शनिवार, 22 जुलाई 2017

क्या सिर्फ सरना धर्मावलंबी ही आदिवासी हैं?

ग्लैडसन डुंगडुंग

झारखंड अपनी साझा संस्कृति विरासत के लिए विख्यात है। यह साझा संस्कृति विरासत मूलतः आदिवासी जीवन दर्शन से विकसित हुई है। लेकिन अब इस साझा संस्कृति में सम्प्रदायिकता का जहर घुल चुका है। आदिवासियों ने लाठी और लोटा लेकर आये जिन बाहरी लोगों का स्वागत किया था उन्हीें लोगों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए आदिवासी समाज को धर्म के नाम पर बांट दिया है। यह देखना काफी दर्दनाक है कि जो आदिवासी लोग कभी अपने खेतों में साथ-साथ काम करते थे, जंगल साथ में जाते थे और अखड़ा में एक साथ नाचते-गाते थे, अब वे सरना-ईसाई के नाम पर एक-दूसरे से नफरत करते हैं, आपस में लड़ते हैं और एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गये हैं। झारखंड के विभिन्न इलाकों में घुमते समय मैं विगत एक दशक से कई प्रश्नों का सामना कर रहा हॅं। लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या सिर्फ सरना धर्म मानने वाले लोग ही आदिवासी है? क्या हमलोग आदिवासी नहीं है? क्या हमलोग आदिवासी नृत्य कर सकते हैं? क्या सामुदायिक जंगल-जमीन पर हमारा भी हक है? क्या हमलोग धर्म के नाम पर बिखर जायेंगे? आजकल सोशल मीडिया में आदिवासियों के बीच चलने वाला प्रत्येक बहस अंततः सरना-ईसाई विवाद पर आकर अटक जाता है। कई समूह इसी बहस में बिखर चुके हैं और युवाओं के दिलो-दिमाग में सम्प्रदायिकता का जहर घुलता ही जा रहा है। 

भाजपा और संघ परिवार के नेता और उनसे जुड़े कुछ स्वार्थी आदिवासी नेताओं के द्वारा देश मं पिछले दो दशकों से बहुत जोर-शोर से यह स्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि सिर्फ सरना धर्मावलंबी ही आदिवासी हैं और जो आदिवासी ईसाई धर्म को मानते हैं वे आदिवासी नहीं हैं इसलिए उन्हें आदिवासियों को मिलने वाला संवैधानिक लाभ से वंचित कर देना चाहिए। लेकिन वहीं हिन्दु धर्म में धर्मांतरित आदिवासियों सवाल पर वे मौन हैं। भाजपा और संघ परिवार दोहरा खेल खेलते हैं और आदिवासियों को गुमराह कर आपस में लड़ाते हैं ताकि लोकसभा और विधानसभा चुनाव के समय वे नफरत का वोट बटोर सकें। एक तरफ तो वे यह कहते हैं कि आदिवासी लोग हिन्दु हैं और सरना धर्म जैसा कोई धर्म नहीं है लेकिन जब आदिवासियों के द्वारा इसका विरोध होता है तो वे कहने लगते हैं कि सरना और सनातन दोनों एक ही हैं। यहां मौलिक प्रश्न यह है कि क्या कोई भी धर्म किसी नस्लीय या जातीय समुदाय के सदस्य होने का आधार हो सकता है? यदि नहीं तो सरना धर्म किसी व्यक्ति के आदिवासी होने का आधार कैसे हो सकता है? क्या भाजपा और संघ परिवार के लोग जानबुझकर समाज में भ्रम फैलाते रहते हैं? क्या भाजपा और संघ परिवार का अस्तित्व ही सम्प्रदायिक हिंसा, झूठ और बेईमानी के बुनियाद पर खड़ा है?

