गुरुवार, 3 अगस्त 2017

धर्मांतरण; वास्तविक या दुष्प्रचार?

- ग्लैडसन डुंगडुंग -

उड़ीसा, मध्यप्रदेश, छŸसगढ़, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में तहलका मचाने के बाद धर्मांतरण का ‘‘भूत’’ झारखंड की साझा संस्कृति विरासत पर हमलावर हो गया है। भाजपा और संघ परिवार के द्वारा राज्य में पिछले लगभग डेढ़ दशक से धर्मांतरण पर हंगामा खड़ा करने के बाद आखिर कर झारखंड के मंत्रीमंडल ने राज्य में धर्मांतरण पर रोक लगाने के लिए ‘झारखंड धर्म स्वतंत्र विधेयक 2017’ को मंजूरी दे दी है, जिसे विधानसभा के मानसून सत्र में पेश कर पारित किया जायेगा। भाजपा सरकार का दावा है कि राज्य के सरना आदिवासियों के अस्तित्व को बचाने के लिए यह जरूरी था। सरकार के इस कदम से भाजपा से जुड़े आदिवासी लोग प्रफुल्लित हं। इसलिए यहां कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा करना जरूरी होगा। प्रस्तावित विधेयक के मूल प्रावधान क्या हैं? क्या धर्मांतरण निरोधक कानून बनाना संविधान सम्मत है? राज्य में धर्मांतरण की क्या हकीकत है? धर्मांतरण की परिभाषा क्या होनी चाहिए? धर्मांतरण निरोधक कानून लागू किये गये राज्यों में सरना आदिवसियो की क्या स्थिति है? क्या भाजपा सरना आदिवासियों की हितैशी है? धर्मांतरण निरोधक कानून का क्या प्रभाव होगा? क्या इस कानून से राज्य में धर्मांतरण रूकेगा?  

यहां सबसे पहले गौर करने वाली बात यह है कि धर्मांतरण का भूत उसी राज्य में सक्रिया रूप से काम करता है, जिस राज्य में भाजपा की सरकार होती है, लोकसभा या विधानसभा चुनाव नजदीक होता है और जब भाजपा किसी ज्वलंत मुद्दे या विकास एवं सुशासन के मोर्चे पर पिट जाती है। झारखंड इसका सटीक उदाहरण है। राज्य में भाजपा की सरकार है, वर्ष 2019 में विधानसभा चुनाव होना है, भाजपा सरकार सीएनटी/एसपीटी संशोधन के मसले पर पिट चुकी है, सरकार राज्य में विकास, शांति एवं सुशासन स्थापित करने में नाकाम रही है और राज्य में अपराधी एवं भ्रष्टाचारियों का बोलबाला कायम है। राज्य में ऐसी स्थिति बन रही है कि आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा को झारखंड का सŸाागवांना पड़ सकता है, और इसी भय से भाजपा ने एक बार फिर से धर्म (सरना-ईसाई विवाद) का सहारा लेने का मन बना लिया है। 

इसी को मद्देनजर रखते हुए धर्मांतरण के मसले को भाजपा के अनुसूचित जनजाति मोर्चा के द्वारा 15 जून 2017 को गुमला मं आयोजित सम्मेलन में सुनियोजित तरीके से उठाया गया, जिसमें झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने कहा कि धर्मांतरण राज्य का सबसे बड़ा मुद्दा है इसलिए भाजपा सरकार धर्मांतरण के खिलाफ कानून बनायेगी। भाजपा जानती है कि इस समय सरना-ईसाई विवाद जितना जोर पकड़ेगा, आगामी चुनाव में पाटी के लिए उतना ही ज्यादा फायदेमंद होगा। इसीलिए भाजपा सरकार राज्य में धर्मांतरण को बेवजह हवा बनाकर इसके खिलाफ कानून बनाने की कोशिश में जुट गई। झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने धर्मांतरण को लेकर ईसाई मिशनरियों पर जो आरोप लगाया है और धर्मांतरण निरोधक कानून में जो प्रावधान किये गये हैं उसमें कोई नयी बात नहीं है। यह संघ परिवार का वही पुराना रटा-रटाया बात है जिसके आधारा पर उसके नेता ईसाई मिशनरियों पर हमेशा यह आरोप लगाते रहे हैं कि वे धोखाधड़ी, लालच या प्रलोभन और दबाव या धमकी के बल पर भोले-भाले आदिवासियों, दलित और गरीबों का धर्मांतरण कराते है, लेकिन वे अबतक इससे साबित नहीं कर पाये हैं। लेकिन निश्चित तौर पर सरकार से सवाल पूछा जाना चाहिए कि पिछले 16 वर्षों में राज्य में धोखाधड़ी, लालच या प्रलोभन और दबाव या धमकी देकर धर्मांतरण से संबंधित कितने मामले दर्ज किये गये है? झारखंड सरकार धर्मांतरण को लेकर एक स्वेत-पत्र क्यों नहीं जारी करती है?

