- ग्लैडसन डुंगडुंग -
दक्षिण दिल्ली स्थित संत सेबस्टियन कैथोलिक चर्च को चलाने के विरोध में 13 दिसंबर, 2014 को रांची में ‘शांतिपूर्ण कैंडल मार्च और विरोध रैली’ का आयोजन किया गया था लेकिन प्रशासन ने चुनाव आचार संहिता का बहाना बनाकर इसकी इजाजत नहीं दी। लेकिन युवाओं ने भी ठान लिया था कि देश में ईसाईयों पर लगातार हो रहे हमले के खिलाफ वे प्रतिकार करेंगे। इसलिए दिन के 2 बजे लगभग 8 से 10 हजार लोग रांची के महागिरजाघर के पास जुटे। लेकिन चर्च नेतृत्व ने रैली निकालने से मना कर दिया, नारा लगाने पर भी प्रतिबंध लगा यहां तक कि सड़क के किनारे लगे पोस्टरों तक को फाड़ दिया गया। अंत में वही हुआ जो अक्सर ईसाई समुदाय के विरोध सभाओं में होता है। मौके पर मौजूद कुछ पुरूहितों ने उपदेश देते हुए कह दिया कि ईसाई समुदाय क्षमा करने पर विश्वास करता है इसलिए ईसाईयों पर हमला करने वालों को क्षमा कर देना चाहिए। इस तरह से सेबस्टियन चर्च जलाने वालों के लिए प्रार्थना की गयी, मामेबत्ती जलाया गया और फेसबुक के लिए सेल्फी ली गयी। ऐसा दिखाई पड़ता है कि ईसाई समाज क्षमा देने के नाम पर हकीकत से मुंह मोड़ने की कोशिश कर रहा है। क्या ईसाई समुदाय ने कभी इस बात पर गौर किया है कि उनका दुश्मन क्षमा का अर्थ समझता भी है? क्या यह समाज अपने दुश्मन की ताकत से डरा हुआ है?
यहां प्रश्न यह भी है कि क्या यह समाज अबतक ईसा मसीह को सही से समझ नहीं पाया है? यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि ईसा मसीह मनुष्य के रूप में जन्म लेने वाले न सिर्फ एक भगवान थे बल्कि वे एक क्रांतिकारी समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में सबसे ताकतवर रोमी सम्राज्य, धर्मगुरू एवं व्यापारियों को चुनौती दी, जिसका परिणाम के रूप में उन्हें शूली पर चढ़ना पड़ा। ईसा मसीह ने अपने महान कार्य से शासकों के होश उड़ दिये थे, उन्होंने धर्मगुरूओं को भी चुनौती दी, जिन्होंने लोगों को नियम-कानून के बेड़ियों में जकड़कर रखा था और जब वे येरूशलेम की यात्रा पर गये तो उन्होंने देखा के उपासनालय को व्यापारियों ने अपना अड्डा बनाकर रखा है तब उन्होंने वहां रखे मेजों को इधर-उधर धकेलते हुए कहा था कि मेरे पिता के घर को व्यापार का अड्डा मत बनाओं। वे निश्चित रूप से क्रांतिकारी थे। यह भी सही है कि उन्होंने अपने जीवनकाल के अंतिम समय में अपने दुश्मनों को क्षमा किया क्योंकि यह उनके लिए बहुत जरूरी था। इसका मतलब यह हुआ कि प्रतिकार और क्षमा दोनों ईसा मसीह के जीवन का अहम हिस्सा था, जिसे ईसाईयों को समझने की जरूरत है।
ईसाई समाज को इस हकीकत से भी मुंह नहीं मोड़ना चाहिए कि 22 सितंबर, 2003 को जर्मन मिश्नरी ग्लैडी स्टेन ने अपने पति ग्राहम स्टेन व दो बेटे - फिलिप एवं तिमोथि को जिन्दा जलाने वाले दारा सिंह एवं 12 अन्य अभियुक्तों को क्षमा कर दिया था। लेकिन क्या संघ परिवार पर इस क्षमा का कोई असर हुआ? क्या इस महान क्षमादान के बाद ओड़िसा के हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई सभी भाई-भाई हुए? नहीं, इसका ठीक उल्टा हुआ। 24 दिसंबर, 2007 की रात ओड़िसा के कंधामल जिले में कट्टरपंथी हिन्दु संगठनों ने पूर्वनियोजित ढ़ंग से क्रिसमस गेट उखाड़ दिये, ईसाईयों को चर्च जाने से रोका एवं चर्चाें में हमले किये। इस तरह से कंधमाल में दंगा हुआ जो 2008 तक चला, जिसमें 42 लोग मारे गये, 18,000 घायल हुए एवं 50,000 लोगों बेघर हुए। इस दंगे में 310 गांव प्रभावित हुए, जिसमें 4640 घरों, 252 चर्चाें एवं 13 ईसाई शिक्षण संस्थानों को जला दिया गया। इतना ही नहीं एक नन के साथ बलात्कार किया गया। इधर छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में ईसाईयों पर लगातार हमला किया जा रहा है। क्या ये हमलावार माफी के लायक भी हैं? क्या ये क्षमा की भाषा समझते हैं?
