- ग्लैडसन डुंगडुंग -
वर्ष 2008 में ब्रिटिश बैंकिंग कंपनी ‘एक्सीक्यूशन नाॅबल लिमिटेड’ द्वारा इस बात का खुलासा करने के बाद कि देश के लालगलियारे में 80 बिलियन डाॅलर का व्यापार माओवादियों की वजह से रूका हुआ है, अक्टूबर, 2009 में भारत सरकार ने देश के 9 राज्यों की सरकारों के साथ मिलकर माओवादियों के खिलाफ अघोषित युद्ध छेड़ दिया, जिसे ‘आॅपरेशन ग्रीनहंट’ नाम दिया गया था। देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने उस समय संसद में कहा था कि माओवाद देश के आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है, जिससे देश में विनिवेश का परिवेश प्रभावित हो सकता है। इसके बाद लालगलियारे में शांति स्थापित करने के नाम पर लगभग 2 लाख अर्द्धसैनिक बलों के जवानों को मोर्चा पर लगा गया। और जब नागरिक संगठनों ने इसका मूल मकसद प्रकृति संसाधनों की वैश्विक लूट बताकर इसके खिलाफ हल्ला बोला तो बाद में इस अभियान में बंदूक के साथ विकास गतिविधियों को ठीक उसी तरह जोड़कर उन्हें शांत कर दिया गया जैसे भौंकते कुत्तों को हड्डी देकर शांत कर दी जाती है। असल में यह बिना लाठी तोड़े ही सांप को मारने की सरकारी रणनीति थी। लेकिन ऐसा लगता है कि बंदूक और विकास का अजब-गजब गांठजोड़ बनाने के बाद भी सरकार को सफलता हाथ नहीं लगी और हम जहां थे वहीं हैं।
लालगलियारे का दौरा तो यही एहसास दिलाता है कि शांति के बजाये आज भी वहां भय, दहशत और आतंक का महौल कायम है। नक्सली होने के आरोप में निर्दोष व्यक्तियों की हत्या, बलात्कार, यातना, फर्जी मुकदमा और उन्हें जेल भेजने का सिलसिला जारी है लेकिन माओवादियों को कोई खास क्षति हुई प्रतीत नहीं होती है। वहीं दूसरी ओर नागरिकों के सुरक्षा हेतु तैनात किये गये सुरक्षा बल के जवान, आम लोगों से ज्यादा असुरक्षित, भयभीत और आतंकित दिखाई देते हैं। मैं इस बात को दावे के साथ इसलिए कह सकता हूँ क्योंकि लालगलियारे में स्थित पुलिस थाने और अर्द्धसैनिक बलों के कैंप ईट-सीमेंट की चाहरदीवारी के साथ कांटीले तारों से घिरे पड़े हैं और गेट अंदर से बंद रहता हैं, डयूटी में लगाये गये बंदूकधारी जवान बैरिकेट खोलने की हिम्मत तक नहीं जुटाते और गाड़ियों की जांच करते समय पूरी तरह भयभीत नजर आते हैं। ऐसा लगता है कि मानो नागरिकों से ज्यादा सुरक्षा की जरूरत हमारे बंदूकधारी जवानों को है। ऐसे सुरक्षा बलों से आप अपनी सुरक्षा की क्या उम्मीद कर सकते हैं? क्या ऐसे भयभीत सुरक्षा बलों के बदौलत कोई राज्य माओवादियों के खिलाफ युद्ध जीतने का सपना देख सकता है? ये बंदूकधारी जवान निर्दोष ग्रामीणों को भयभीत करने और क्षेत्र में आतंक फैलाने के अलावा कर भी क्या रहे हैं?