भाजपा सरकार के द्वारा प्रस्तावित ‘झारखंड धर्म स्वतंत्र विधेयक 2017‘ में कड़े प्रावधान किये गये हं, जिसके तहत जबरन या प्रलोभन देकर किसी का धर्मांतरण करने को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया है। झारखंड में किसी भी व्यक्ति का जबरन या प्रलोभन देकर धर्मांतरण करानेवाले व्यक्ति को 50 हजार रूपये का जुर्माना और तीन साल की जेल की सजा मिलेगी। लेकिन आदिवासी, दलित और महिला या नाबालिक के धर्मांतरण पर सजा की अवधि को बढ़ाकर चार वर्ष एवं एक लाख रूपये का जुर्माना रखा गया है। धर्मांतरण के लिए समारोह आयोजित करने के लिए पहले उपायुक्त से अनुमति लेनी होगी तथा अपना धर्म बदलने के लिए उक्त व्यक्ति को भी उपायुक्त से अनुमति लेना होगा। ऐसा नहीं करने पर एक साल का जेल और पांच हजार रूपये जुर्माना भरने का प्रावधान है। धर्मांतरण से संबंधित किसी भी मसले की जांच इंस्पेक्टर रैंक से नीचे के अधिकारी नहीं करेंगे। धर्मांतरण एक आस्था और हृदय परिवर्तन का मसला है, जो प्रत्येक व्यक्ति के अंतःकरण पर निर्भर करता है ऐसी स्थिति में स्पष्ट है कि यह विधेयक पूर्णरूप से ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार, धर्म की स्वतंत्रता और शिक्षण संस्थानों पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास है जो भाजपा और संघ परिवार का पुराना एजेंडा है। यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार किसी के धर्म को कैसे तय कर सकता है? एक व्यक्ति कौन से भगवान पर विश्वास करेगा, किसी पूजा या आराधना करेगा और कौन से धर्म का गुणगान करेगा यह सरकार कैसे तय कर सकती है? झारखंड धर्म स्वतंत्र विधेयक व्यक्ति के धार्मिक आजादी को कुचल देती है। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में सरकार का यह कदम घोर संविधान विरोधी है। 

यहां सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या धार्मिक स्वतंत्रता के विरूद्ध कानून बनाना संविधान संगत है? धार्मिक स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, जिसे भारतीय संविधान के भाग - 3 में अनुच्छेद 25 एवं 26 के द्वारा सुनिश्चित किया गया है। इसलिए झारखंड सरकार के द्वारा राज्य में धर्मांतरण निरोधक कानून बनाने का प्रयास करना न सिर्फ धार्मिक स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों पर गंभीर हमला है बल्कि यह भारतीय संविधान पर ही हमला है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 13(2) में स्पष्ट लिखा हुआ है कि राज्य संविधान के भाग - 3 में प्रदत मौलिक अधिकारों का हनन करने वाला कोई कानून नहीं बना सकता है। इसका अर्थ यह है कि देश के विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को धार्मिक आजादी के खिलाफ कानून बनाने का कोई हक नहीं है। लेकिन भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियों ने मिलकर देश के छः राज्यो में धर्मांतरण निरोधक कानून बनाकर उसे लागू किया है, जो असंवैधानिक है, और अब झारखंड की भाजपा सरकार वही असंवैधानिक कार्य कर रही है। क्या हमलोग झारखंड सरकार को ऐसे असंवैधानिक कार्य करने देंगे? 

