बुधवार, 19 नवंबर 2014

पानी पीने की सजा बाईस टांके

- ग्लैडसन डुंगडुंग -

सुबह के सात बज रहे थे। सूर्य की रोशनी सखुआ के उंचे-उंचे पेड़ों को चीरते हुए धान की पीली पतियों पर पड़ रही थी, झाड़ियों में फूदक-फूदक कर चिड़िया चहचहा रहीं थीं और गांव के लोग अपने खेतों में जाने की तैयारी में जुटे थे। लालगलियारा में रात गुजरने के बाद हमारी टीम भी वापस लौटने के लिए चारपहिया वाहन पर सवार हो गई। गाड़ी चल पड़ी और थोड़ी ही देर के बाद हम लोग गाडी नामक गांव पहुंचे, जो झारखंड के लातेहार जिलान्तर्गत बरवाडीह थाना क्षेत्र में स्थित है। हमने देखा कि एक 40 वर्षीय व्यक्ति सड़क से सटे अपने घर के चबुतरा पर उदास बैठा हुआ था। वह व्यक्ति कोई और नहीं अपितु नागेन्द्र सिंह नामक चेरो आदिवासी था, जिसके सिर पर बाईस टांके पड़े थे, जो उन्हें बेतला अभयारण के पास स्थापित पुलिस पिकेट के पास स्थित चपाकल में पानी पीने की सजा के रूप में मिला था। क्या हम यह कल्पना भी कर सकते हैं कि एक आजाद देश में किसी व्यक्ति को सिर्फ पानी पीने की इतनी बड़ी सजा मिले?  

यह सोचकर हम स्तब्ध थे, शरीर सिहर उठा और हमें गुस्सा भी आने लगा था। बेशक यह निंदनीय और शर्मनाक घटना थी। हमने नागेन्द्र से पूरी घटना सुनने का मन बनाया इसलिए उसके साथ चबुतरा पर बैठ गये। हालांकि शुरू में नागेन्द्र चैंक गये कि हम कौन है जो उनके दुःख, दर्द और पीड़ा को जानने चाहते हैं? उनको इसलिए भी हम पर विश्वास नहीं हो रहा था क्योंकि वे जिन्हें वोट देते हैं उनके पास उनका दुःख, दर्द और पीड़ा सुनने के लिए समय नहीं है। एक बार चुनाव जीतने के बाद जनप्रतिनिधि उनके क्षेत्र में झांकने भी नहीं जाते। उन्हें यह डर भी सता रहा था कि उनको अपनी आपबीती बताना कहीं महंगा तो नहीं पड़ेगा? लेकिन उनको पूरा विश्वास दिलाने के बाद उन्होंने अपनी आपबीती बतायी जो काफी भयावह है।  

नगेन्द्र बेतला अभयारण में एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में कार्यरत है। उन्हें प्रतिदिन 177 रूपये मजदूरी मिलती है, जिसे वे अपना परिवार चलाते हैं । उनके परिवार में उनकी पत्नी 30 वर्षीय गीता के अलावा 9 वर्षीय बेटी दुर्गीवती एवं 7 वर्ष का बेटा श्रीशांत है। प्रतिवर्ष 1 नवंबर को ‘पलामू किला’ में मेला का आयोजन किया जाता है जहां भारी संख्या में लोग मेला देखने जाते हैं। चूंकि नागेन्द्र सिंह काम पर गये थे इसलिए उनकी पत्नी गीता अपने दोनों बच्चों को लेकर पलामू किला मेला देखने गयी थी। काम खत्म करने के बाद नगेन्द्र सिंह भी पलामू किला पहुंचे और शांम को पूरा परिवार एक साथ घर लौटने लगा। शांम के लगभग 6 बज रहे थे जब वे बेतला पुलिस पिकेट के पास पहुंचे। 

इसी बीच नागेन्द्र की बेटी दुर्गावती को प्यास लगी इसलिए उसने बेतला के पास चपाकल देखकर अपने पिता से पानी पिलाने को कहा। वे वहां पर रूककर पानी पीने लगे। इतने में ही पुलिस पिकेट में तैनात लातेहार जिला पुलिस बल के जवान उपेन्द्र पासवान ने नागेन्द्र सिंह को यह कहते हुए गाली देना शुरू किया कि ‘‘साला तुम नक्सली होकर यहां का पानी क्यों पी रहे हो? इस पर नागेन्द्र सिंह ने जवाब देते हुए कहा कि ‘‘सर मैं नक्सली नहीं हूॅ। बेतला अभयारण में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करता हूँ।’’ लेकिन उपेन्द्र पासवान ने उनकी एक न सुनी और उनके साथ धक्का-मुक्की शुरू कर दी। इसी बीच दो और जवान - रमेश महतो एवं बिन्देश्वरी सिंह भी वहां आ धमके और तीनों ने मिलकर नागेन्द्र को लाठी, लात और घूसा से बुरी तरह से पीटा। ये तीनों पुलिस जवान नशे में धूत थे। 