यहां तर्क संगत बात यह है कि यदि सरना धर्म ही आदिवासी होने का आधार है तो सरना धर्म को स्वीकार करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को स्वतः आदिवासी का दर्जा प्राप्त होना चाहिए। ऐसी स्थिति में सुदूर जंगल के इलाके में रहने वाले बहुत सारे गैर-आदिवासी भी स्वतः ही आदिवासी हो जायेंगे क्योंकि वे सरना धर्म को मानते हैं तथा करम एवं सरहुल पूजा करते हैं? इसी तरह देश के अन्य हिस्सों से आकर झारखंड में बसे गैर-आदिवासी भी यदि सरना धर्म को स्वीकार करते हैं तो वे आदिवासी हो जायेंगे? अब सवाल यह भी है कि बिरसा मुंडा के अनुयायी ’बिरसाईत’ लोग बिरसा मुंडा को भगवान मानकर उनकी पूजा करते है, लेकिन सरना धर्म में बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा हासिल नहीं है तथा बिरसाईत लोग हड़िया और मुर्गा बलि से दूर रहते हैं। ऐसे में क्या बिरसाईत लोग भी आदिवासी होने का दर्जा खो देंगे? इसी तरह टाना भगत लोग तिरंगा झंडा की पूजा करते हैं तथा हड़िया-दारू, मांस-मछली, मुर्गा बली इत्यादि से दूर रहते हैं। जबकि सरना धर्म में हडिया और मुर्गा बली की अहम भूमिका है तो क्या टाना भगतों को भी आदिवासी का दर्जा नहीं दिया जायेगा? इसके अलावा वैसे आदिवासियों का क्या होगा जो किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं? यहां मौलिक प्रश्न यह है कि किसी के आदिवासी होने का आधार धर्म कैसे हो सकता है? धर्म किसी के अस्तित्व को कैसे तय कर सकता है? क्या धर्म के बगैर एक व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है? यदि धर्म ही सर्वोपरि है तो ट्राईब, नस्ल और जाति का क्या अर्थ है? फिर तो लोगों को अपना नस्ल और जाति को विलुप्त कर देना चाहिए?

हमें समझना चाहिए कि नस्ल, जाति और धर्म ये तीनों अलग-अलग हैं। आदिवासी लोग नस्लीय समूह से आते हैं इसलिए उनका सरोकार जाति से दूर-दूर तक नहीं है। हालांकि डा. भीमराव अम्बेडकर की हठधर्मिता के कारण आदिवासी जनों को भारतीय संविधान में ‘जनजाति’ बना दिया गया और उनके नाम पर जाति प्रमाण-पत्र निर्गत किया जाता है जबकि उन्हें ‘जन’ या ‘नस्लीय समूह’ का प्रमाण-पत्र दिया जाना चाहिए। आदिवासियों के उपर जाति और धर्म थोपना उनके साथ सरासर अन्याय है। एक व्यक्ति का नस्ल और जाति उसके चाहने पर भी कभी नहीं बदल सकता है जबकि धर्म जो विश्वास का मामला है, किसी व्यक्ति के इच्छानुसार कभी भी बदल सकता है और धर्म बदलना एक व्यक्ति का मौलिक अधिकार भी है। धर्म के आधार पर किसी भी व्यक्ति का नस्ल या जाति तय नहीं की जा सकती है इसलिए सिर्फ सरना धर्मावलंबियों को आदिवासी बताना न सिर्फ समाजशास्त्र, मानवशास्त्र एवं प्रकृति के सिद्धांतों को सिरे से खारिज करना है बल्कि पूरे आदिवासी समुदाय के अस्तित्व को भी नाकारना है। आदिवासी समाज की पहचान उसकी नस्ल से है न कि धर्म से इसलिए धर्म के नाम पर आदिवासियों के अस्तित्व को नाकारा नहीं जा सकता है। क्या आदिवासी समाज ऐसे लोगों को कभी माफ करेगा, जिन्होंने धर्म के नाम पर सिर्फ अपनी राजनीतिक लाभ के लिए आदिवासियों के अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया है? 

इतिहास हमें बताता है कि सरना-ईसाई विवाद की शुरूआत ही व्यक्ति के निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए किया गया था इसमें सरना धर्म या सरना समुदाय के अधिकारों की रक्षा कहीं से भी नहीं थी। इसकी शुरूआत कार्तिक उरांव ने 1962 के आम चुनाव में लोहरदगा लोकसभा सीट से चुनाव हारने के बाद की थी। निर्दलीय उम्मीदवार डेविड मुंजनी से कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे कार्तिक उरांव चुनाव हार गये और इसी हार को बर्दास्त नहीं कर पाने के कारण उन्होंने सरना और ईसाई के नाम आदिवासी समाज के अंदर धार्मिक द्वेष फैलाते हुए एलेक्शन ट्राईब्यूनल के पास इस मामले को उठाया, जहां उन्हं हार का सामना करना पड़ा तब 1963 में उन्होंने इस मामले को पटना उच्च न्यायालय में चुनौती दी। उन्होंने न्यायालय में दलील दी कि प्रतिवादी 1 और 2 भारतीय ईसाई हैं जिन्हें आदिवासियों के लिए आरक्षित सीट से लड़ने को कोई अधिकार नहीं है क्योंकि उन्हें सरना विश्वास एवं आदिवासी जीवन शैली से कुछ वास्ता नहीं रह गया है। वे आदिवासियों के रीत एवं दस्तूर का अनुपालन नहीं करते हैं और न ही उनको आदिवसियों से अथवा आदिवासियों के प्रति कोई लगाव या सामूहिक रूचि या उनकी सुरक्षा या उनकी आशाओं एवं अभिलाषाओं के प्रति उनका कोई समर्पण है। इसलिए उन्हें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीट से चुनाव लड़ने का कोई अधिकार नहीं है। 