अंग्रेजी अखबार ‘‘दा इंकोनोमिक्स टाईम्स’’ की माने तो ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ ने घोषणा की है कि अगामी 25 दिसंबर, 2014 को सबसे बड़ा धर्मपरिवर्तन का कार्य होगा, जिसका केन्द्र अलीगढ़ को बनाया गया है, जिसमें ‘‘घर वापसी अभियान’’ के तहत 4000 ईसाईयों को हिन्दू बनाया जायेगा, जिसकी तैयारी युद्ध स्तर पर की जा रही है? अगर यह अभियान कोई दंगा कर रूप लेता है तो क्या घटना के बाद एक बार फिर ईसाई समुदाय के लोग हजारों की भीड़ में इक्ट्ठा होकर उनके लिए प्रार्थना करते हुए कहेंगे, ‘‘हे प्रभु इन्हें क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते क्या कर रहे हैं?’’ यहां मूल प्रश्न ये हैं कि क्या एक मेमना भेड़ियों को क्षमा करने की ताकत रखता है? क्या मेमनों के प्यार, दया और क्षमा से भेड़ियों को कुछ लेना देना भी है? और क्या इस देश की सरकारों को क्षमा की भाषा समझ में आती है?
डा. भीम राव अम्बेदकर ने सही कहा था कि ’भेड़-बकरियों की बली दी जाती है शेर की नहीं। जबतक ईसाई समुदाय के लोग निर्दोष मेमना बने रहेंगे, संघ परिवार उनका बली चढ़ाता रहेगा क्योंकि उन्हें पता है कि क्षमा करने के अलावा 2.5 करोड़ ईसाई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं? ईसाईयों के क्षमा को वो मजाक समझते हैं क्यों उनको लगता है कि ये लोग क्षमा करने के अलावा और कर भी क्या सकते हैं? आज केन्द्र में सरकार उनका है इसलिए ईसाईयों पर लगातार हमला किया जा रहा है लेकिन देश का प्रधानमंत्री मौन हैं? यह क्या संदेश देता है? क्या हमलावारों पर कोई कार्रवाई होगी?
ईसाई अल्पसंख्यकों पर जब भी हमला होता है, उनके धर्मगुरू उन्हें अपने दुश्मनों को क्षमा करने का उपदेश देते दिखाई देते हैं, कहीं मोमबती मार्च होती हैं और ईसाई धर्मावलंबी भी मौन धारण कर प्रार्थना करते दिखते हैं। क्या ऐसा नहीं लगता हैं कि यह समुदाय ही मार खाने और क्षमा करने के लिए जन्म लिया है? अपने दुश्मनों को क्षमा करना निश्चित तौर पर सराहनीय कदम हैं लेकिन साथ ही कई प्रश्न खड़ा होता है। जब भी ईसाई समुदाय के लोगों पर हमला होता है उन्हें अपने दुश्मनों को क्षमा करने की सूझती है लेकिन वहीं जब जमीन, घर-बारी, सम्पति या किसी अन्य बात को लेकर अपने घरों में झगड़ा होता है तब क्षमा करने की वह करिश्माई शक्ति कहां गुम हो जाती है? क्यों एक भाई दूसरे भाई को टंगी से काट देता है? क्यों पड़ोसियों से बात-बात पर झगड़ा और मारपीट होती है? क्यों महिलाओं को डायन का जामा पहनाकर मार दिया जाता है? इन मामलों में दया, क्षमा और प्रेम कहां खो जाता है? क्या ईसाई समाज भी ‘चयनात्मक न्याय’ की राह पर चल रहा है? क्या ईसाई समाज का ‘क्षमादान’ दुश्मनों की ताकत के आधार पर तय होता है? क्या इन प्रश्नों का जवाब किसी के पास है? क्या ईसाई धर्मगुरू इन प्रश्नों का हल बता सकते हैं क्योंकि ईसाई समाज आज चैराहे पर खड़ा दिखता है?