जब नागेन्द्र की पत्नी गीता बीच बचाव करने वहां गयी तो उसे भी लाठी से पीटा। उसके दाहिने हाथ एवं पीठ पर लाठियां बरसायी। पुलिस जवानों ने बच्चों को भी नहीं छोड़ा। इसी बीच नागेन्द्र के सिर में कई लाठियां बरसायी। फलस्वरूप, उनका सिर दो जगहों पर फट गया और वे लहूलुहान हो गए तथा वहीं गिरकर कुछ समय के लिए बेहोश हो गए। उनके सिर से भयानक खून बहने लगा। उनकी पत्नी गीता डर गयी कि कहीं वह अपने पति को खो तो नहीं देगी? उसने तुरंत अपनी साड़ी से नगेन्द्र का सिर बांध दिया। फिर कुछ समय के बाद जब नागेन्द्र होश में आये तो वे सब घर की ओर आगे बढ़ने लगे लेकिन इन जवानों ने उन्हें मुख्य सड़क से जाने नहीं दिया। अंततः वे पीछे से निकल पड़े और इलाज कराने के लिए हाॅस्पिटल पहुंचे। इलाज हुई और वे बच गये। उन्हें सिर में बाईस टंके पड़े और इलाज कराने में 5000 रूपये भी लगा। गीता भी दर्द से कराहती है। इसी से समझा जा सकता है कि वार्दीवाले गुंड्डों ने उनकी कितनी पिटाई की होगी? 

इधर 2 नवंबर, 2014 को सुबह 10 बजे नागेन्द्र सिंह तीनों पुलिस जवानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने के लिए बरवाडीह थाना पहुंचे। चूंकि यह घटना छिपादोहर थाना के जवानों से संबंधित थी इसलिए वे बरवाडीह थाना गये जहां थानेदार ने पुलिस जवानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने से साफ मना कर दिया। लेकिन नागेन्द्र भी कहां मानने वाले थे? वे वहीं डटे रहे। अंततः थानेदार ने उनका लिखा हुआ आवेदन-पत्र रख लिया एवं हस्ताक्षर कर एक प्रति वापस भी दे दी लेकिन हकीकत में मुकदमा दर्ज ही नहीं किया क्योंकि वहां के थानेदार इन जवानों को बचाना चाहते थे। आजादी के 6 दशक बाद भी पुलिस थानों में एफ.आई.आर. कराना युद्ध जीतने के बराबर लगता है। जो भी हो लेकिन पुलिस अधिकारी का हस्ताक्षरयुक्त आवेदन-पत्र वापस मिलना भी नागेन्द्र के लिए एक हाथियार ही था, जिसके बदौलत वह अपनी लड़ाई आगे बढ़ा सकता था।  

लेकिन अचानक शांम को लगभग 4 बजे बरवाडीह थाना के दारोगा धनंज्जय प्रसाद पुलिस बल के साथ नागेन्द्र सिंह के घर पहुंचे और उन्होंने नागेन्द्र से इस मामले को वापस लेने का कहा। पुलिस के वहां पहुंचते ही भीड़ जुट गई और पूरा महौल ही नागेन्द्र के खिलाफ हो गया। पुलिस आॅफसर ने नागेन्द्र को इलाज कराने के लिए 8 हजार रूपये दे दी और खून से लतपथ साड़ी को भी धोने की सलाह दी। अंत में उन्होंने स्वंय एक आवेदन लिखा और नागेन्द्र से दस्तखत करवा लिया, जिसपर लिखा था कि हम लोगों ने आपस में सुलाह कर लिया है और आगे लड़ाई नहीं करेंगे। ऐसा लग रहा था मानो नागेन्द्र ही पुलिस जवानों से भिड़ गये थे। क्या कमाल के पुलिस आॅफसर हमारे देश में हैं, जो हर परिस्थिति में अपने सहपाठियों को बचा लेते हैं? ऐसे में आप न्याय की उम्मीद किससे कर सकते हैं?

नागेन्द्र अभी भी डरे सहमें दिखते हैं लेकिन उनकी पत्नी गीता बहुत चतुर महिला है। उसने खून से सनी साड़ी को अपने पास रखा है क्योंकि वह पुलिसिया जुल्म के खिलाफ लड़ना चाहती है। वह पानी पीने की इतनी बड़ी सजा भुगतने को तैयार नहीं दिखती। गीता कहती है, ‘‘हमने क्या अपराध किया था जो हमें बैल-बकरी जैसा पीटा गया? मैं पुलिस अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार हूँ.’’ इधर झारखंड ह्यूमन राईट्स मूवमेंट ने इस मामले को राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के पास दर्ज कर दिया है। इसलिए अब देखना होगा कि ऊंट किस ओर करवट लेता है। लेकिन निश्चित तौर पर पानी पीने की इतनी बड़ी सजा देना धरती के महान लोकतंत्र के लिए शर्मनाक नहीं तो और क्या है?

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