झारखंड में जो लोग ‘झारखंड धर्म स्वतंत्र विधेयक 2017‘ का समर्थन कर रहे हैं उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि वे भारतीय संविधान पर हमला करने वाली ताकतों का समर्थन कर रहे हैं यानी देशद्रोह का कार्य कर रहे हैं क्योंकि संविधान के खिलाफ काम करना देशद्रोह का कार्य है। यदि कोई डरा, धमका या जोर-जबर्दस्ती से किसी का धर्म परिवर्तन कराता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए भारतीय दंड विधान की धारा 295ए में पर्याप्त प्रावधान है। क्या हमलोग भाजपा और संघ परिवार को अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति और वोट बैंक के लिए भारतीय संविधान और देश की एकता और अखंडता पर हमला करने देंगे? सबसे हास्यास्पद बात यह है कि केन्द्र और राज्य सरकारें मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाने के बजाये इसके विरूद्ध कानून बनाते हैं। 

धर्मांतरण पर हो हल्ला तथ्य से परे है। झारखंड सरकार को धर्मांतरण निरोधक कानून लाने से पहले धर्मांतरण की जमीनी सच्चाई को भी देखना चाहिए था। धर्मांतरण को यदि आँकड़ों की नजर से देखा जाये तो जनगणना रिपोर्ट दर्शाता है कि भारत में ईसाई धर्मावलंबियों की जनसंख्या क्रमशः वर्ष 1951 में 2.33 प्रतिशत था, 1961 में 2.44 प्रतिशत, 1971 में 2.60 प्रतिशत, 1981 में 2.44 प्रतिशत, 1991 में 2.32 प्रतिशत, 2001 में 2.34 प्रतिशत एवं वर्ष 2011 में यह 2.30 प्रतिशत पर बरकरा है। इससे यह साबित होता है कि पिछले सात दशकों में देश में ईसाई धर्मावलंबियां की जनसंख्या 2.3 प्रतिशत पर ही अटका हुआ है। पिछले 70 वर्षों में ईसाई धर्मावलंबियों की जनसंख्या वृद्धि ही नहीं हुई है। ऐसी स्थिति में धर्मांतरण के नाम पर ढोल पीटना कितना सार्थक है? क्या भाजपा और संघ परिवार सिर्फ अपने राजनीतिक लाभ के लिए धर्मांतरण का झूठा इमारत खड़ा करके रखा है? क्या भाजपा और संघ परिवार के झूठ को बेनाकाब नहीं करना चाहिए?   

यदि हम धर्मांतरण के मसले को झारखंड के संदर्भ में देखें तो स्थिति और भी ज्यादा स्पष्ट हो जाती है। यद्यपि राज्य का गठन वर्ष 2000 में हुआ लेकिन झारखंड क्षेत्र में पड़ने वाले जिलों के जनगणना आँकड़े दर्शाते हैं कि झारखंड में ईसाई धर्मावलंबियों की जनसंख्या क्रमशः वर्ष 1951 में 4.12 प्रतिशत था, 1961 में 4.17 प्रतिशत, 1971 में 4.35 प्रतिशत, 1981 में 3.99 प्रतिशत, 1991 में 3.72 प्रतिशत, 2001 मे 4.10 प्रतिशत एवं वर्ष 2011 में यह 4.30 प्रतिशत है। इसका अर्थ यह है कि राज्य में ईसाई धर्मावलंबियों की जनसंख्या में पिछले सात दशकों में 1 प्रतिशत की भी वृद्धि नहीं हुई है। यदि हम भाजपा और संघ परिवार के नेताओं की माने तो धर्मांतरण झारखंड का सबसे बड़ा मुद्दा है इसका अर्थ यह है कि ईसाई मिशनरी राज्य में बड़े पैमाने पर सरना आदिवासियों का धर्मांतरण कर रहे हैं। लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि जब राज्य में धर्मांतरण बड़े पैमाने पर हो रहा है तो ईसाई धर्मावलंबियो की जनसंख्या वृद्धि क्यों नहीं हो रही है? क्यों ईसाई धर्मावलंबियों की जनसंख्या राज्य में पिछले 70 वर्षों में सिर्फ 4 प्रतिशत पर ही अटका हुआ है? धर्मांतरित ईसाई लोग कहां गायब हो रहे हैं? क्या सरकार बता सकती है कि झारखंड में पिछले 16 वर्षों में कितने लोगों का धर्मांतरण किया गया है? भारतीय दंड संहिता की धारा 295ए के तहत झारखंड के कितने थानों में कितने मामले दर्ज किये गये है? 