बात यहीं खत्म नहीं होती है। ईसाई लोग जब आपस में रोमन कैथोलिक, जर्मन प्रोटेस्टेंट, सी.एन.आई., एस.पी.जी., ए.जी. चर्च, इत्यादि के नाम पर आपस में लड़ते हैं तब एक दूसरे को क्षमा करने की ताकत कहां चली जाती है? ऐसे समय में क्यों चर्च के नेतृत्वकर्ता एक-दूसरे को क्षमा नहीं कर पाते हैं? क्यों वे एक-दूसरे का आजीवन दुश्मन बने रहते हैं? जब ईसाई समुदाय के लोग आपस में एक-दूसरे को ही क्षमा नहीं कर सकते तो दुश्मनों को क्षमा करने का दिखावा क्या एक नवटंकी भर नहीं लगता है? दुश्मनों को क्षमा करने का नाटक करना और अपनों के सामने शेर जैसे दहाड़ना, विशुद्धरूप से कायरता प्रदर्शित करने के अलावा और कुछ भी नहीं है?
यहां एक और बात पर गंभीरता से चर्चा करना चाहिए कि जिन आदिवासी ईसाई युवक-युवतियों को बचपन से प्रेम, दया और क्षमा का पाठ पढ़ाया जाता है वे आज क्यों बंदूक उठा रहे है? झारखंड का छोटानागपुर इलाका जहां ईसाई धर्म का दबदबा है वहां के अधिकांश नक्सली संगठनों के दास्ते में ईसाई धर्मावलंबी युवक-युवतियां हैं, जो हिंसा के बल पर सत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं या अपने समाज के साथ हुए अन्याय का बदला लेने की कोशिश में जुटे हुए हैं? ऐसा क्यों हो रहा है? क्या ये लोग प्रेम, दया और क्षमा का पाठ भूल गये? क्या ईसाई शिक्षा उनके जीवन में अप्रसंगिक हो गया है? ऐसे समय में निश्चित तौर पर ईसाई समाज अपने रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। कडुआ सच यही है कि ईसा मसीह के राह पर चलने के लिए ईसाई समाज को प्रेम, दया और क्षमा के साथ-साथ अन्याय के खिलाफ प्रतिकार करना सिखना होगा। यहां प्रतिकार का मतलब हथियार उठाने से कताई नहीं है बल्कि अपने संवैधानिक, कानूनी और परंपारिक अधिकारों का संरक्षण एवं संवर्धन के लिए लोकतंत्रिक तरीके से आवाज उठाना क्योंकि चुप रहना समस्या का हल नहीं है।
बात यहीं खत्म नहीं होती है। ईसाई लोग जब आपस में रोमन कैथोलिक, जर्मन प्रोटेस्टेंट, सी.एन.आई., एस.पी.जी., ए.जी. चर्च, इत्यादि के नाम पर आपस में लड़ते हैं तब एक दूसरे को क्षमा करने की ताकत कहां चली जाती है? ऐसे समय में क्यों चर्च के नेतृत्वकर्ता एक-दूसरे को क्षमा नहीं कर पाते हैं? क्यों वे एक-दूसरे का आजीवन दुश्मन बने रहते हैं? जब ईसाई समुदाय के लोग आपस में एक-दूसरे को ही क्षमा नहीं कर सकते तो दुश्मनों को क्षमा करने का दिखावा क्या एक नवटंकी भर नहीं लगता है? दुश्मनों को क्षमा करने का नाटक करना और अपनों के सामने शेर जैसे दहाड़ना, विशुद्धरूप से कायरता प्रदर्शित करने के अलावा और कुछ भी नहीं है?
यहां एक और बात पर गंभीरता से चर्चा करना चाहिए कि जिन आदिवासी ईसाई युवक-युवतियों को बचपन से प्रेम, दया और क्षमा का पाठ पढ़ाया जाता है वे आज क्यों बंदूक उठा रहे है? झारखंड का छोटानागपुर इलाका जहां ईसाई धर्म का दबदबा है वहां के अधिकांश नक्सली संगठनों के दास्ते में ईसाई धर्मावलंबी युवक-युवतियां हैं, जो हिंसा के बल पर सत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं या अपने समाज के साथ हुए अन्याय का बदला लेने की कोशिश में जुटे हुए हैं? ऐसा क्यों हो रहा है? क्या ये लोग प्रेम, दया और क्षमा का पाठ भूल गये? क्या ईसाई शिक्षा उनके जीवन में अप्रसंगिक हो गया है? ऐसे समय में निश्चित तौर पर ईसाई समाज अपने रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। कडुआ सच यही है कि ईसा मसीह के राह पर चलने के लिए ईसाई समाज को प्रेम, दया और क्षमा के साथ-साथ अन्याय के खिलाफ प्रतिकार करना सिखना होगा। यहां प्रतिकार का मतलब हथियार उठाने से कताई नहीं है बल्कि अपने संवैधानिक, कानूनी और परंपारिक अधिकारों का संरक्षण एवं संवर्धन के लिए लोकतंत्रिक तरीके से आवाज उठाना क्योंकि चुप रहना समस्या का हल नहीं है।
बहुत ही सुन्दर ऐसे ही सच्चाई को उजागर करते रहे
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