शनिवार, 27 जून 2015

सारंडा में अंतिम सांस लेता नक्सल आंदोलन?

- ग्लैडसन डुंगडुंग-

‘बाय जाॅनसन, फिर मिलेंगे’। सीआरपीएफ के एलिट फोर्स ‘कोबरा बटालियन’ ने सारंडा जंगल छोड़ते समय वहां के प्रत्येक विद्यालय के दीवारों पर लिखा था, जो यह बताने के लिए काफी है कि यह नाम नक्सल आंदोलन के लिए कितना मायने रखता था। यह महज एक संयोग ही था कि जब जाॅनसन गंझू को ढ़ूढ़ने के लिए कोबरा बटालियन के जवान दिन-रात एक कर दिये थे उस समय हमलोग मानवाधिकर हनन के मामलों की छानबीन के सिलसिले में सारंडा जंगल में थे और जब रोरो गांव में उस क्षेत्र के आदिवासियों ने उसे घेर कर रखा था तब भी हम सारंडा विकास माॅडल की जमीनी हकीकत देखने के लिए सारंडा जंगल में ही मौजूद थे। हमें यह खबर लग चुकी थी कि जाॅनसन को तीन दिनों तक आदिवासियों ने तीर-धनुष, कुल्हाड़ी और बरछा के बल पर एक शिकार की तरह घेर कर रखा है। और जब वह पकड़ा गया तो उससे कई सवाल पूछने के बाद उसकी हत्या कर दी गई। आदिवासियों द्वारा जाॅनसन की हत्या कोई मामूली घटना नहीं है और न ही यह किसी षड्यंत्र का हिस्सा है, बल्कि यह विशुद्ध रूप से नक्सल आंदोलन के प्रति आदिवासियों के आक्रोश का प्रतिफल है। यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आज ऐसा क्या हो गया कि जो आदिवासी लोग नक्सलियों को अपने संरक्षण के लिए सारंडा लेकर आये थे वे ही आज उनकी हत्या कर रहे हैं? क्या नक्सलवाद आदिवासियों के लिए नासूर बन चुका है? क्या नक्सल आंदोलन सारंडा में अंतिम सांस ले रहा है?

माओवादी एरिया कमांडर जाॅनसन गंझू की हत्या करने वाले आदिवासियों में अधिकांश लोग पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन जिन प्रश्नों को उन्होंने जाॅनसन के समक्ष रखा, देश के बड़े-बड़े बुद्धिजीवी न सिर्फ इन प्रश्नों से मुंह मोड़ लेते हैं अपितु नक्सल आंदोलन को ही आदिवासियों का रक्षा कवच के रूप में प्रस्तुत करते हैं। मैंने कई बार कहा है कि नक्सल आंदोलन आदिवासियों के लिए नासूर बन चुका है लेकिन ये बुद्धिजीवी नक्सल आंदोलन के खिलाफ कुछ भी सुनना नहीं चाहते हैं। आज नक्सल आंदोलन आदिवासी समाज को समाप्त करने का एक जरिया बनकर रह गया है और निश्चित तौर पर जाॅनसन से पूछा गया प्रश्न उसका प्रतिबिंब है। आदिवासियों ने जाॅनसन से पूछा - माओवादियों ने आजतक कितने पूंजीपतियों की हत्या की है? माओवादियों ने कौन-कौन से कंपनियों को आदिवासी इलाकों से भागने पर मजबूर किया है? आदिवासियों को अधिकार और न्याय दिलाने के नाम आये माओवादी लोग उनकी ही हत्या क्यों कर रहे हैं? माओवादियों के रहते हुए हमारी जमीन, जंगल, पहाड़, पानी और खनिज की लूट क्यों हो रही है? सारंडा जंगल में क्यों नये कंपनियों का आगमन हो रहा है? आदिवासियों को अपना गांव छोड़ने पर क्यों मजबूर किया जा रहा है? माओवादी लोग कंपनियों से पैसा क्यों लेते हैं? माओवादी लोग गांवों के विकास कार्याें को क्यों रोककर रखा है? जाॅनसन के पास अधिकांश प्रश्नों का कोई तर्कसंगत जवाब नहीं था। वह पूरी तरह से घिर चुका था और अंततः उसे जान देकर कीमत चुकानी पड़ी। इस इलाका के आदिवासी नक्सलियों के खिलाफ गोलबंद इसलिए हो रहे हैं क्योंकि नक्सलियों ने कई निर्दोष आदिवासियों को पुलिस मुखबिरी बताकर उनकी हत्या कर दी है। गांव से लोग पलायन कर गये हैं। गांवों में लोगों का जीना दूभर हो चुका है। युवा गांवों में नहीं रह सकते हैं। आदिवासी तीन तरह के बंदूकों के बीच फांस गये हैं।