भाजपा और संघ परिवार यह आरोप लगाते हैं कि ईसाई मिशनरी लोग सेवा के नाम पर धर्मांतरण करते है। यदि ईसाई शिक्षण संस्थानों में धर्मपरिवर्Ÿन का कार्य होता है तो भारत देश और झारखंड में ईसाई धर्मावलंबियों की जनसंख्या सबसे ज्यादा ना भी हो लेकिन लगभग 50 से 60 प्रतिशत होना चाहिए था, क्योंकि सरकारी शिक्षण संस्थानों के बाद ईसाई मिशनरी ही देश और राज्य में सबसे ज्यादा शिक्षण संस्थान चलाते हैं जहां सबसे ज्यादा गैर-ईसाई बच्चे पढ़ते हैं। घर्मांतरण का प्रभाव यह भी होता कि गैर-ईसाई बच्चे ईसाई शिक्षण संस्थानों में पढ़ना छोड़ देते और ईसाई मिशनरियों के खिलाफ राज्य के विभिन्न थानों में मामले दर्ज किये जाते। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हकीकत यह है कि जो लोग ईसाई मिशनरियों पर आरोप लगाते हैं उनके पास उन आरोपों को सिद्ध करने हेतु किसी तरह का आॅँकड़ा उपलब्ध नहीं है। हद तो यह है कि ईसाई मिशनरियों पर आरोप लगाने वाले अधिकांश लोग उन्हीं ईसाई मिशनरियों के द्वारा संचलित शिक्षण संस्थानों से शिक्षा ग्रहण किये हैं और उनके बच्चे भी वहीं पढ़ते हैं। क्या भाजपा और संघ परिवार सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए समाज को धर्म के नाम पर नहीं बांट रहे हैं? क्या उन्हें यह इजाजत दी जा सकती है?

यदि हम धर्मांतरण के दावों को आदिवासियों के बीच परखें तो स्थिति और भी अलग दिखती है। आदिवासियों का धर्म आधारित जनसंख्या विभाजन दर्शाता है कि वर्ष 2001 में सरना धर्म मानने वाले आदिवासियों की जनसंख्या 45.1 प्रतिशत थी जो घटकर 2011 में 44.2 प्रतिशत हो गई। इसी तरह ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासियों की जनसंख्या 2001 में 14.5 प्रतिशत थी जो घटकर 2011 में 14.4 प्रतिशत हो गई और हिन्दु धर्म मानने वाले आदिवासियों की जनसंख्या 2001 में 39.8 प्रतिशत थी जो 2011 में घटकर 39.7 प्रतिशत हो गई। लेकिन अन्य धर्म मानने वाले आदिवासियों की जनसंख्या 2001 में 0.6 प्रतिशत थी जो बढ़कर 2001 में 1.7 प्रतिशत हो गई। इन आॅंकड़ों से यह बात स्पष्ट है कि ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासियों की जनसंख्या घट रही है, जिसका सीधा अर्थ है कि आदिवासियों का ईसाई धर्म में धर्मांतरण नहीं हो रहा है बल्कि यह भाजपा और संघ परिवार का आधारहीन आरोप है। 

देश में घर्मपरिवर्Ÿ न को हमेशा से दोहरा मापदण्ड से तौला गया है। जो आदिवासी लोग ईसाई या मुस्लिम धर्म को स्वीकार कर लिये है उन्हें धर्मपरिवर्तन का नाम दिया गया लेकिन जो लोग हिन्दू धर्म को अपनाये उन्हे ‘घरवापसी’ कहा जाता रहा है। यहीं सबसे बड़ी गड़बड़ी है, जिसके कारण सरना और ईसाई आदिवासियों पर अन्याय होता रहा है। जबकि जनगणना के आँकड़े दर्शाते हैं कि झारखंड में 39.7 प्रतिशत आदिवासी हिन्दु धर्म को मानते हं जबकि मात्र 14.5 प्रतिशत आदिवासी ही ईसाई धर्म के अनुयायी हैं। यहां मौलिक प्रश्न यह है कि यदि ईसाई धर्म मानने वाले 14.5 प्रतिशत आदिवासी धर्मांतरण के दायरे में आते हैं तो हिन्दु धर्म मानने वाले 39.7 प्रतिशत आदिवासी धर्मांतरण के दायरे में क्यों नहीं आते हैं? झारखंड में घरवापसी के नाम पर आदिवासियों का निरंतर हिन्दुकरण किया जा रहा है और इसी सच्चाई को छुपाने के लिए भाजपा और संघ परिवार धर्मांतरण का राग आलापते रहते हैं। हकीकत यह है कि भाजपा और संघ परिवार ने आदिवासियों के ईसाई धर्म में धर्मांतरण का झूठा इमारत खड़ा किया है और उसी झूठ को उनके नेता लगातार बोलते रहते हैं ताकि सरना आदिवासी लोग झूठ को सच मान लेंगे। फलस्वरूप, सरना आदिवासी लोग ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासियों से नफरत करेंगे और यह भाजपा के वोट बैंक में तब्दील होगा।

