गुरुवार, 3 जनवरी 2019

औद्योगिक विकास का परिणाम

ग्लैडसन डुंगडुंग 

आगामी एक दशक के बाद कोलकाता, मुंबई और दिल्ली जैसे शहर रहने लायक नहीं होंगे क्योंकि वहां का तापमान एवं प्रदूषण बहुत ज्यादा बढ़ जायेगा। ऐसा भी स्थिति पैदा हो सकता है कि लोग बड़े शहरों को छोड़कर छोटे शहरों, गांवों और जंगलों की ओर भागने लगेंगे। लेकिन तब कोई भी स्थान पर्यावरण की दृष्टिकोण से सुरक्षित नहीं बचेगा। लोग कहीं बाढ़ से तबाह होंगे, कहीं सुखाड़ उनका जान ले लेगा, कहीं वे खतरनाक लू के चपेट में आयेंगे, कहीं हिमपात उनका जान ले लेगा और कहीं खेती नहीं होने से भूखमरी आफत बानकर आयेगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि जनहित, राष्ट्रहित एवं विकास के नाम पर किये गये बेहिस्साब औद्योगिकरण और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन ने धरती के तापमान को बढ़ा दिया है और यदि यह बढ़ोतरी 2 डिग्री सेल्सियत तक पहुंचता है तो तबाही होना तय है। इस खतारनाक स्थिति में पहुंचने के बाद भी हमारे देश के नेता औद्योगिकरण और पूंजीनिवेश पर ही जोर दे रहे हैं। वे दुनिया के पूंजीपतियों को भारत में पूंजीनिवेश करने के लिए आमांत्रित कर रहे हैं। लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने यह कहते हुए दुनिया में चेतावनी जारी कर दिया है कि यदि धरती को बचाकर रखना है तो ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन रोकना होगा जो औद्योगिकरण से बढ़ रहा है।   

वैश्विक जलवायु परिवर्तन को लेकर संयुक्त राष्ट्र की संस्था आईपीसीसी के द्वारा 8 अक्टूबर 2018 को जारी ‘‘ग्लोबल वार्मिग आफ 1.5डीसी’’ नामक रिपोर्ट ने दुनिया को चिंता में डाल दिया है और हमें भी। रिपोर्ट का सारंश यह है कि तबाही की दिशा में बढ़ते जलवायु संकट को रोकने के लिए हमारे पास सिर्फ एक दशक का समय बचा है। यदि हम धरती को जीने लायक जगह बनाये रखना चाहते हैं तो हमें ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकना ही होगा, जिसका सीधा अर्थ है प्राकृतिक संसाधनां का बेहिस्साब दोहन को रोकना यानी खनिज आधारित उद्योगों को बंद करना एवं पेट्रोलियम पदार्थों का उपयोग कम करना। धरती का औसत तापमान औद्योगिकरण के शुरूआती दशकों 1880 से 1910 में सालाना 13.7 डिग्री सेल्सियस था जो 21वीं सदी के पहले दशक में बढ़कर 14.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया है। संस्था ने चेतावनी देते हुए कहा है कि औद्योगिकरण के शुरूआती दशकों के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि को धरती बर्दाश्त कर सकती है लेकिन यदि यह 2 डिग्री तक बढ़ गया तो दुनिया में तबाही मच जायेगी, जिसमें सबसे ज्यादा प्रभावित भारत, पाकिस्तान और चीन होगा। फलस्वरूप, करोड़ों लोग भीषण गर्मी, लू, सुखाड़, बाढ़ और हिमपात की चपेट में आयेंगे।  

वैश्विक जलवायु परिवर्तन को लेकर 12 दिसंबर 2015 को हुए ‘पेरिश समझौता’ में दुनियां के सभी देशों ने मिलकर धरती के तापमान को 2 डिग्री सेल्सिलय से नीचे रखने का निर्णय लिया है। इस निर्णय में भारत भी शामिल है लेकिन हमारे देश की जमीनी हकीकत कुछ अलग दिखाई देती है। भारत में अक्टूबर 1980 से जुलाई 2016 तक कुल 8,97,698.40 हेक्टेअर वनक्षेत्र को विकास कार्यों में लगा दिया गया जबकि देश में मात्र 21 प्रतिशत वनक्षेत्र बचा हुआ है जो पर्यावरण संतुलन के लिए आवश्यक एक तिहाई क्षेत्रफल यानी 33 प्रतिशत से बहुत कम है। लेकिन विकास के नाम पर पेड़ काटने और जंगलों को उजाड़ने का काम जारी है। देश में पर्यावरण की हालत इतना खराब होने के बावजूद केन्द्र एवं राज्य सरकारे औद्योगिकरण पर क्यों जोर देती हैं? क्या गरीबी, अशिक्षा एवं बेरोजगारी को खत्म करने के लिए औद्योगिकरण जरूरी है? प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किसके हितों को साधने के लिए किया जा रहा है? जब जनहित, विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों को बड़े पैमाने पर दोहन किया जा रहा है तो उन प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित सामुदाय यानी आदिवासियों का जीवन स्तर में बदलाव क्यों नहीं आ रहा है? खनिज सम्पदाओं से भरे इलाके का अबतक विकास क्यों नहीं हुआ? क्या सिर्फ खनिज सम्पदा का दोहन करने के लिए ‘विकास’ शब्द को पासवर्ड की तरह उपयोग किया जाता है? खनिज सम्पदा से निकला पैसा कहां जा रहा है? 