पटना उच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई करते समय कार्तिक उरांव के दलील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि जो उरांव जनजाति के सदस्य ईसाई धर्म को स्वीकार करते हैं, वे अपनी जाति नहीं खोते हैं और आदिवासियों को प्रदŸ अधिकारों एवं सुविधाओं से वंचित नहीं किये जा सकते हैं। यहां मौलिक प्रश्न यह है कि यदि कार्तिक उरांव लोकसभा चुनाव जीत गए होते तो क्या वे इस मसला को उठाते? कार्तिक उरांव ने इस मसला को तब क्यों नहीं उठाया जब ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासी लोग अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित लोकसभा एवं विधानसभा सीटों से लगातार चुनाव जीत रहे थे? क्या कार्तिक उरांव ने अपनी निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए आदिवासी समाज को नहीं बांटा है? पटना उच्च न्यायालय में मुकदमा हार जाने के बाद भी कार्तिक उरांव ने सरना-ईसाई विवाद को आगे बढ़कर आदिवासी समाज को दो टुकड़ों में बांट दिया, जो बाद में भाजपा और संघ परिवार के लिए आदिवासी इलाकों में अपनी राजनीतिक जड़ जमाने के लिए खाद-पानी का काम किया। सरना-ईसाई विवाद के आग में घी डालकर भाजपा ने सरना आदिवासियों को अपना स्थायी वोट बैंक बना लिया। इस तरह से छोटानागपुर में भाजपा ने अपनी राजनीति को मजबूत कर झारखंड का सत्ता को हाथिया लिया। इसमें आदिवासी समाज को क्या मिला?

निश्चित तौर पर सरना-ईसाई विवाद के केन्द्र में अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाला संवैधानिक प्रदत ‘आरक्षण’ का लाभ है। भाजपा और संघ परिवार ने सरना आदिवासियों के मन में यह भर दिया है कि ईसाई आदिवासी लोग ही उनका सबसे बड़ा दुश्मन हैं क्योंकि वे आरक्षण का दोहरा लाभ ले रहे हैं और सरना आदिवासियों को अपने तरफ खीच रहे हैं। ये लोग अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं फलस्वरूप, उन्हें ईसाई मिशनरियों के द्वारा चलाये जा रहे शिक्षण संस्थानों में आसानी से प्रवेश मिल जाता है तथा शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्हें आरक्षित कोटे से नौकरी भी मिल जाती है। ऐसी स्थिति में यदि ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासियों को आरक्षण से वंचित कर दिया जाये तो इसका सामुचित लाभ सरना धर्मावलंबियों को मिलेगा और सरना समाज समृद्ध हो जायेगा। यह मसला दूर से बहुत प्रभावशाली दिखाई पड़ती है लेकिन इसके ताह में जाने से सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। एक बात तो यह है कि ईसाई मिशनरियों के द्वारा चलाये जा रहे शिक्षण संस्थानों का सामुचित लाभ ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासियों को नहीं मिल रही है बल्कि इन शिक्षण संस्थानों का सबसे ज्यादा लाभ गैर-ईसाई समुदाय के लोग ही लेते रहे हैं। इसलिए यहां दोहरा लाभ लेने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। ईसाई मिशनरियों के द्वारा चलाये जा रहे शिक्षण संस्थानों से सबको बराबर लाभ मिलता है। लेकिन भाजपा और संघ परिवार के नेताओं ने झूठ के बुनियाद पर आदिवासी समाज के बीच नफरत फैलाकर अपनी राजनीति चकमायी और उसका पूरा लाभ उठाया है। 