धर्मपरिवर्तन का अर्थ एक धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म अपनाना है। लेकिन जब कोई आदिवासी हिन्दू धर्म को स्वीकार करता है तो उसे घरवापसी का नाम देकर गंगा जल से शुद्ध किया जाता है। गंगा जल का महत्व सिर्फ हिन्दु धर्म में ही है। सरना धर्म में अश्द्ध वस्तु को शुद्ध करने हेतु मुर्गे की बली देकर उसके खून से शुद्ध किया जाता है। इसके अलावा जो आदिवासी लोग जन्म से ईसाई धर्मांवलंबी है उन्हें भी संघ परिवार के लोग डरा धमकाकर घरवापसी के नाम पर उनकी हिन्दुकरण करते है तो क्या यह धर्मांतरण नहीं है? इसलिए सरना आदिवासियों के साथ न्याय करने के लिए सबसे पहले धर्मपरिवर्तन का दोहरा मापदण्ड को समाप्त कर ईसाई, हिन्दु तथा अन्य धर्मों को अपनाने वाले सभी आदिवासियों को एक साथ धर्मपरिवर्तन की परिधि में रखना होगा। एक बात गौर करने वाली यह भी है कि आदिवासियों में बचपन से ही अपने नाम के साथ गोत्र लिखने का रिवाज हैं। सरना एवं ईसाई आदिवासियों ने अपने नाम के साथ अपना गोत्र कभी नहीं बदला। जबकि हिन्दू धर्म अपनाने वाले आदिवासी बच्चे अपने नाम के साथ कुमार या कुमारी लिखते हैं तथा महिलाएं देवी भी लिखती हैं तो क्या इसे धर्मपरिवर्तन नहीं कहा जायेगा?

हमें यह भी देखना चाहिए कि घर्मांतरण निरोधक कानून लागू किये गये राज्यों की स्थिति क्या है। क्या भाजपा और संघ परिवार यह बता सकते हैं कि भाजपा शासित प्रदेशों क्रमशः मध्यप्रदेश, छŸसगढ़ और गुजरात मंें धर्मांतरण निरोधक कानून लागू करने के बाद वहां के सरना आदिवासियों की स्थिति में कौन सा क्रांतिकारी परिवर्Ÿन आया है? क्या ये आदिवासी अब सुरक्षित महसूस करते हैं? क्या इन राज्यों में सरना आदिवासियों की स्थिति किसी से छुपी हुई है? क्या इन राज्यों में संघ परिवार के द्वारा बड़े पैमाने पर आदिवासियों का हिन्दुकरण नहीं किया जा रहा है? इन राज्यों में आदिवासियों को वनवासी और वनबंधु का नाम क्यों दिया जा रहा है? इन राज्यों में आदिवासियों की शिक्षा, स्वस्थ्य, पेयजल, बिजली, सड़क, रोजगार और अन्य मूलभूत सुविधाओं की क्या स्थिति है? इन राज्यों में क्यों कुपोषित बच्चे भरे पड़े हैं? क्यों आदिवासी महिलाएं खून की कमी से जूझ रही हैं?  

भाजपा शासित छŸसगढ़ में आदिवासियों के बीच क्यों तबाही मची हुई है? इन आदिवासियों को क्यों धर्मांतरण निरोधक कानून सुरक्षा नहीं दे पा रहा है? क्यों नक्सली के नाम पर राज्य में लगभग 1000 सरना आदिवासियों की हत्या की गई, 500 सरना महिलाओं के साथ छेड़खानी या बलात्कार किया गया और 17,000 सरना आदिवासियों को प्रताड़ित करते हुए विभिन्न जेलों में डाला गया? भाजपा और संघ परिवार ने इन आदिवासियों को क्यों नहीं बचाया? ईसाई मिशनरियों को दिन-रात पानी पी-पीकर गाली देने वाले क्रांतिकारी सरना आदिवासी नेता इस मुद्दे पर चुप क्यों है? क्या वे इसलिए चुप हैं क्योंकि सरना आदिवासियों के ऊपर होने वाला अन्याय भाजपा शासित प्रदेश में हुआ है और इस मसले पर ईसाई मिशनरियों का कोई संबंध नहीं है? क्या ये आदिवासी नेता भाजपा और संघ परिवार के दलाल हैं जो सिर्फ अपने आकाओं के इशारा पर नाचते हैं? 