पश्चिम सिंहभूम जिले स्थित सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित प्रखंडों में से एक प्रखंड सोनुवा से अलग हुए गुदड़ी का उदाहरण इस बात का गवाह है कि आदिवासी लोग नक्सलवाद से कितना ज्यादा त्रस्त हैं। इस इलाका में दो नक्सली संगठन - सीपीआई-माओवादी और पीएलएफआई दोनों के बीच चल रहे बर्चस्व की लड़ाई में आदिवासियों की लगातार हत्या की जा रहा है। नमन कंडुलना, जयमसीह बरजो, सोमनाथ, लक्ष्मण इत्यादि की हत्या हो चुकी हैं। आदिवासियों ने माओवादी प्रसाद जी, निर्मल और वरूण पर आदिवासी लड़कियों के यौन शोषण करने का भी आरोप लगाया है। 2009 में अलग प्रखंड बने गुदड़ी में नक्सलियों के भय से अब तक प्रखंड कार्यालय नहीं खुला। अब दोनों नक्सली संगठनों ने गुदड़ी प्रखंड के प्रत्येक गांव से 5-5 युवाओं की मांग की है। यानी प्रत्येक गांव से नक्सल संगठनों के लिए 10 आदिवासी युवा चाहिए जो आगे जाकर इन दो नक्सली संगठनों के बर्चस्व की लड़ाई का हिस्सा बनकर अपने ही इलाका में आंतक पैदा करेंगे, एक दूसरे की हत्या करेंगे और अपने ही लोगों का जीवन तबाह करेंगे। यह सब आदिवासियों को उनका अधिकार और न्याय दिलाने के नाम पर होगा। अंततः आदिवासी ही सबकुछ गवायेंगे। अब आदिवासियों को यह समझ में आ गया है इसलिए वे लोग दोनों नक्सली संगठनों से दूर भाग रहे हैं।

इस इलाके के युवक गांव छोड़कर छोटे-छोटे टाउन - सोनुआ, गोईलकेरा, मनोहरपुर, बंदगांव, खूंटी, इत्यादि में किराया के मकान में रहते हैं। बुरूलूनिया गांव के प्रकाश लुगून को पीएलएफआई ने दिसंबर, 2014 में माओवादी समर्थक बताकर 2 लाख रूपये लेवी मांगा और नहीं देने की स्थिति में उसकी हत्या करने की धमकी दी। प्रकाश गांव छोड़कर अब गोईलकेरा में एक किराये के मकान में रहता है। इतना ही नहीं गांव के कुछ युवा बड़े शहरों की ओर पलायन कर गये हैं। बुरूलूनिया के ही 20 वर्षीय संतोष बजरो को माओवादियों ने पीएलएफआई समर्थक होने का आरोप लगाकर अगस्त, 2014 में उसकी हत्या करने की कोशिश की। अपनी जान बचाने के लिए उसे अहमदाबाद भागना पड़ा जहां वह 300 रूपये पर दिहाड़ी मजदूरी कर अपना जीवन यापन कर रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता चंदन बरजो बताते हैं कि 2010 में पंचायत चुनाव के बाद नक्सलियों के भय से 6 पंचायतों के शिक्षित लोग पलायन कर गये हैं। और जो गांव में बच गये हैं उनमें से लड़कियां रात में एक जगह पर सोती हैं और लड़के जंगल में सोते हैं क्योंकि नक्सली लोग रात में गांवों में आकर युवाओं को जबर्रदस्ती अपने साथ ले जाते हैं।

इस इलाका में वर्ष 2003 में माओवादी लोग गांवों में अपना पकड़ बनाना शुरू किये। माओवादी लड़ाकू विकास, मसीहचरण पूर्ति और बिरसा लुगून ने यहां के आदिवासियों से कहा कि सरकार आपका शोषण कर रहा है, जिसके खिलाफ लड़ने के लिए संगठन बनाना होगा। माओवादियों ने आदिवासियों को अधिकार और न्याय दिलाने का वादा किया इसलिए वे संगठन से जुड़े और माओवादी संगठन बहुत ताकतवर हो गया। झारखंड में यही एक ऐसा इलाका था जहां सिर्फ माओवादियों की तूती बोलती थी। जब नक्सल आंदोलन मजबूत हुआ तो पुलिस अत्याचार भी शुरू हुआ। 2009 में बृहत पैमाने पर नक्सलियों के खिलाफ पुलिस एवं अर्द्धसैनिक बलों ने संयुक्त आॅपरेशन चलाया और निर्दोष लोगों पर पुलिस अत्याचार बड़े पैमाने पर हुआ। प्रकाश लुगून, सनिका भूईंया, चंदन बरजो, हेरमन लुगून, बिरजू बुढ़ इत्यादि को पुलिस जवानों ने बुरी तरह से पीटा था। शंकर सिंह मुंडारी सहित कई लोगों को फर्जी मुकदमा लगाकर जेल भी भेजा गया। फलस्वरूप, लोग बड़े पैमाने पर नक्सली आंदोलन से जुड़े। इस दरम्यान पुलिस ने कुछ लोगों को अपना मुखबिर भी बनाया। अब नक्सलियों ने पुलिस मुखबिरी बताकर आदिवासियों की हत्या करना शुरू की। सितंबर, 2011 में माओवादियों ने पुलिस मुखबिरी का आरोप लगाकर जाजोदा के निर्दोष बिमल लोंगा की हत्या कर दी, जिसके खिलाफ आदिवासियों के बीच रोष पैदा हुई। बाद में माओवादियों ने आदिवासियों से माफी भी मांग ली लेकिन काम नहीं बना।  

इसी बीच निर्दोष आदिवासियों की हत्या के खिलाफ आदिवासियों ने माओवादियों को सबक सिखाने के लिए नक्सली संगठन पीएलएफआई का शरण लेना उचित समझा। इस तरह से 2014 में इस क्षेत्र में पीएलएफआई की पकड़ मजबूत हो गई, जो बर्चस्व की लड़ाई को जन्म दिया। न्याय और अधिकार के लिए बंदूक का शरण लिए आदिवासी लोग अब तीन तरह के बंदूकों के बीच फंस चुके थे। पुलिस उन्हें नक्सल समर्थक बताकर अत्याचर करने लगी, माओवादी आदिवासियों को पुलिस मुखबिर एवं पीएलएफआई समर्थक बताकर उनपर जुल्म ढ़ाह रहे थे तो वहीं पीएलएफआई उन्हें माओवादी समर्थक बताकर उनका जीना हराम कर दिया। यहां तक कि गांव के मुंडा को भी अपना गांव छोड़ना पड़ा। सखड़ीउली गांव के मुंडा सोमा लोंगा कहते हैं कि वे गांव के मुंडा होने के बावजूद गांव में नहीं रह सकते हैं। यहां के मानकी और 52 गांवों के मुंडाओं को लगा कि नक्सल आंदोलन आदिवासी समाज को अधिकार और न्याय नहीं दिला सकता है। अब उनके लिए स्वयं को बचाना ज्यादा जरूरी है इसलिए उन्होंने पश्चिम सिंहभूम के उपायुक्त और पुलिस अधीक्षक से निवेदन किया है कि गुदड़ी प्रखंड में 5 से 8 सीआरपीएफ कैप लगाया जाये। उन्हें यह भी मालूम है कि सीआरपीएफ कैम्प उनके समस्या का समाधान नहीं है। गुदड़ी मौजा के मानकी मनोहर बरजो कहते हैं कि निर्दोष लोगों को पुलिस जेल में डाले तो कम से कम वे जिन्दा तो रह सकते है उन्हें हमलोग बाद में रिहा करवा लेंगे लेकिन नक्सली तो हमें सीधे जान से ही मार दे रहे हैं। आज जान बचाना ही हमारी पहली प्राथमिकता है।