यहां मूल प्रश्न यह है कि क्या आरक्षण का लाभ सिर्फ ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासी उठा रहे हैं? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) में अवसर की समता को सुनिश्चित करने हेतु आदिवासियों के लिए विशेष प्रावधान किया गया है, जिसके तहत संविधान के अनुच्छेद 330, 332 एवं 335 के जरिये में आदिवासियों (अनुसूचित जनजातियों) को संसद, विधानसभा एवं सरकारी नौकरी में आरक्षण दिया गया है। यदि हम राजनीति को देखें तो 47 सांसद आरक्षित सीट से जीतकर संसद में आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं लेकिन उनमें कितने सांसद ईसाई धर्म मानने वाले हैं? देशभर में लगभग 523 विधायक आरक्षित सीट से जीतकर विभिन्न राज्यों के विधानसभाओं में आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं इनमें से कितने विधायक ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासी है? क्या ईसाई धर्म मानने वाले सांसद और विधायकों का प्रतिशत 10 से ज्यादा है? झारखंड की राजनीतिक स्थिति देखने से पता चलता है कि झारखंड आंदोलन को मूर्तरूप देने वाले जयपाल सिंह मुंडा और एन.ई. होरो सहित अधिकांश नेता ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासी थे इसलिए भाजपा झारखंड आंदोलन को ईसाई मिशनरियों का देश तोड़ने वाला अलगाववादी आंदोलन मानती थी। लेकिन वर्तमान समय में झारखंड की राजनीति में सरना और हिन्दू धर्म मानने वाले आदिवासी नेताओं का दबदबा है। अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित लोकसभा सीट से जीतने वाले चार सांसदों में एक भी सांसद ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासी नहीं है तथा 28 आदिवासी विधायकों में मात्र 4 विधायक ही ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासी समुदाय से आते हैं। ऐसी स्थिति में क्या राजनीति में आरक्षण का लाभ ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासी उठा रहे हैं?

जहां तक नौकरी में आरक्षण का लाभ उठाने का प्रश्न है, इसका जरूर एक अध्ययन किया जाना चाहिए। लेकिन मोटे तौर पर देखेंगे तो तीसरे और चतुर्थ श्रेणी के नौकरियों में ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासियों की संख्या अधिक प्रतीत होती है लेकिन वहीं यदि प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी के नौकरियों में देखेंगे तो तस्वीर कुछ अलग ही दिखाई पड़ती है। भारतीय प्रशासनिक सेवा या भारतीय पुलिस सेवा का आंकलन करने से स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों का सबसे ज्यादा लाभ मीणा समुदाय के लोग उठा रहे हैं जो न ईसाई धर्मावलंबी हैं और न ही सरना धर्म के अनुयायी है बल्कि वे शुद्ध रूप से हिन्दु धर्म को मानते है और हिन्दु संस्कृति में जीते हैं, जिन्हें आदिवासी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज एवं रूढ़ि से कोई मतलब नहीं है। वहीं भारतीय प्रशासनिक सेवा या भारतीय पुलिस सेवा में कार्यरत ईसाई धर्मावलंबी आदिवासी आफसरों को ऊंगलियों में गिना जा सकता है। इसी तरह मेडिकल या इंजीनियरिंग के क्षेत्र में स्थिति और भी दायनीय है। देश के मेडिकल कालेजों एवं इंजीनियरिंग कालेजों में आदिवासियों के लिए आरक्षित सैकड़ों सीट प्रतिवर्ष खाली रह जाता है। यदि हम सरकारी नौकरियों को खंगालें तो पता चलता है कि कई विभागों में सैकड़ों आरक्षित सीट अभी भी खाली पड़ा हुआ है या गैर-आदिवासी लोग अनुसूचित जनजाति का फर्जी प्रमाण-पत्र बनाकर नौकरी कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में ईसाई धर्मावलंबी आदिवासियों पर आरक्षण का लाभ उठाने का आरोप लगाना कितना तर्क संगत है? क्या भाजपा और संघ परिवार सरना आदिवासियों को फर्जी लड़ाई लड़वा रहे हैं? धर्मांतरण एवं आरक्षण के मुद्दे पर शोर मचाने वाले ये लोग सरना कोड के मसले पर चुप क्यों हैं?   