विगत दिनों लालगलियारे का दौरा करते समय मेरे मन में कई प्रश्न बार-बार उठ रहे थे कि आधुनिक हाथियारों से लैस पुलिस व अर्द्धसैनिक बल, माओवादियों के खिलाफ युद्ध क्यों नहीं जीत पा रहे हैं? पुलिस आधुनिकीकरण के लिए खर्च किये गये अरबों रूपये का क्या परिणाम निकला है? और समाज का अंतिम व्यक्ति कब यह महसूस करेगा कि लोकतंत्र के स्तंभ उसके सुरक्षा के लिए भी खड़े हैं? केन्द्र सरकार दावा करती है कि माओवादियों को खदेड़ कर सारंडा जंगल जैसे माओवादियों के ‘लिबरेटेड जाॅन’ को पुनः कब्जा कर लिया गया है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय यह भी दावा करती है कि मार्च 2008 से लेकर 2013 तक 11,088 नक्सलियों को गिरफ्तार किया गया है। लेकिन साथ ही यह आॅकड़ा गंभीर सवाल भी खड़ा करता है क्योंकि खुफिया विभाग की माने तो देश में लगभग 20,000 माओवादी लड़ाकू गुरिल्ल थे, जिसमें 2138 मारे जा चुके हैं और 1758 लोगों ने हथियार डाल दिया है। इसका मतलब यह है कि लगभग 15,000 माओवादी लड़ाके सरकार के हाथ में आ चुके हैं। इस तरह से अब मात्र 5000 माओवादी गुरिला ही सरकार के खिलाफ 9 राज्यों में युद्ध लड़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में यहां लाख टक्के का सवाल यह है कि क्या इतनी शक्तिशाली सरकार के खिलाफ इतने कम लोग बंदूक के बल पर युद्ध लड़ सकते हैं? क्या हमारा खुफियातंत्र फेल है या सरकारी आॅकड़े में निर्दोष लोग शामिल हैं?
हमें यह भी समझना होगा कि आखिर माओवादियों के ताकत का आधार क्या है, जो इतनी शक्तिशाली सरकार को चुनौती दे रहे है? यह विवादहीन सत्य है कि सरकार का फेल होना ही माओवादियों की सबसे बड़ी ताकत है, जिसके बदौलत वे आदिवासी, दलित और गरीब तबके के लोगों को अपने पक्ष में करने में सफल हुए हैं। वहीं सैन्य अभियान की असफलता से खीजकर जवानों द्वारा निर्दोष व्यक्ति की हत्या, बलात्कार और प्रताड़ना ने आमजनों में सरकार के खिलाफ गुस्से को उफान पर ला दिया है। और जिस तरह से सरकार लोगों की आजीविका के संसाधनों को उनसे छिनकर विकास व आर्थिक तरक्की के नाम पर पूंजीपतियों को सौपने की कवायद में जुटी है, आग में घी डालने का काम कर रहा हैं वहीं अपने मुनाफा के लिए माईनिंग कंपनियों का धन और हाथियार से सहयोग उनको ताकतवर बना रहा। यह भी कठोर सत्य है कि लोकतंत्र का दरवाजा आमजनों के लिए बंद होने से न चाहते हुए भी लोग माओवादी आंदोलन से जुड़ रहे है और उनके खुफियातंत्र की मजबूती भी इसी का परिणाम हैं। ऐसी स्थिति में जबतक आम लोग सरकार के साथ नहीं होंगे, माओवादी कभी युद्ध नहीं हार सकते हैं।
हम माओवादी लड़ाकू और सुरक्षा बलों को होने वाले खतरों पर भी बात करेंगे तो सामने यही निकल कर आयेगा कि माओवादी लड़ाके हमारे सुरक्षा बल के जवानों से ज्यादा खतरे में रहते हैं। वे जंगलों में घुमते हैं जहां कभी भी सुरक्षा बल उन्हें मार गिरा सकते हैं, जंगल में मच्छड़ों का हमला है सो अलग, रहने के लिए उनका कोई ठिकाना नहीं, बीमार पड़ने पर इलाज कराने में भी पकड़े जाने का डर और खाने-पीने के लिए भी इतनी अच्छी व्यवस्था नहीं। उनके सामाजिक सुरक्षा की बात करें तो एक माओवादी गुरिल्ला को सिर्फ परिवार चलाने के लिए कुछ पैसे मिलते हैं और अगर वह मारा जाता है तो उसे शहीद घोषित करने के अलावे उसके परिवार को कुछ भी नसीब नहीं होता है। बावजूद इसके वे अपनी जान पर खेलकर अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संघर्ष जारी रखते हैं। जबकि वहीं दूसरी ओर हमारे बंदूकधारी जवानों के लिए सामाजिक सुरक्षा, उनके परिवार को नौकरी, मुआवजा और क्या नहीं मिलता है? फिर भी उनमें वो जज्बा, जुनून और हिम्मत नहीं दिखाई देता हंै जो एक माओवादी गुरिल्ल में मौजूद है। सवाल यह है कि हम में अपने उतरदायित्व के प्रति सजगता कब आयेगी?
हमें युद्ध रणनीति पर भी बात करनी होगी। इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी युद्ध में दुश्मन को अपने ताकत का एहसास दिलाने का सबसे बड़ा तरीका है उसके घर में घुसकर हमला करना और माओवादी इसका बाखूबी उपयोग करते हैं, जबकि हमारे सुरक्षा बल अपने कैंपों से बाहर जाने की हिम्मत नहीं करते हैं। लालगलियारा में माओवादियों ने बारूहातु सहित कई ऐसे घटनाओं को अंजाम दिया है, जो सुरक्षा बलों के कैंप से मात्र 200 से 300 मीटर की दूरी पर स्थित है, बावजूद इसके हमारे बंदूकधारी जवान घटना स्थल पर 2 घंटे बाद पहुंचे। और अक्सर यही सुनने को मिलता है कि हमारे बंदूकधारी जवान घटना स्थल पर माओवादियों के चले जाने के बाद ही पहुंचते हैं। क्या हम माओवादियों के खिलाफ ऐसा युद्ध लड़ रहे हैं? लालगलियारे में यह आम चर्चा है कि सुरक्षा बलों के कैंपों के प्रवेश द्वार के पास भी बिस्फोट करने से जवान भय से बाहर नहीं निकलते हैं।
टेलिविजन चैनलों में यह अक्सर देखने को मिलता है कि 5 शेरों का एक झुंड 100 से ज्यादा ताकतवर वनभैंसों को न सिर्फ पराजित कर देता है बल्कि उन्हें अपना शिकार भी बना लेता है। ऐसा क्यों हैं? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि शेर शारीरिक रूप से शक्तिशाली और फुर्तिले होने के साथ-साथ मानसिक रूप से काफी बुलंद होते हैं, जबकि वनभैंसा शारीरिक रूप से विशाल और ताकतवर तो हैं लेकिन मानसिक रूप से शेरों से कमजोर हैं। इसलिए शेरों को देखते ही वे भयभीत हो जाते हैं। माओवादी और अर्द्धसैनिक बलों के बीच चल रहे युद्ध का भी लगभग यही हाल है। माओवादी मानसिक रूप से ताकतवर हैं जबकि सैन्य शक्ति उनकी कमजोर है। वहीं हमारे अर्द्धसैनिक बलों का मनोबल टूट चुका है जबकि उनकी सैन्य शक्ति जबर्दस्त है। मैं यह बात इसलिए कह रहा हॅंू क्योंकि जबतक हम अपने कमजोरियों से मुक्त नहीं होंगे, माओवादियों के खिलाफ गुरिला युद्ध नहीं जीत सकते हैं। यह मानोवैज्ञानिक सत्य है कि मानसिक रूप से हरा हुआ व्यक्ति शरीरिक रूप से कभी नहीं जीत सकता है। और सच यही है कि हमारे बंदूकधारी जवान माओवादियों के खिलाफ मानसिक रूप से युद्ध हार चुके हैं इसलिए हमें अपने रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए।
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