सारंडा में माओवादियों के आने की कहानी भी काफी दिलचस्प है। 1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन के समय इस इलाके में कुछ छोटी-मोटी नक्सली घटनाएं जरूर हुई थी लेकिन यहां नक्सल आंदोलन खड़ा नहीं हो सका क्योंकि यहां आदिवासी लोग अपने बलबूते पर जल, जंगल और जमीन की रक्षा हेतु आंदोलन चला रहे थे और झारखंड आंदोलन भी साथ-साथ चल रहा था। 80 के दशक में सारंडा और पोड़हाट के इलाके में बड़े पैमाने पर जंगल आंदोलन हुआ। यहां के आदिवासियों ने वन विभाग के खिलाफ आंदोलन छेड़ते हुए इन जंगलों पर अपना पारंपरिक अधिकार का दावा कर दिया। फलस्वरूप, उनके उपर बड़े पैमाने पर पुलिस अत्याचार हुआ। 19 पुलिस फायरिंग की घटनाएं हुइ, जिसमें 36 लोग मारे गये एवं 4100 लोगों को जेल जाना पड़ा। इसी बीच 15 नवंबर, 2000 को झारखंड राज्य का गठन हुआ और देवेन्द्र मांझी जैसे चमत्कारिक नेतृत्व के अभाव में जंगल आंदोलन भी कमजोर पड़ गया। अब जंगल आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं को लगा कि नयी सरकार आदिवासियों को जंगल से बेदखल कर देगी और इसी डर से उन्होंने माओवादियों को सारंडा जंगल बुला लिया।

इस तरह से वर्ष 2000 के अंत में 7 सदस्यी एमसीसी का एक दस्ता सारंडा जंगल में प्रवेश किया। 27 नवंबर, 2001 को एम.सी.सी. के एरिया कमंडर, ईश्वर महतो को पुलिस ने बिटकिलसोय गांव में मार गिराया था, जो यहां की पहली घटना थी। इसके जवाब में एम.सी.सी. ने अपना ताकत दिखाते हुए 20 दिसंबर, 2002 को इसी गांव के पास पुलिस वहन को बिस्फोट से उड़ा दिया था, जिसमें दो आम जनता सहित 20 लोग मारे गये थे। इसी बीच 21 सितंबर, 2004 में एमसीसी और पीडब्यूजी का विलय होकर नया संगठन सीपीआई माओवादी का जन्म हुआ और देखते ही देखते सारंडा जंगल माओवादी संगठन के पूर्वी जोन का मुख्यालय बन गया। सारंडा जंगल में मौजूद देश का 25 प्रतिशत लौह-अयस्क भी माओवादी आंदोलन को मजबूती प्रदान किया। माओवादी लोग खनन कंपनियों से लेवी, बिस्फोटक और जरूरत का समान लेकर उन्हें सुरक्षा प्रदान करते रहे और कई मरतबा ऐसा भी देखा गया जब वे स्वयं गैर-कानूनी उत्खनन मेें शामिल रहे। इस तरह से माओवादियों ने सारंडा जंगल से बड़े पैमाने पर पैसा कमाया जबकि वहां के आदिवासियों को अपने आजीविका के संसाधनों से हाथ धोना पड़ा, साथ ही पुलिस अत्याचार और नक्सलियों का प्रताड़ना झेलना पड़ा। और यही वजह है, जिसके कारण आदिवासियोें ने नक्सल आंदोलन से मुंह मोड़कर सीआरपीएफ का शरण लिया है। माओवादियों का गढ़ थोलकोबाद, तिरिलपोशी, बिटकिलसोय, बालिबा, कोदलीबाद इत्यादि गांवों का चबुतरा सुनसान पड़ा है। ग्रामीण बताते हैं कि गांव के चबुतरा पर ही माओवादियों की बैठक होती थी और दिन में भी वे बंदूक के साथ गांव में मौजूद रहते थे लेकिन अब वे दिखाई नहीं पड़ते हैं। यद्धपि सारंडा जंगल में सीआरपीएफ कैंप होने से वहां के आदिवासी लोग ज्यादा सुरक्षित जरूर महसूस कर रहे है लेकिन उन्हें जमीन और जंगल खोने का डर भी सता रहा है क्योंकि झारखंड सरकार ने जिंदल, मित्तल, टाटा, रूंगटा, एलेक्ट््रो स्टील सहित कई कंपनियों को 22 नया माईनिंग लीज दिया है। यहां यह देखना दिलचस्प होगा कि नक्सली आंदोलन और आदिवासी लोग यहां से किस दिशा में जाते हैं।

