है कि उसने राज्य के प्रत्येक गांव में बिजली पहुंचा दिया है। भारत के आजादी के 70 साल बाद गांवों में बिजली पहुंचाने की खबरे अखबरों में सुर्खियां बनी सो बनी लेकिन राज्य सरकार ने विज्ञापन में करोड़ों रूपये खर्च कर अखबार और टीवी चैनलों के माध्यम से वोटरों को बताया कि झारखंड के प्रत्येक गांव में बिजली पहुंच दी गई है। अब कौन सा अखबार और टीवी चैनल वाले सच जांचने के लिए गांव जाते हैं? असल में सरकारी विज्ञापन मीडिया घरानों को दिया गया एक तरह का सरकारी रिश्वत है ताकि वे सच्चाई को छुपाकर रखें और सिर्फ विकास का ढोल पीटते रहें। लेकिन सच्चाई को कबतक छुपाया जा सकता है? 
       
आदिवासियत को समझने के लिए जंगल, खेत और जलस्रोतों के पास चिंतन करने, विकास के नामपर बाक्साइट पहाड़ों की लूट का गवाह बनने और गांव के विकास की हकीकत देखने के बाद अगले दिन हमलोग असूरों की दुनियां को छोड़कर लौटने लगे। ट्रकों के आवागमन से सड़क लाल दिखाई देने लगा। नियमतः सड़क पर पानी डालना है ताकि धूलकण हवा में न उड़े लेकिन यहां नियम लागू करने वाले ही नियमों को तोड़ते हैं। बाक्साइट के धूलकण से सखुआ के हरे पत्ते लालरंग में तब्दील हो गए हैं। ये धुलकंण हवा के द्वारा मनुष्य और जानवरों के फेफड़ों में जमा हो रहे हैं। यहां मनुष्य, पशु-पक्षी और पेड़-पौधे सभी सांस लेने की परेशानियों को झेल रहे हैं। हमलोग टुटवामोड़ पहुंचते हैं। मन में प्रश्न उठता है कि शक्तिशाली भारतीय सेना की टुकड़ी को इसी मोड़ से कई बार वापस भेजने वाली आदिवासियों की शक्ति, बाक्साइट लदे ट्रको को रोकने में असफल क्यों है? कई दशकों से बाक्साइट के पहाड़ों को बेचने वाली सरकार और निजी कंपनियां यहां के आदिवासी, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों के बारे में क्यों नहीं सोचते हैं? क्या पहाड़ों को बेचना ही विकास है? क्या खेती की जमीन को खंडहरों में तब्दील करना विकास हैं? क्या यह विकास असूर आदिवासियों को नहीं चिढ़ा रहा है? 

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