रविवार, 28 जून 2015

योग की राजनीति

- ग्लैडसन डुंगडुंग -

‘‘क्या नरेन्द्र मोदी योग करते हैं?’’ यह सवाल कोई और नहीं बल्कि रूस के राष्ट्रपति वलादिमिर पुतिन  ने उस वक्त पूछा जब उन्हें यह बताया गया कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘‘आयुष मंत्रालय’’ की शुरूआत की है। इसके जवाब में उन्हें यह बताया गया कि मोदी प्रतिदिन 1 घंटा योग करते हैं। लेकिन 21 जून, 2015 को ‘विश्व योग दिवस’ के अवसर पर दिल्ली के राजपथ पर आयोजित भव्य योग शिविर में मोदी को गलत पद्यासन करते देखा गया, जिसकी तस्वीर सोशल मीडिया में बड़े पैमाने पर प्रसारित की गयी और मोदी का मजाक भी उड़ाया गया। एक फेसबुक यूजर ने लिखा - ‘‘जो लोग योग कभी नहीं करते और फोटो खिंचवाने के लिए नाटक करते हैं, वे सबसे आसान आसन, यानी पद्यासन भी गलत करते हैं।‘‘ इसी तरह देश के अलग-अलग हिस्सों में कई मंत्री, नेता और आॅफसर योग करते समय सोते पाये गये तो कई को योग करने का नाटक करते भी देखा गया। वहीं उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को मुस्लिम होने के कारण भाजपा नेता राम माधवन से बेवजह हमला झेलना पड़ा जबकि उन्हें योग दिवस पर आमंत्रित ही नहीं किया गया था। वहीं विश्व हिन्दू परिष्द की नेता साध्वी प्राची ने यहां तक कह दिया कि जो योग का विरोध करते हैं वे पाकिस्तान चले जाये। यहां प्रश्न यह है कि क्या योग दिवस के आयोजन के पीछे कोई राजनीतिक स्वार्थ थी?

इधर सोशल मीडिया पर गरमा-गरम चर्चा जारी था। मैंने प्रश्न उठाया कि मोदी के साथ राजपथ पर कितने गरीब लोगों ने योगा किया? क्या भारत देश सिर्फ अमीर और काला चश्में के साथ चमकने वाले चहरों के लिए है, जिनके पास ड्यूटी करने, खेलने, सोने और हर गतिविधि के लिए अलग-अलग पहनावा उपलब्ध है? सबका साथ और सबका विकास का नारा देने वाली एनडीए की सरकार दुनियां के सामने कैसी तस्वीर पेश कर रही है? इसके जवाब में एक मोदी भक्त ने राजस्थान के सुदूर इलाकों में साड़ी से पूरा शरीर ढांककर योग करने वाली गरीब महिलाओं की तस्वीर पेश की। अगला प्रश्न मैंने पूछा कि यह बताया जाये कि अमीर लोग तो अपनी चर्बी घटाने के लिए योग कर रहे हैं लेकिन ये गरीब महिलाएं जो खून की कमी से जूझ रही हैं उन्हें योग से क्या फायदा होगा? क्या योग करने से उनका पेट भर जायेगा? गरीबों को योग से क्या फायदा होगा क्योंकि उनके बीमारी का मुख्य कारण पौष्टिक आहार की कमी है? क्या योग करने से उनके शरीर में पौष्टिक आहार की पूर्ति होगी? इन प्रश्नों का जवाब न उस मोदी भक्त के पास था और न ही मोदी के पास है। 