भाजपा स्वयं को सरना आदिवासियों की हितैसी के तौर पर पेश करती है लेकिन जमीनी हकीकत ठीक इसके विपरीत है। देश के भाजपा शासित राज्यों में सरना आदिवासियों के साथ सबसे ज्यादा अत्याचार किया जा रहा है। यदि हम झारखंड में देखें तो खूंटी जिला इसका ज्वलंत उदाहरण है। यह जिला पांचवी अनुसूचीक्षेत्र के तहत आता है, जिसमें मुंडा आदिवासियों की बहुलता है। यह बिरसा मंुडा की धरती भी है। लेकिन यहां पिछले दो-तीन दशकों से कई कंपनियां अपना परियोजना स्थापित करने के लिए अपनी एड़ी-चोटी एक किये हुए हैं लेकिन जनप्रतिरोध की वजह से उन्हें जमीन नहीं मिल पा रहा है। इसी को मद्देनजर रखते हुए झारखंड सरकार ने ‘लैंड बैंक’ बनाया है, जिसमें परती जमीन बताकर जिले के 541 सरना स्थलों के कुल 488.82 एकड़ जमीन को भी ‘लैंड बैंक’ में डाल दिया गया है। इससे यह साबित होता है कि भाजपा सरकार सरना धर्मावलंबियों का जितना भी हितैशी बनने का दिखावा करे लेकिन हकीकत में उनके धर्मस्थलों को पूंजीपतियों को सौपने में उसे किसी तरह की संकोच नहीं है क्योंकि भाजपा नेताओं को सरना धर्म से कुछ लेना देना ही नहीं है।  

इसमें सबसे ज्यादा चितंनीय विषय है धर्मांतरण निरोधक कानून के लागू होने से राज्य में पड़ने वाला प्रभाव पड़ेगा। असल में इस कानून के द्वारा भाजपा सरकार एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश में जुटी हुई है। आदिवासियों के मुद्दों पर लोगों को गोलबंद करने में अहम भूमिका निभाने वाले ईसाई मिशनरियों पर लगाम लगाना, ईसाई मिशनरियों के शिक्षण संस्थानों पर हमला करना, सरना आदिवासियों को खुश कर अपना वोट बैंक को बरकरा रखना और आदिवासियों को धर्मांतरण के मुद्दे पर उलझाकर सीएनटी/एसपीटी संशोधन कानून को पास करना। यह इसलिए क्योंकि सीएनटी/एसपीटी कानूनों में संशोधन के बाद झारखंड के छोटानागपुर, कोल्हान और संताल परगना इलाका में भाजपा की राजनीतिक जमीन खिसकती नजर आ रही है और यदि इस इलाके में भाजपा का सफाया हो जाता है तो राज्य में उसका सŸााजाना निश्चित है। इससे स्पष्ट है कि इस कानून के द्वारा ईसाई मिशनरियों को आतंकित किया जायेगा। संघ परिवार से संबंधित संगठनों से जुड़े लोग इस कानून को हाथियार की तरह उपयोग करते हुए ईसाई धर्मगुरूओं और धर्मबहनों के खिलाफ फर्जी मुकदमा दर्ज करवायेंगे, उन्हें जेलों में डालवाकर उनका आत्मविश्वास को तोड़ने की कोशिश करेंगे, ईसाई समाज के द्वारा आयोजित होने वाले चंगाई सभाओं पर बेवजह हमला कर उसपर रोक लगवायेंगे और ईसाई मिशनरियों के द्वारा संचलित विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों से उसके संचालकों के खिलाफ फर्जी केस करवाकर शिक्षण संस्थानों को बंद करवाने का प्रयास करेंगे।