यहां हमें राजनीति से हटकर कानूनी पक्ष को भी समझना चाहिए। धर्मांतरण एवं आदिवासी बने रहने के सवाल पर उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय का क्या रूख है? नस्ल, जाति और धर्म को न्यायालय किस नजरिये से देखते हैं? धर्मांतरण और आरक्षण को लेकर उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय के फैसले बहुत ही स्पष्ट हैं। कपारा हांसदा बनाम स्टेट आफ झारखंड डब्यू.पी. (पी.आई.एल.) न. 6884 आफ 2002 के मामले में 22 जून 2008 को फैसला देते हुए झारखंड उच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि धर्मांतरित ईसाई आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे यदि धर्म बदलते भी हैं तो उनकी परंपरा, भाषा एवं रीति-रिवाज अक्षुण रहती है। न्यायालय ने कहा कि आदिवासी एक ट्राईब व नस्ल से संबंध रखते हैं, जो धर्म बदलने से नहीं बदलता है। इसी तरह कार्तिक उरांव बनाम डेविड मुंजनी ए.आई.आर. 1964 पी.ए.टी. 201 के मामले में पटना उच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि जो उरांव जनजाति के सदस्य ईसाई धर्म स्वीकार करते हैं, वे अपनी जाति नहीं खोते हैं और आदिवासियों को प्रदत अधिकारों एवं सुविधाओं से वंचित नहीं किये जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी 2004(3) एस.सी. केस 429, 2004 एआईआर एससीडब्ल्यू 1064 केरल सरकार एवं अन्य बनाम चन्द्रमोहनन के मामले में फैसला देते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है कि धर्म बदलने से किसी व्यक्ति को अनुसूचित जनजाति की सदस्यता से वंचित नहीं किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय का स्पष्ट मत है कि यदि एक आदिवासी अपने समुदाय की परंपरा, भाषा, संस्कृति, रूढ़ि इत्यादि का पालन करता है तो धर्म बदलने के बावजूद वह उस समुदाय का सदस्य बना रहेगा।

असल बात यह है कि भाजपा और संघ परिवार की राजनीति ही धर्म आधारित नफरत पर टिकी हुई है। सीएनटी/एसपीटी संशोधन, स्थानीय नीति एवं सामुदायिक जमीन को लैंड बैंक में डालने के मसले पर फंस चुकी भाजपा को 2019 के चुनाव में यदि बचा सकती है तो सिर्फ सरना-ईसाई आदिवासी विवाद। यहां मौलिक प्रश्न यह है कि जब भाजपा और संघ परिवार के नेता धर्मांतरण को आधार बनाकर 14.1 प्रतिशत ईसाई धर्म माननेवाले आदिवासियों से आदिवासी होने का हक छीनने की जोर-शोर से वकालत करते हैं तो वे सरना धर्म को त्याग कर हिन्दु धर्म को स्वीकार करने वाले 39.7 प्रतिशत आदिवासियों को आदिवासी का दर्जा खत्म करने के लिए वे मुंह क्यों नहीं खोलते हैं? क्या इस तरह की दोहरी नीति अपनाना न्यायसंगत है? सिर्फ ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासी ही निशाने पर क्यों? क्या भाजपा और संघ परिवार सचमुच सरना आदिवासियों के हितैशी हैं? सरना आदिवासियों की हितैशी होने का दिखावा करने वाली झारखंड की भाजपा सरकार ने खूंटी जिले के 514 सरना स्थलों की 488 एकड़ जमीन को लैंड बैंक में क्यों डाला है? भाजपा सरकार ने अबतक सरना कोड़ बिल विधानसभा में क्यों पेश नहीं किया है? क्या भाजपा का मूल मकसद सिर्फ सरना-ईसाई विवाद को बढ़ाकर वोट हासिल करना नहीं है? क्या भाजपा और संघ परिवार सिर्फ अपनी निजी स्वार्थ यानी राज्य में सŸ हासिल करने के लिए आदिवासी समाज को तिŸर-वितर नहीं कर रहे हं? 

मुझे उन आदिवासियों पर दया आती है जो आरक्षण को आदिवासी होने या न होने से जोड़ते हैं। क्या सिर्फ आरक्षण का लाभ पाने के लिए कुछ लोग आदिवासी बनकर रहना चाहते है? क्या झारखंड, ओडिसा और छŸसगढ़ से 150 साल पहले असम में जाकर वहां रह रहे लगभग 60 लाख संताली, खड़िया, मुंडा, उरांव और हो आदिवासी लोग आदिवासी नहीं हैं, जिन्हें वहां अबतक संविधान के अन्तर्गत अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त नहीं है? क्या दिल्ली, अंडामन-निकोबर और देश के अन्य राज्यों में रहने वाले लाखों आदिवासी, जिन्हें अबतक सामान्य या पिछड़ा वर्ग में रखा गय है, आदिवासी नहीं हैं? क्या राजस्थान के मीणा समुदाय के लोग जिन्हें भारत सरकार ने अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया है, हकीकत में आदिवासी है? मीणा समुदाय के लोग कौन सी आदिवासी भाषा, संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज और रूढ़ि में जीते हैं जबकि अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले आरक्षण का सबसे ज्यादा लाभ यही समुदाय उठा रहा है? भारतीय संविधान के तहत अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल करना आदिवासी होने का प्रमाण-पत्र नहीं है क्योंकि आदिवासी शब्द को भारत सरकार ने अबतक स्वीकार नहीं किया है। भारत में 744 विभिन्न आदिवासी नस्लीय समूह हैं, जिनमें से सिर्फ 704 को ही भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया है तो क्या शेष नस्लीय समूहों को आदिवासी नहीं माना जाना चाहिए? इन समूहों में भी मात्र 15 से 20 नस्लीय समूह ही ‘सरना धर्म’ के अनुयायी हैं और अधिकांश समूहों का अपना-अपना विश्वास है तो क्या ये बहुसंख्यक नस्लीय समूहों को आदिवासी का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए? 

ऐसी स्थिति में सिर्फ सरना धर्मावलंबियों को ही आदिवासी कहना तर्कसंगत नहीं है तथा बहुसंख्यक आदिवासियों के साथ अन्याय करना है। आदिवासी लोग अलग नस्लीय समूह से आते हैं इसमें धर्म कहीं भी आधार नहीं हो सकता है। आदिवासी का असली अर्थ है आदिकाल यानी भारत में सबसे पहले बसने वाले लोग। इसलिए एक व्यक्ति को आदिवासी होने के लिए आदिवासी का वंशज होना, आदिवासी भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपरा एवं रूढ़ियों को मानना ही काफी है। इसके लिए धर्म कहीं से भी आड़े नहीं आता है। भाजपा और संघ परिवार से जुड़े कुछ आदिवासी नेता ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासियों पर आरोप लगाते हैं कि वे आदिवासी भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपरा एवं रूढ़ियों को नहीं मानते हैं। लेकिन हिन्दु धर्म मानने वाले लाखों आदिवासी ऐसे हैं जो अपनी गोत्र नहीं लिखते हैं, भाषा नहीं जानते हैं और आदिवासी संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपरा एवं रूढ़ियों को नहीं मानते हैं। इसी तरह सरना धर्म मानने वाले भी ऐसे लाखों आदिवासी हैं जो अपनी भाषा नहीं जानते हैं। क्या इन नेताओं ने इन्हें छूट देकर रखा है क्योंकि थोक भाव से उनका वोट बटोरना है? यह हकीकत है कि शहरों में बसे ईसाई, हिन्दु या सरना धर्म मानने वाले बहुसंख्यक आदिवासी लोग अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपरा एवं रूढ़ियों से इसलिए बिमुख होते जा रहे हैं क्योंकि जातिवादी भारतीय समाज ने उन्हें दोयम दर्जें का इंसान बनाकर रखा है, नस्लीय आधार पर भेदभाव किया है और उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया है। आज आदिवासियों को यह समझना होगा कि आदिवासी समाज का सबसे बड़ा दुश्मन ब्राहमणवाद और पूंजीवाद हैं, जिन्हें राजसŸ का संरक्षण प्राप्त है। इसलिए धर्म के नाम पर आपस में लड़ने के बजाये आदिवासियों को आपसी एकता कायम कर अपनी पहचान, माटी और अस्तित्व को बचाने के लिए एक साथ संघर्ष करना चाहिए क्योंकि जो शक्तियां आदिवासियों की जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत एवं खनिज पर अपना आंख गड़ाये हुए हैं तथा उनके अस्तित्व को खत्म करना चाहते हैं वे उनकी एकता को तोड़ने के लिए उन्हें सरना-ईसाई के नाम पर लड़वा रहे हैं।  

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