इसी बीच शिक्षा से संबंधित दो खबरें आयी। एक यह कि केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने योग को केन्द्र सरकार द्वारा संचालित सभी सरकारी विद्यालयों में कक्षा 8 से 10 तक तक अनिवार्य विषय बनाने की घोषणा की और दूसरी खबर यह थी कि भाजपा सरकार ने छत्तीसगढ़ में 3000 सरकारी विद्यालयों को बंद कर दिया, जिनमें आदिवासी बच्चे पढ़ते थे। ये खबरें एक ऐसी तस्वीर पेश करती हैं, जिसमें यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि केन्द्र और राज्य की भाजपा सरकारें आदिवासी, दलित और गरीब बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही हैं। सरकारी विद्यालय बच्चों को खिचड़ी खिलाने वाले विद्यालय बन चुके हैं, जहां 7वां वर्ग के बच्चे 5वां वर्ग का हिन्दी नहीं पढ़ पाते हैं और 5वां क्लास के बच्चे तीसरा क्लास का गणित नहीं बना पाते। लेकिन प्राथमिक शिक्षा में व्यापक सुधार लाने के बजाये भारत सरकार योग शिक्षा को ज्यादा महत्व दे रही है। सोचने की बात है कि जो बच्चे प्रतिदिन 10 से 15 किलो मीटर साईकिल चलाकर विद्यालय जाते-आते हैं उन्हें योग की क्या जरूरत है? योग शिक्षा को बढ़ावा देने से प्राथमिक शिक्षा की गुणवता में क्या सुधार होगा? क्या योग सभी बच्चों के लिए अनिवार्य इसलिए किया जा रहा क्योंकि बच्चों के दिमाग का भगवाकरण करना है?

योग के बारे में यह भी कहा गया कि योग करने से भेदभाव मिटता है क्योंकि सभी लोग एक साथ योग करते हैं। लेकिन यह बयान हकीकत से कोशों दूर है। राजपथ की बात ही कर लीजिये। कितने आदिवासी, दलित और गरीबों ने प्रधानमंत्री के साथ योग किया। वहां दिखाई देने वाले चेहरे क्या काला चश्मा लगाने वाले चमकते चेहरे नहीं थे? जो लोग योग से भेदभाव मिटाने की बात करने हैं उन्हें अपने अंदर झांक कर देखने चाहिए कि क्या उनके दिलों में आदिवासी, दलित और गरीबों के लिए जगह है? जब दिल में ही जाति, सम्प्रदाय और धर्म के नाम पर नफरत भरा पड़ा है तो एक साथ योग करने से भी क्या फर्क पड़ता है? यह भी तर्क संगत हैं कि भेदभाव का सबसे ज्यादा पीड़ा झेलने वाले दलित खेतिहार मजदूरों के पास योग करने का समय और जरूरत भी क्या है? योग उनके लिए है, जिन्हें दो वक्त के रोटी की चिंता नहीं है अपितु अपनी चर्बी खटाने की चिंता है। मतलब साफ है कि योग की लकीर समाज में "हैव और हैव नाॅट" के बीच स्पष्ट खींची हुई है इसलिए योग से समाज में भेदभाव दूर कर समानता लाने की बात करना कोरी बकवास है। 

योग गलत नहीं है लेकिन इसके सम्प्रदायिकरण का परिणाम भयावह हो सकता है। यहां बहुसंख्यकों द्वारा स्वीकृत धर्म और संस्कृति को सभी लोगों पर राजसत्ता द्वारा जबरदस्ती थोपने की कोशिश की जा रही है जो न सिर्फ आलोकतंत्रिक गतिविधि है बल्कि संविधान के खिलाफ भी है। यह न सिर्फ लोकतंत्रिक मूल्यों पर हमला करना है बल्कि संविधान का मजाक उड़ाना है। लोकतंत्र का मतलब सिर्फ बहुसंख्यकों के भावनाओं का कद्र करना नहीं होता बल्कि जिस तरह से लोकतंत्र स्थापित करने के लिए एक-एक वोट का मूल्य होता है उसी तरह प्रत्येक व्यक्ति के भावनाओं का कद्र करना ही लोकतंत्र का सही मतलब है। इसलिए सत्तीधीशों को इसका ख्याल रखना चाहिए।  

निश्चित तौर पर विश्व योग दिवस का भव्य आयोजन न तो 125 करोड़ जनता को निरोग करने और न ही उनके बीच भेदभाव को समाप्त कर देश में एकता कायम करने के उद्देश्य से की गयी थी। बल्कि इसके पीछे एक विशुद्ध राजनीति छुपी हुई है। पहली बात तो यह है कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी दिलाने में योग गुरू बाबा रामदेव की बहुत बड़ी भूमिका रही है, जिसके बदले में उन्हें कुछ हासिल नहीं हुई थी। फलस्वरूप, वे कुछ दिनों तक गुमनाम हो गये थे और जब वे गुमनामी से बाहर आये तो उन्होंने राहुल गांधी की जमकर तारीफ की। ऐसी परिस्थिति में नरेन्द्र मोदी बाबा रामदेव को और ज्यादा नाराज नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने विश्व योग दिवस के अवसर पर उन्हें वैश्विक मंच उपलब्ध कराकर अपना कर्ज अदा कर दिया। 

