रविवार, 28 जून 2015

क्या हम भी भारतीय हैं?

- ग्लैडसन डुंगडुंग -

जोहार साहेब! मई महीने की तपती गर्मी के बीच सारंडा जंगल में विचरण करते समय अचानक ही कुछ लोगों की आवाज सुनाई पड़ी। जंगल के बीचो-बीच तीर-धनुुष, बरछा, कुल्हाड़ी और गुलेल के साथ आदिवासी लोग दिखाई पड़े। ये लोग शिकार पर निकले थे। वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग अपने खेतों में काम कर रहे थे और कुछ लोग महुआ चुनकर घर वापस जा रहे थे। यह कोई असामान्य बात तो थी नहीं। असामान्य बात यह थी कि ये लोग आदिवासी थे पर भारतीय नागरिक। इसलिए हमें देखते ही सकुछ भूलकर इस उम्मीद के साथ अपनी समस्या सुनाने लगे कि शायद उन्हें भी देश की नागरिकता और अपना अधिकार मिल जाये। उन्होंने बताया कि देश की नागरिकता प्रमाणित करने के लिए उनके पास कोई सरकारी दस्तावेज नहीं है। 

हम सभी लोगों के लिए ‘नागरिक एवं राजनैतिक अधिकार’ अति आवश्य है लेकिन यह दुर्भग्य है कि धरती के महान लोकतंत्र में इन आदिवासियों को आज भी नागरिकता एवं वोट देने का अधिकार हासिल नहीं है। ये लोग इस बात से अशांकित है कि अगर उन्हें वन अधिकार कानून 2006 के तहत जोत-आबाद कर रहे जमीन का पट्टा नहीं मिला तो उन्हें कभी भी अतिक्रमणकारी बताकर जंगल से खदेड़ दिया जायेगा और इसका प्रतिकार करने पर घुसपैठिये या नक्सली बताकर गोली मार दी जायेगी या सलाखों के पीछे डाल दिया जायेगा। 1960 के दशक में महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन से प्रेरित होकर मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नेतृत्व में अमेरिका में अश्वेत लोगों ने नागरिक आंदोलन से मताधिकार हासिल किया था। क्या इन आदिवासियों को भी देश की नागरिक एवं राजनैतिक अधिकार हासिल करने के लिए नागरिक अधिकार आंदोलन छेड़ना होगा? 

हाथ में तीर-धनुष लिये पसीना से लतपथ, विजय केराई बताते हैं कि 1980 के दशक में चल रहे जंगल आंदोलन के समय इन्होंने जोजोडेरा गांव बसाया था, जिसमें 20 आदिवासी परिवार के 105 लोग रहते हैं। जब जनवरी, 2008 में वन अधिकार कानून लागू हुआ तो गांव में लोगों ने मनोहरपुर अंचल कार्यालय में आवेदन दिया लेकिन उनका आवेदन खारिज कर दिया गया, जबकि वे वन अधिकार कानून के तहत वनभूमि के असली हकदार हैं। वे यह भी बताते हैं कि गांव के पास ही करमपदा में मित्तल कंपनी को लौह अयस्क का लीज दिया गया है। और इसी वजह से सरकार उन्हें वनभूमि का पट्टा नहीं दे रही है ताकि फोरेस्ट क्लियारेंस के समय कंपनी को कोई मुश्किल का सामना करना न पड़े। 

सारंडा में वन विभाग जंगल की रखवाली करना छोड़कर ‘बांटो और राज करो’ की नीति भी अपना रही है। कुछ बाहरी लोगों को इस क्षेत्र में भेजा जा रहा है, जिसका वहां के स्थानीय लोग विरोध कर रहे हैं और इन लोगों के बीच झगड़ा कराकर उन्हें जंगल से ही बेदखल करने की कोशिश चल रही है। वहीं वन माफिया और वन विभाग की मिली भगत से सारंडा जंगल से प्रतिदिन हजारों की संख्या में लोग सखुआ के पेड़ की बोटी साईकिल में लादकर ठेकेदारों के पास पहुंचा रहे हैं। इतना ही नहीं नक्सल विरोधी अभियान चलाने के नाम पर सीआरपीएफ के जवानों ने सड़कों के दोनों ओर हजारों एकड़ जंगल को जलाकर राख कर दिया है। लेकिन शासनतंत्र को इन सब पर ध्यान ही नहीं है और बस ध्यान है तो वहां के आदिवासियों को सारंडा से बेदखन करने की।    

मनोहरपुर के आंदोलनकारी सुशील बारला जमीनी हकीकत का पता लगाने के लिए सारंडा जंगल के बिहांड़ में स्थित 17 वनग्राम का सैम्पल सर्वे किया है। इन गांवों में 431 आदिवासी परिवारों के 1918 लोगों निवास करते है, जिनके पास अपनी नागरिकता साबित करने के लिए मतदाता पहचान-पत्र, राशन कार्ड या आधार कार्ड जैसे कोई पहचान-पत्र मौजूद नहीं है, जिससे स्पष्ट है कि उन्हें कानूनी तौर पर इस देश की नागरिकता हासिल नहीं हुई है। इसलिए इन्हें किसी भी समय सारंडा जंगल से बेदखल किया जा सकता है। जोजोडेरा के सलुका जोजो सवाल पूछते है, ‘‘क्या हम भी भारतीय है? हमें अब तक नागरिकता प्रमाण-पत्र क्यों नहीं दिया जा रहा है? हमने झारखंड आंदोलन में भाग लिया बावजूद इसके हमें न्याय क्यों नहीं मिला? क्या हमने जंगल में रहकर कोई अपराध किया है? सरकार हमारे साथ ऐसा भेदभाव क्यों कर रही है? क्या यह इसलिए क्योंकि हमलोग आदिवासी है?
सुशील बरला के शिकायत-पत्र पर कार्रवाई करते हुए राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने जनजातीय कल्याण सचिव, झारखंड सरकार एवं पश्चिम सिंहभूम जिले के उपायुक्त को 17 अक्टूबर, 2014 को पत्र लिखकर कहा था कि सारंडा जंगल में 35 वनग्राम हैं, जिनमें लगभग 3,000 आदिवासी निवास करते हैं, जिन्हें अभी तक वन अधिकार कानून 2006 के तहत वनभूमि पर अधिकार नहीं दिया गया है। वे अपने आजीविका के लिए कृषि एवं वन पर निर्भर करते हैं। बावजूद इसके उनके पास अब भी मताधिकार पहचान-पत्र, राशन कार्ड एवं आधार कार्ड नहीं हैं। उन्हें शिक्षा, स्वास्थ जैसे बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखा गया है। 

आयोग ने संविधान की धारा 338;कद्ध का उपयोग करते हुए झारखंड सरकार को आदेश दिया हैं कि इन्हें जल्द से जल्द मताधिकार पहचान-पत्र, राशन कार्ड एवं आधार कार्ड जारी किया जाये। साथ ही सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा एवं स्वाथ्य जैसे बुनियादी सुविधा उपलब्ध किया जाये। आयोग ने 15 दिनों के अन्दर कारईवाई कर जवाब देने को कहा था बावजूद इसके राज्य सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। यहां यह भी बताना दिलचस्प होगा कि वर्ष 2011 में पश्चिम छोटानागपुर के पुलिस महानिरीक्षक ने गृह सचिव एवं पुलिस महानिदेश को पत्र द्वारा सूचित किया था कि सारंडा जंगल के अन्दर लगभग 200 वन गांव मौजूद हैं, जिनका किसी भी सरकारी दस्तावेज में जिक्र नहीं है। लेकिन राज्य सरकार ने इस ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया। 

पिछले झारखंड विधानसभा चुनाव से पहले पश्चिम सिंहभूम जिले के उपायुक्त अब्बुबक्कर सिद्दिकी ने कहा था कि मुझे इस बात की अशांका है कि किसी के पास वोटर कार्ड नहीं है। लेकिन उन्होंने इसपर जांच और कार्रवाई करते हुए चुनाव से पहले मतदाता सूची में इन आदिवासियों  का नाम शामिल कर उन्हें वोट देने का अधिकार सुनिश्चित करने का वादा किया था। लेकिन यह भी चुनावी जुमला बनकर रह गया। ऐसा लगता है कि अब नौकरशाह भी राजनेताओं जैसा ही व्यवहार करने लगा है। 

ऐसा लगता है कि हमलोग धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाला एक बड़ा ही विचित्र देश में रहते हैं, जहां धर्म के नाम पर ही सबकुछ होता है। केन्द्र की भाजपा सरकार ने पकिस्तान एवं अफगनिस्तान के 4,300 हिन्दु शरनार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान की है साथ ही यह भी घोषणा किया है कि आने वाले समय में बंगलादेशी हिन्दु शरणार्थियों को भी नागकिता प्रदान की जायेगी। इतना ही नहीं भाजपा सरकार ने मध्यप्रदेश में 19,000, राजस्थान में 11,000 एवं गुजरात में 4,000 शरनार्थियों को लंबी अवधि का विजा दिया गया है। लेकिन वहीं सारंडा जंगल के आदिवासी, जो सिंहभूम के मूल निवासी हैं, जिन्हें देश की नागरिकता के अधिकार से अबतक वंचित रखा गया है, जो उनके साथ अन्याय तो हैं ही, देश के लिए निश्चित तौर से शर्मनाक भी है। देश अपने नागरिकों के साथ ऐसे भेदभाव कैसे कर सकता है? क्या सत्ताधीश लोगों को आमजनों के संवैधानिक, कानूनी और पारंपरिक अधिकारों की समझ भी है? क्या इन आदिवासियों को देश की नागरिकता और मौलिक अधिकार हासिल करने के लिए हिन्दु बनना पड़ेगा?

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