औद्योगिक विकास के नाम पर हो रहे प्राकृतिक संसाधनों का बेहिस्साब दोहन के पीछे दो बड़े कारण हैं - लालच और मुनाफाखोरी पर आधारित बाजारू अर्थव्यवस्था और खरीद-बिक्री वाला लोकतंत्र। आज का अर्थव्यवस्था लालच और मुनाफाखोरी पर आधारित है। कारपोरेट घराने के लोग प्राकृतिक सम्पदा का बेहिस्साब दोहन कर रहे हैं और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए वैसे वस्तुओं का उत्पादन कर रहे हैं जो जरूरी नहीं है। कारपोरेट घनाना और राजनीतिक दलों के बीच बहुत बड़ा गांठजोड़ है। यह गांठजोड़ प्राकृतिक सम्पदा की लूट का मूल कारण है। इनके लिए पर्यावरण कोई मायने नहीं रखता है। यही गांठजोड़ जंगलों और पहाड़ों को नष्ट करते हुए इंट, सीमंट, बालू, गिट्टी और लोहा से बना कांक्रीट का जंगल खड़ा कर रहे हैं। इनके लालच और मुनाफाखोरी के कारण ही जलवायु संकट पैदा हुआ है, जसका सबसे ज्यादा असर कमजोर तबकों पर पड़ रहा है। हमारे देश के नेता अपने भाषणों में ‘आम जनता’ को अपना आलाकमान बताते हैं लेकिन वे किन-किन औद्योगिक घरानों से चन्दा लेते हैं उसे उन्हें बताने से डरते हैं। जैसे देश की एक राष्ट्रीय पार्टी ने अडाणी कंपनी से चुनाव लड़ने के लिए चंदा लिया और सरकार बनाने के बाद विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन, पानी और खनिज सम्पदा उसे दे दिया। क्या लाभ कमाने के लिए चुनाव में पैसा खर्च करने के बाद जमीन, पानी और खनिज सम्पदा हासिल करने वाली कंपनी को पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से कुछ लेना-देना रहेगा? राजसत्ता, राजनीतिक दल और पूंजीपतियों का गांठजोड़ धरती को बर्बाद कर देगा।   

जलवायु संकट से दुनिया को बचाने के लिए सिर्फ एक ही तरीका है और वह है आदिवासी जीवन-दर्शन, जिसका मूल है प्रकृति के साथ सामूहिकता में जीना और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्राकृतिक सम्पदा का उपयोग करना है। आप विज्ञान के तरक्की का चाहे जितना भी दावा कर लें लेकिन सच्चाई यही है कि गर्म हो रही धरती को वैज्ञानिक ढंठा नहीं कर सकते हैं। वैश्विक जलवायु परिवर्तन को आप कोई यंत्र से नहीं रोक सकते हैं बल्कि इसके लिए ज्यादा से पेड लगाना और वनक्षेत्र को बढ़ाना होगा। आज हमारी हालत ऐसी इसलिए हुई है क्योंकि गैर-आदिवासी जो सभ्य, शिक्षित एवं विकसित होने का दावा तो करते हैं लेकिन असल में उनका जीवन-दर्शन लालच, मुनाफाखोरी, बेईमानी, शोषण और दोहन पर आधारित है। वे अपने लालच को पूरा करने के लिए मानव का शोषण और प्राकृतिक सम्पदा का बेहिस्साब दोहन करते हैं। ऐसी स्थिति में यदि उर्जा के स्रोत को कोयला और कच्चा तेल से हटाकर सौर उर्जा या कोई अन्य विकल्प में तब्दील कर भी दिया जाता है तब भी स्थिति बहुत ज्यादा तबतक नहीं बदलेगी जबतक हम जरूरत पर आधारित अर्थव्यवस्था को नहीं अपनायेंगे। इसलिए इंधन से लेकर आवागमन के संसाधनों का उपयोग, प्राकृतिक सम्पदाओं की उपयोगिता, औद्योगिक विकास, गाड़ियों का निर्माण एवं इमारतों का निर्माण सिर्फ जरूरत के आधार पर करने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए न कि कारपोरेट घरानों को मुनाफा पहुंचाने के लिए जनहित, विकास और आर्थिक तरक्की जैसे शब्दों का लेबल लगाकर धरती को बर्बाद करने हेतु नीति। क्या आपलोग आदिवासियों की सुन रहे हैं?

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