ग्लैडसन डुंगडुंग
मैं पिछले कुछ वर्षों से निरंतर पश्चिमी देशों का भ्रमण करते हुए यह समझने की कोशिश कर रहा हॅं कि जिन देशों ने प्रगति, विकास एवं आर्थिक तरक्की जैसे शब्दों को गढ़ने के बाद पेड़ों को काटकर, पहाड़ों को उजाड़कर एवं जंगलों को बर्बाद कर सबसे पहले औद्योगिकरण का जाल बिछाया, आधुनिक विकास के पथ पर चला और सीमेंट, बालू एवं लोहा से बने काक्रीट जंगलों को खड़ा किया अब उनकी हालत कैसी है। क्या उन देशों के लोग बहुत खुश हैं? क्या उन्होंने अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ बचाकर रखा भी है? क्या भविष्य में उनके बच्चे प्रकृति के इस खुबसूरत सृजन को देख पायेंगे? यही आधुनिक विकास ने अबतक करोड़ों वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं के अस्तित्व को धरती से मिटा दिया है। आज दुनिया विनाश के मुहाने पर खड़ी है। धरती, वन्यजीवन एवं मानव सभ्यता का अस्तित्व दांव पर लग हुआ है। कहीं ग्लोबल वार्मिंग तो कहीं ग्लोबल कूलिंग का असर स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। इस जलवायु परिवर्तन ने विकसित देशों को चिंता में डाल दिया है। ऐसी परिस्थिति में धरती को कैसे बचाया जा सकता है? क्या कोई विज्ञानिक है जो इस काम को कर सकता है? प्रकृति, वन्यजीवन एवं मानव के सह-अस्तित्व की वकालत करने वाली आदिवासी फिलोसोफी को छोड़कर कोई दूसरा रास्ता बचा भी है?
यह समझना इसलिए जरूरी है क्योंकि हमारे देश में भी गंभीर चिंतन के बगैर ही पश्चिमी देशों का नकल करते हुए आधुनिक विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर पेड़ों को काटकर, पहाड़ों को उजाड़कर एवं जंगलों को बर्बाद कर काक्रीट जंगल खड़ा करने का काम बड़ी तेजी से निरंतर चल रहा है। फलस्वरूप, देश में बड़ी तेजी से वायु, जल एवं घ्वनि प्रदूषण बढ़ रहा है। पर्यावरण पर चर्चा जरूर होती है लेकिन धरती को क्षति पहुंचाने वाले इस विकास प्रक्रिया के खिलाफ प्रकृति के साथ जीने वाले आदिवासियों को पिछड़ा, जंगली, बोका, अनपढ़ एवं विकास विरोधी कहा जाता है। जबकि देश में प्राकृतिक संसाधन आदिवासियों के प्रतिरोध की वजह से ही सुरक्षित है। जब आदिवासी प्रतिरोध करना बंद कर देंगे तब जंगल खंडहरों में तब्दील हो जायेंगे क्योंकि कारपोरेट जगत को सिर्फ मुनाफा कमाने से मतलब है। भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, जिनका मौलिक कार्य वन एवं पर्यावरण की सुरक्षा है, ने अक्टूबर 1980 से जुलाई 2016 तक 8,97,698.40 हेक्टेअर वनक्षेत्र को विकास के नामपर उजाड़ने की अनुमति दे दी और 40,000 हेक्टेअर अतिरिक्त वनक्षेत्र को कारपोरेट जगत को सौपने की तैयारी में जुटी हुई है जबकि देश में मात्र 21 प्रतिशत वनक्षेत्र बचा हुआ है, जो पर्यावरण के लिए निर्धारित न्यूनतम मानक से 12 प्रतिशत कम है।
यह हास्यास्पद ही है कि सूचना क्रांति के इस दौर में भी शासक वर्ग आधुनिक विकास माडल के सिर्फ एकपक्ष से दुनिया को रू-ब-रू कराता है। आधुनिक विकास के नाम पर किये गये प्रकृति का विनाश, वन्य-जीवन की बर्बादी और आदिवासियों की तबाही पर चर्चा नहीं की जाती है। विज्ञान एवं टेक्नोलाजी के तरक्की पर वहवाही लूटी जाती है लेकिन उसके नकारात्मक प्रभाव पर चर्चा नहीं होती है चाद पर जाने की शोरगुल है लेकिन वहां जाते समय राके के द्वारा धरती पर छोड़े गये गर्मी और धुंआ के प्रभाव पर चर्चा नहीं होती है। पश्चिमी देशों ने आधुनिक विकास के नामपर किये कुकर्म को रेड कारपेट से ढांककर रखता था। लेकिन प्रकृति अपने नियम के अनुसार चलती है, जिसने समय के साथ दुनिया के सामने इन्हें नंगा कर दिया। अब पश्चिमी देश जलवायु परिवर्तन का रोना रो रहे हैं। पश्चिमी देशों ने आधुनिक विकास के नामपर पेड़ों को काटकर, पहाड़ों को उजाड़कर एवं जंगलों को बर्बाद करते हुए बड़े-बड़े इमारत खड़े किये, जिससे विकास मान लिया गया।
