बुधवार, 14 अगस्त 2019

आजादी का पहला योद्धा

ग्लैडसन डुंगडुंग

‘जमीन हमें भगवान ने दिया है, सरकार बीच में कहां से आयी? हम सरकार को अपनी जमीन का लगान नहीं देंगे।’ ये साहसिक शब्द उस शख्स के हैं, जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सबसे पहले क्रांति का बिगुल फंका था। उस शक्स का नाम है बाबा तिलका मांझी। हैरानी की बात यह है कि जिस शख्स की प्रतिमा देश के हर कोने में होना चाहिए था उन्हें आजाद भारत के इतिहास में गौन कर दिया गया है। यही वजह है कि आज उन्हें बहुत कम लोग जानते हैं। आज के युवा उनसे बिल्कुल अनभिज्ञा हैं। पेररणा के इतने बड़े श्रोत को छिपा दिया गया है जबकि आजादी के योद्धाओं के बीच यदि तुलनात्मक विश्लेषण किया जाये तो निश्चित तौर पर बाबा तिलका मांझी पहली पंक्ति में होंगे। शायद, उनका गुनाह सिर्फ इतना था कि वे आदिवासी समुदाय में जन्म लिये थे। फलस्वरूप, तथाकथित मुख्यधारा के इतिहासकारों ने उन्हें आजादी के इतिहास में उन्हें जगह नहीं दिया।   

निःसंदेह, बाबा तिलका मांझी आदिवासी योद्धा थे। लेकिन उनके पहाड़िया और संताल होने पर भी विवाद है। पहाड़िया आदिवासी उन्हें अपना नेता बताते हैं। वे कहते हैं कि पहाड़िया नेता जबरा पहाड़िया ही तिलका मांझी के रूप में स्थापित हैं। वहीं संताल आदिवासी उन्हें अपने समुदाय का नेता करार देते हैं। वे कहते हैं कि संताली लोक गीतों में बाबा तिलका मांझी का जिक्र हैं। इन दावों के इतर तथ्य यह है कि संताल आदिवासी वर्तमान संताल परगना जो उस समय ‘दामिन-इ-कोह’ एवं ‘राजमहल’ के रूप में जाना जाता था, उस इलाके में 1790 से 1810 के मध्य में वीरभूम के उत्तरी मार्ग से आये और बसे। आदिवासी इतिहासकार बताते हैं कि बाबा तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी 1750 को तिलकपुर नामक गांव में हुआ था। उन्होंने 1772 से 1784 तक ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पहाड़िया विद्रोह का नेतृत्व किया। इससे स्पष्ट होता है कि बाबा तिलका मांझी पहाड़िया आदिवासी समुदाय से थे। 

मैं यहां बाबा तिलका मांझी के कार्यों पर चर्चा करना चाहता हॅं, जिसमें उनकी महानता झलकती है। बाबा तिलका मांझी की महानता इस बात से पता चलता है कि उन्होंने 13 जनवरी 1784 को ताड़ के पेड़ पर चढ़कर तीर-धनुष से भागलपुर के कलक्टर अगस्टिन क्लीवलैंड को मार गिराया था। तीर का प्रहर इतना खतरनाक था कि कलक्टर साहब की वहीं मृत्यु हो गई थी। यहां बाबा तिलका मांझी का साहस, जज्बा और जुनून देखने लायक है। कलक्टर साहब बाबा तिलका मांझी को पकड़ना या मुठभेड़ मं मार गिराना चाहते थे। वे घोड़ा से घुमघुमकर उनकी खोज में जुटे हुए थे। बाबा तिलका मांझी छुपने के बजाय कलक्टर साहक को ही मार गिराया। बाबा तिलका मांझी के पास अपनी सेना थी लेकिन उन्होंने अकेले ही कलटकर साहब से भिड़ गये। हालांकि 1785 में ब्रिटिश शासक वारेन हेस्टिंग्स की अगवाई में बाबा तिलका मांझी को पकड़ लिया गया तथा उन्हें भागलपुर ले जाकर चार घोड़ों के पीछे मोटी रस्सियों से बांधकर पूरे टाउन में सारे आम घसीटा गया उसके बाद उन्हं बरगद के पेड़ पर फांसी दी दी गयी। निश्चितरूप से यह बाबा तिलका मांझी के महानता को दर्शाता है।
  
हमें यह भी समझना चाहिए कि ऐसी परिस्थिति क्यों उत्पन्न हुई? 22 अक्टूबर 1764 को बाक्सर की लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने मुगल बदशाहों की संयुक्त सेना हो हरा दिया। फलस्वरूप, 16 अगस्त 1765 की इलाहाबाद संधि के तहत कंपनी को बंगाल, बिहार एवं ओड़िसा की दीवानी अधिकार मिल गई। इस तरह से भारत में ब्रिटिश हुकूमत की शुरूआत हुई। 1769 में छोटानागपुर एवं संताल परगना को भी इसमें जोड़ दिया गया। इसी बीच 1770 में भयांकर सूखा पड़ा, जिसे भूखमरी की स्थिति पैदा हो गई। फिर भी ब्रिटिश हुकूमत ने जमीन की बंदोबस्ती जारी रखी और रैयतों से जमीन का लगान मांगा। पहाड़िया आदिवासियों ने इसका विरोध करना शुरू किया। इस तरह से 1772 में पहाड़िया विद्रोह की शुरूआत हो गई जो 1785 तक चला। यही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पहला सुनियोजित आंदोलन था। क्या इतिहासकारों को आजादी के इन महान योद्धाओं के साथ ऐसा अन्याय करना चाहिए था?   

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