इस क्षेत्र के आदिवासियों से बात करने से एक बात बहुत ही स्पष्ट हैं कि हकीकत में बहुसंख्यक लोग नक्सल आंदोलन में विचारधारा के बदले भय से जुड़े थे। लेकिन दुनियां में कई ऐसे उदाहरण है जो इस बात को स्पष्ट करता है कि भय के बल पर ज्यादा दिन तक शासन नहीं चलाया जा सकता है। और नक्सल आंदोलन का हस्र भी यही हो रहा है। आदिवासी लोग सरकारी बंदूक से संघर्ष करने के लिए नक्सलियों के बंदूक का सहारा लिया। लेकिन अब सरकारी और नक्सली दोनो के बंदूक से बचने के लिए अपने पारंपरिक हथियारों का भी इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन सबकुछ स्पष्ट हो रहा है कि अब बहुसंख्यक आदिवासी लोग शांति से जीना चाहते है उन्हें न ही पुलिस का बंदूक और न ही नक्सलियों का सहारा चाहिए। हकीकत यही है कि सरकार ने जिस तरह से आदिवासियों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया थी ठीक उसी तरह नक्सलियों ने भी आज आदिवासियों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया हैं और अंततः अधिकार और न्याय की आस में बंदूक का साथ लेने वाला आदिवासी समुदाय सबकुछ गवां रहा है। इसलिए सरकार और नक्सल आंदोलन दोनों को अपनी रणनीति पर पुर्नविचार करना चाहिए। आदिवासियों को भी यह समझना होगा कि उन्हें बंदूक से कभी न्याय नहीं मिल सकता है क्योंकि वह दौर समाप्त हो चुका है जब उन्होंने तीर-धनुष के बल पर अपनी जमीन, जंगल, पहाड़, नदी और खनिज सम्पदाओं को सुरक्षित किया था।

बंदूक से अधिकार और न्याय की आस लगाने की वजह से झारखंड राज्य के गठन से अबतक यहां के लगभग 6000 आदिवासी लोग विभिन्न जेलों में बंद हैं, 3000 आदिवासियों की हत्या हो चुकी है, कई महिलाओं के साथ बलात्कार हुई, हजारों आदिवासी यातना के शिकार हुए और सरकार के लिए लोकतंत्रिक आंदोलनों को भी नक्सल आंदोलन बताकर कुचलने के लिए आसान हो गया। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की नक्सल आंदोलन ने आदिवासी समाज को गर्त में धकेल दिया। ऐसे समय में आदिवासियों को अपने संवैधानिक, कानून और पारंपरिक अधिकारों का उपयोग करते हुए न्याय हासिल करना चाहिए। यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि नक्सल आंदोलन आदिवासियों को कभी न्याय नहीं दे सकता है क्योंकि अब यह बर्चस्व की लड़ाई में तब्दील हो चुकी है इसलिए अब आदिवासियों को अधिकार और न्याय हासिल करने के लिए लोकतंत्रिक तरीके से ही संघर्ष को आंजाम देना होगा। निश्चित तौर पर आदिवासियों द्वारा जाॅनसन की हत्या नक्सल आंदोलन के समाप्ति की ओर इशारा है।   

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