लेकिन आज फ्रांस जैसे कई देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण बर्फ की पहाड़ी पिछलकर खत्म हो रहा है। पेरिस जैसे शहरों में न पेड़ दिखाई पड़ते हैं, न बरसात में मेंढ़कों का टर्राना सुनाई देता है और न ही सुबह-शांम पक्षी चहचहाते दिखाई पड़ते हैं। यहां का तापमान बढ़ने से लोग चिंतित हैं। पश्चिमी देशों के विकसित शहर अब शमशान या कब्रगाह जैसा विरान लगने लगे हैं। ऐसा लगता है कि अंधाधुंध विकास की दौड़ में इन शहरों को विकसित करते समय अपने वाले पीढ़ियों के लिए ठीक से सोचा नहीं गया। यह मूलतः आधुनिक विकास और मुनाफा आधारित आर्थिक माडल की देन है, जिसे नाकारना बहुत मुश्किल है। क्या आनेवाली पीढ़ियां अपने पूर्वजों को नहीं कोसेंगे? इसी को ध्यान में रखकर आदिवासी अपने आने वाले कई पीढ़ियों के बारे में सोच-विचार कर कोई कदम उठाते हैं। वे प्रकृति, वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं के अस्तित्व को अपने अस्तित्व के लिए जरूरी मानते हैं।
आदिवासी भाषाओं में ‘लाभ, मुनाफा, लालच, शोषण एवं दोहन’ जैसे शब्द नहीं हैं। इसलिए वे न मुनाफा कमाने के लिए सोचते हैं, न किसी का शोषण करते हैं और न ही प्राकृतिक संसाधनों का दोहन। बल्कि वे प्रकृति के साथ जीते हैं और प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपने रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए करते हैं। आदिवासी जंगलों के अंदर रहते हैं, जंगलों की सुरक्षा करते हैं और वनोपज से अपने रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करते हैं न कि वे पूरा जंगल को ही काटकर रख लेते हैं। लेकिन स्वयं को मुख्यधारा, सभ्य, शिक्षित, विकसित एवं आधुनिक घोषित कर चुका गैर-आदिवासी समाज के शब्दकोष में ‘लाभ, मुनाफा, लालच, शोषण एवं दोहन’ शब्द मौजूद हैं। इसलिए यह समाज सिर्फ मुनाफा कमाकर अपनी लालच को पूरा करने के लिए एक-दूसरे का शोषण एवं प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब दोहन करता है। मुनाफा पर आधारित अर्थव्यवस्था एवं आधुनिक विकास ने दुनिया को तबाही की दिशा में लाकर खड़ा कर दिया है। दुनिया के महान वैज्ञानिक स्टेफन हाकिंग ने दुनिया छोड़ने से पहले कहा कि हमने धरती को तबाह करने के लिए बहुत कुछ अविष्कार किया है लेकिन धरती को बचाने के लिए एक भी नहीं। क्या कोई वैज्ञानिक है जो गर्म हो रही धरती को ठंढ़ा करने का मशीन बना सकता है?
अब पश्चिमी देशों में हो रहे अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में चर्चा चल रहा है कि धरती, वन्यजीवन और मानव सम्यता को बचाने के लिए आदिवासियों के जैसा जीना पड़ेगा यानी प्रकृति से प्यार करना, उसकी रक्षा करना और उसके साथ जीना। प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए करना न कि इसका दोहन करना। इतना ही नहीं मैंने देखा है कि लंदन में रहने वाले 25 समृद्ध परिवारों ने अपनी पूरी सम्पति बेचकर वेल्स नामक छोटे से देश में 175 एकड़ जंगल खरीदकर जंगल के अंदर छोटा-छोटा घर बनाकर रह रहे हैं। वे कहते हैं कि आधुनिक विकास पागलपन है। इससे दुनिया बर्बादी को ओर जा रही है। इसलिए हमें स्वीकार करना होगा कि धरती को बचाने के लिए पेड़-पौधो, पहाड़ों और जंगलों से प्यार करने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। आदिवासी समाज उत्पत्ति से यही कर रहा है। दुनिया को आदिवासी समाज से अभी बहुत-कुछ सीखना बाकी है क्योंकि आदिवासी फिलोसोफी को छोड़कर दुनिया को बचाने का दूसरा रास्ता ही नहीं बचा है।
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