यहां सवाल यह भी है कि क्या सिर्फ कानून बना देने से राज्य में धर्मांतरण रूक जायेगा? हकीकत में कानून इस समस्या का हल नहीं है। धर्मांतरण रोकने के लिए डा. भीमराव अम्बेदकर ने हिन्दु धर्म के वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा को खत्म करने की सलाह दी थी जो सर्वोतम है। जिस दिन आदिवासियों, दलितों और महिलाओं को समान अधिकार दिया जायेगा, दोयम दर्जे के नागरिक व अछूत की तरह व्यवहार समाप्त कर दिया जायेगा। उस दिन देश में धर्मांतरण जैसा कोई मसला नहीं होगा। लेकिन जाति, धर्म और सम्प्रदाय के नाम से राजनीति की रोटी सेंकने वाले नेताओं से यह अपेक्षा बेईमानी है। धर्म लोगों के आस्था का प्रश्न है, जिससे लोगों के ऊपर ही छोड़ दिया जाना चाहिए। यदि सरकार ही सब कुछ तय करे कि लोग क्या खायेगें, किसकी पूजा करेगे, क्या पहनेगें तो फिर हमारी स्वतंत्रता कहाॅं है? अगर सरकारें हरेक बात पर दखलंदाजी करने लगे तो यह गुलामी से कम नहीं होगा। 

यहां मूल बात यह है कि झारखंड की भाजपा सरकार ने पिछले दिनों विधानसभा में सीएनटी/एसपीटी संशोधन कानून पारित किया था, खूंटी जिले के 541 सरना स्थलों का 488 एकड़ जमीन सहित राज्य के 21 लाख एकड़ सामुदायिक, धार्मिक एवं वनभूमि को लैंड बैंक में डाला है और राज्य में स्थानीय नीति लागू किया है, जिसके खिलाफ जनाक्रोश है और आदिवासी एकजुट होकर सरकार का विरोध कर रहे हैं। यह इसी जनाक्रोश और आदिवासी एकता को धर्म (सरना-ईसाई) के नाम पर तोड़ने का सबसे बड़ा प्रयास है। भाजपा और संघ परिवार को पता है कि राज्य में जिस दिन धर्म का विवाद खत्म हो गया उस दिन भाजपा का राजनीतिक अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा। भाजपा सरकार ने सरना आदिवासियों के अस्तित्व को बचाने के लिए नहीं बल्कि 2019 के चुनाव में अपना अस्तित्व बचाने के लिए धर्मांतरण निरोधक कानून पास करने का मन बनाया है। लेकिन भाजपा और संघ परिवार से जुड़े कुछ स्वार्थी आदिवासी नेताओं को छोड़कर अधिकांश आदिवासी लोग भाजपा की इस कुटिल चाल को अच्छी तरह से समझ चुके हैं। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह आदिवासियों को सरना-ईसाई के नाम पर लड़ाने के बजाये राज्य में विकास, शांति और सुशासन स्थापित करने का प्रयास करे क्योंकि उसके लिए बचने का सिर्फ यही उपाय है।  
  
हमारे देश की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि हमारे अधिकांश नेता भारत के संविधान को नहीं पढ़ते हैं जबकि विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनते समय वे इसी संविधान का शपथ लेते हुए कहते हैं कि वे देश/राज्य को संविधान के अनुसार चलायेंगे और संविधान की रक्षा करेंगे तथा देश की एकता और अखंडता को कायम रखेंगे। लेकिन जब सत्ता पर बैठ जाते हैं तब सिर्फ निजी स्वार्थ की पूर्ति और वोट बैंक को सुनिश्चित करने के लिए वे स्वयं संविधान का अवहेलना करते हैं, उसपर हमला करते हैं और देश की एकता और अखंड़ता को चकनाचुर कर देते हैं। यदि झारखंड सरकार को आदिवासियों की चिंता है तो उसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (5) एवं (6) में दिये गये शक्ति का उपयोग करते हुए राज्य के अनुसूचित क्षेत्र में बाहरी आबादी के इस क्षेत्र में प्रवेश, रहने, बसने, नौकरी एवं व्यापार करने पर प्रतिबंध लगाना चाहिए, विधानसभा में जल्द से जल्द सरना कोड बिल पेश कर इसे कानून का रूप देना चाहिए और प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों को मालिकाना हक देना चाहिए। भाजपा को नाकारात्मक राजनीति के बजाय राज्य हित में साकारात्मक राजनीति करनी चाहिए क्योंकि आज धर्मांतरण वास्तविक नहीं है बल्कि यह सिर्फ चुनाव जीतने के लिए दुष्प्रचार है, जो लंबे समय तक नहीं टिकेगा। धर्मांतरण नाम झूठ के बुनियाद पर बना इमारत एक दिन ढह जायेगा।    

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