दूसरी बात यह है कि संघ और भाजपा देश में एक लम्बी राजनीतिक पारी खेलने के फिराक में लगे हुए हैं। इसलिए वे हिन्दु धर्म से संबंधित प्रत्येक त्योहार एवं राष्ट्रीय त्योहारों को राजनीतिक रंग देने की कोशिश में जुटे हुए हैं, जिससे बहुसंख्यक आम हिन्दुओं को कट्टरता का पाठ पढ़ाकर वोट बैंक में तब्दील किया जा सके। विश्व योग दिवस के भव्य आयोजन द्वारा भाजपा हिन्दु वोट बैंक को अपने हित में सुरक्षित करना चाहती थी वरना भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को दिल्ली या गुजरात के बजाये बिहार मेें योग करने की क्या जरूरत थी जहां आने वाले दिनों में विधानसभा चुनाव होना है? मोदी प्रत्येक भावनात्मक मुद्दा को उठाकर आम हिन्दुओं को वोट बैंक में तब्दील करना चाहते हैं और प्रत्येक हिन्दु त्योहार का सरकारीकरण और सरकार का भागवाकर करने की कोशिश में जुटे हुए हैं।

तीसरी बात यह है कि विश्व योग दिवस के अवसर पर भाजपा नेता राम माधवन और विहिप नेता साध्वी प्राची के विवादस्पद बयानों से स्पष्ट हैं कि आने वालें दिनों में प्रत्येक आयोजन द्वारा देश के अल्पसंख्यकों पर निशाना साधा जायेगा और आम हिन्दुओं को कट्टर हिन्दु बनाने की पूरी कोशिश की जायेगी। राष्ट््रीय स्वयं सेवक संघ, विहिप और भाजपा नेता यही कहते रहेंगे कि जिनको हिन्दु धर्म के पर्व-त्योहार पसंद है वे हिन्दुस्तानी नहीं है इसलिए उन्हें पाकिस्तान चला जाना चाहिए। ये नेता संविधान के खिलाफ लगातार हमला करेंगे लेकिन नरेन्द्र मोदी ‘मन की बात’ में बड़ी-बड़ी बातें करने के अलावा उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेगें क्योंकि पूरी फिल्म की स्क्रीप्ट ऐसी ही लिखी गयी है, जिसका मूल मकसद बहुसंख्यक हिन्दुओं को एकजुट कर देश में मनुवाद की स्थापना करना। 

योग दिवस के भव्य आयोजन के पीछे तर्क यह हैं कि चूंकि ‘संयुक्त राष्ट्र’ द्वारा 21 जून को ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ घोषित किया गया इसलिए सरकार ने योग दिवस का भव्य आयोजन किया। लेकिन अगर यह तर्क सही है तो अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, विश्व आदिवासी दिवस और विश्व पर्यावरण दिवस भी तो ‘संयुक्त राष्ट्र' ने ही घोषित किया है? क्या सरकार सभी अंतरराष्ट्रीय दिवसों का आयोजन भी इसी तरह से करेगी? बल्कि देश में पर्यावरण की स्थिति देखा जाये तो विश्व पर्यावरण दिवस का महत्व योग दिवस से भी ज्यादा है फिर विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर अपने सरकारी आवास में एक कदम्ब का पेड़ रोपने के अवाला मोदी ने क्या किया? क्या योग दिवस का भव्य आयोजन सिर्फ इसलिए किया गया ताकि इसके द्वारा समाज में कट्टरता फैलाकर भाजपा हमेशा सत्ता में बनी रहे? हकीकत यह है कि आम जनता को महंगाई, भ्रष्टाचार और कुशासन से मुक्ति दिलाने का वादा कर दिल्ली की राजगद्दी पर बैठने वाले नरेन्द्र मोदी ने अभी तक ऐसा खास कुछ नहीं किया है इसलिए मीडिया मैंनेजमेंट द्वारा आम जनता को असली मुद्दों से भटकाकर भावनात्मक मुद्दों के इर्द-गिर्द घुमाते हुए सत्ता में बने रहने का रास्ता तलाशने की कोशिश में जुटे हैं। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें