शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

हम विदेशी हैं तो आप देशी कैसे हुए?

ग्लैडसन डुंगडुंग

विगत कई वर्षों से कुछ लोगों को मेरे नाम और आस्था को लेकर काफी परेशानी है। वे सवाल पूछते हैं कि मेरा नाम विदेशी भाषा में क्यों है? मैं विदेशी धर्म को क्यों मानता हूँ? जब ईसाई धर्म को मानता हूँ तो मैं आदिवासी कैसे हुआ? उनका तर्क है कि ईसाई धर्म विदेशी है इसलिए उसे मानने वाले लोग भी विदेशी हैं। जब मैंने ऐसे सवाल पूछने वालों की पृष्ठभूमि का पता किया तो दंग रह गया क्योंकि इनमें से अधिकांश लोग ईसाई मिशनरियों के द्वारा देश में चलाये जा रहे स्कूल-कालेजों से अच्छी शिक्षा ग्रहण कर नौकरी कर रहे हैं। जबकि मैं जंगल के बीच स्थित गांव में खड़िया आदिवासी समुदाय में जन्म लिया, सरकारी विद्यालय में पढ़ाई की, अपनी भाषा जानता हूँ, आदिवासी संस्कृति और परंपरा में जीता हूँ। इसके अलावा पिछले लगभग दो दशकों से आदिवासी पहचान, अस्मिता, आदिवासी दर्शन, भाषा, संस्कृति, परंपरा, जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत, खनिज और आदिवासी अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्षरत हूँ। इसके लिए मुझे नक्सली समर्थक, सरकार विरोधी एवं विकास विरोधी कहा जाता है, भारत सरकार ने दो बार मेरा पासपोर्ट जब्त कर लिया था, लंदन जाते समय दिल्ली एयरपोर्ट में हवाई जहाज से उतार दिया, पुलिस की लाठी खानी पड़ी और अभी मेरे खिलाफ तीन मुकदमें चल रहे हैं।  

सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि मेरे उपर सवाल उठाने वाले लोगों की सूची में वैसे आदिवासी लोग भी हैं जो स्वयं को सरना धर्मावलंबी बताते हैं लेकिन उनके स्वंय का नाम कृष्ण, महेश, राम, शिवा, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा जैसे हिन्दु धर्म के भगवान और देवी-देवताओं के नाम पर है। यदि आप उनके घरों के अंदर झांक कर देखेंगे तो वहां भी हिन्दु देवी-देवताओं की तस्वीर और मुर्तियां ही नजर आते हैं। मैं सभी धर्मां का बराबर आदर और सम्मान करता हूँ लेकिन ऐसे लोगों की हकीकत जानने के लिए यहां हिन्दु धर्म का संदर्भ दे रहा हूँ ताकि इसे समझने में आसान हो सके। असल में ये लोग सरना धर्म के अनुयायी नहीं हैं बल्कि सरना धर्म के आड़ में संघवाद और मनुवाद को समाज में फैला रहे हैं। लेकिन हद तो तब हो जाती है जब ये संघी और मनुवादी लोग फेसबुक, ट्विटर और स्मार्ट फोन का उपयोग कर ईसाई धर्मावलंबियों को विदेशी कहते हुए दिन-रात पानी पी-पी कर गाली देते हैं। क्या इंटरनेट, फेसबुक, ट्विटर और स्मार्टफोन का अविष्कार इनके बात-दादों ने किया है? 

हमारे देश में बहुत सारे मुद्दों पर बिना आधार का एकपक्षीय हवा बहा दिया जाता है। इसलिए ईसाई धर्म मानने वालों को विदेशी कहने वाले संघी और मनुवादियों को स्वंय के व्यवहार को भी परखना चाहिए। यदि आप किसी को विदेशी कहते हैं तो क्या आप सचमुच देशी हैं? यदि मैं और मेरे जैसे देश के करोड़ों ईसाई धर्मावलंबी सिर्फ ईसाई धर्म मानने के कारण विदेशी हो जाते हैं तो ईसाई धर्मावलंबी विदेशियों के द्वारा अविष्कार किये गये वस्तुओं का उपयोग करने वाले भारतीय लोग देशी कैसे हो गए? यह कौन नहीं जानता है कि देश में स्वदेशी अभियान चलाने वाले संघी और मनुवादी लोग कीमती विदेशी गाड़ियों से चलते हैं, कम्प्यूटर-लैपटा पर काम करते हैं, स्मार्ट फोन का उपयोग करते हैं, इंटरनेट का उपयोग करते हैं और विदेशी पोशाक पहनते हैं। क्या ये लोग देशी हुए? क्या यह महा ढकोसला नहीं है? क्या कोई बता सकता है कि संघी और मनुवादियों ने आजतक देश में कौन-कौन से चीजों का अविष्कार किया है? क्या किसी को देशी या विदेशी होने का सर्टिफिकेट ये संघी और मनुवादी लोग देंगे? संघी और मनुवादियों के परिभाषा के आधार पर सिर्फ वही लोग देशी होना चाहिए जो हिन्दु धर्म को मानते हैं, भारतीय भाषाओं में बात करते हैं, साड़ी-धोती पहनते हैं, बैल व घोड़ा गाड़ियों से घूमते हैं और आग जलाकर रात बिताते हैं क्योंकि आधुनिक विकास से जुड़ी भाषा, संचार-माध्यम, मोटर-वाहन, इंधन, बिजली इत्यादि की खोजन और अविष्कार तो विदेशियों ने किया है।

इन संघि और मनुवादियों से पूछा जाना चाहिए कि जब ईसाई धर्म मानने वाले भारतीय विदेशी हो जाते हैं तो विदेशी नस्ल की जर्सी गायें उनकी माता कैसे बन जाती हैं? आज देश में देशी नस्ल की गायों से कई गुणा ज्यादा सेवा विदेशी नस्ल की जर्सी गायों की होती है। देशी गायें सड़क पर धूल फांकती रहती हैं, प्लस्टिक व कचड़ा खाती हैं और नली का गंदा पानी पीकर जिंदा रहती हैं। जबकि जर्सी गायों को पंखे का हवा, भरपूर चारा और स्वच्छ पानी दिया जाता है। चारा-पानी और सेवा के अभाव में देशी गायें गोशालाओं में दम तोड़ रही हैं। यह इसलिए है क्योंकि संघी और मनुवादियों को दूध, दही और मलाई चाहिए, जिसकी पूर्ति सिर्फ जर्सी गायें ही कर सकती हैं। यानी जिन विदेशी नस्ल की गायों, उपकरणों, वाहनों, पोशाकों और वस्तुओं से इन संघि और मनुवादियों को फायदा पहुंचता है वे देशी हो जाते हैं, लेकिन जिनसे आदिवासी, दलित एवं गरीबों की सशक्तिकरण होती है उसपर ये लोग सवाल उठाकर देश में धार्मिक उन्माद फैलाते हैं क्योंकि उन्हें कमजोर तबके के लोगों का उपर उठना कतई पसंद नहीं है क्योंकि यह संघवाद और मनुवाद के खिलाफ है।  

कई बार ऐसा भी हुआ है जब आदिवासी दर्शन पर परिचर्चा के बाद कुछ लोगों ने मेरे पोशाक को लेकर भी सवाल उठाते हुए कहा कि आप आदिवासी कैसे हैं क्योंकि आप तो कोर्ट-शूट पहनते हैं जबकि आदिवासी लोग तो करिया पहनते हैं? मैं यह बात इसलिए कह रहा हॅं क्योंकि लोग आदिवासी का मतलब सिर्फ इतना ही समझना चाहते हैं कि वह अर्द्धनग्न और जंगल में फल-फूल खाकर जीने वाला होना चाहिए जबकि ऐसे ही लोगों को भारतीय लोगों के द्वारा साड़ी और धोती को छोड़कर जींस पैंट, कोट-शुट और अन्य विदेशी पोशाक पहनने से कोई दिक्कत नहीं है। यहां मौलिक प्रश्न यह है कि जब देशभक्ति के नाम पर दंगा फैलाने वाले संघी और मनुवादी लोग जींस पैंट, कोट-शुट और अन्य विदेशी पोशाक पहनने के बाद भी देशभक्त भारतीय हैं और उनपर कोई प्रश्न नहीं उठाया जाता है तो एक आदिवासी विदेशी पोशाक पहनते ही वह विदेशी कैसे हो जाता है? आदिवासियों के पोशाक को लेकर क्यों सवाल उठाया जाना चाहिए। क्या बौद्धिक चर्चा में आदिवासी बुद्धिजीवियों से मात खाने के बाद ये लोग आदिवासियों को नीचा दिखाने की कोशिश में ऐसा मुर्खातापूर्ण सवाल नहीं पूछ रहे हैं? ऐसे मसलो पर दोहरा मापदंड क्यों होना चाहिए? 

सच्चाई यह है कि ईसाई विरोधी अभियान चलाने वाले संघी और मनुवादी लोग ईसाई मिशनरियों के द्वारा चलाये जा रहे स्कूल-कालेजों में पढ़े हैं और अपने बच्चों को भी इन्ही शिक्षण संस्थानों में पढ़ाते हैं। यही लोग हैं जो ईसाई मिशनरियों के शिक्षण संस्थानों में अपने बच्चों के नामांकन के लिए पैरवी और मारा-मारी करते दिखाई पड़ते हैं। यदि इन्हें ईसाई मिशनरियों से इतना ही नफरत है तो इन्हें इनके शिक्षण संस्थानों से लाभ लेना बंद कर देना चाहिए और उनके हास्पिटल में इलाज भी नहीं कराना चाहिए। इन संघि और मनुवादियों को अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में भेजना चाहिए क्योंकि अब तो देश और अधिकांश राज्यों में उनकी सरकार है। क्या उन्हें अपने ही व्यवस्था में विश्वास नहीं है? असल में भाजपा और संघ परिवार की राजनीति ही धर्म के नाम पर नफरत फैलाने पर टिका हुआ है। इस देश में जिस दिन धर्म की लड़ाई खत्म हो गई उस दिन भाजपा और संघ परिवार का सूर्यास्त हो जायेगा। इसलिए ये संघी और मनुवादी लोग धर्म के मसले को देश के केन्द्र मेें रखते हैं क्योंकि देश और राज्यों में शासन चलाने के बाद भी लोगों का विकास करने, शांति एवं सुशासन व्यवस्था स्थापित करने एवं लोगों को मूलभत सुविधाएं उपलब्ध कराने में ये असफल हो चुके हैं।  

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