ग्लैडसन डुंगडुंग
झारखंड सरकार के द्वारा छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 एवं संताल परगना काश्तकारी अनुपूरक अधिनियम 1949 में किये गये संशोधनों के खिलाफ उठे जनाक्रोश में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा भी शामिल होते हुए दिखाई पड़े थे। उन्होंने भारत मुंडा समाज के कई आयोजनों में अपनी ही सरकार के मंशा पर सवाल उठाया। इतनी ही नहीं उन्होंने सीएनटी/एसपीटी संशोधन को लेकर झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास को सात पेज का एक लंबा पत्र लिखकर उन्हें कटघरे में खड़ा कर दिया। उनके द्वारा कई मंचों पर उठाये गये प्रश्नों एवं इस पत्र को पढ़ने से ऐसा लगता है कि अब वे क्रांतिकारी हो गये हैं। उन्हें आदिवासियों की चिंता है। वे आदिवासियों की जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधनों को बचाना चाहते हैं। वे आदिवासी समाज की सुरक्षा चाहते हैं। लेकिन क्या यह बदलाव स्थायी या सिर्फ दिखावा है? क्या यह बदलाव पिछले चुनाव में हार की वजह से हुई है? क्या आदिवासी समाज का भावनात्मक उपयोग कर राजसत्ता हासिल करने के लिए यह बदलाव है?
ऐसे प्रश्न उठना लाजमी है क्योंकि झारखंड के मुंख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल में अर्जुन मुंडा ने जो आदिवासी विरोधी काम किया है उसे उनपर इतना जल्दी विश्वास नहीं किया जा सकता है। इसे गंभीरता से समझने के लिए 2 दिसंबर 2016 को उनके द्वारा झारखंड के मुंख्यमंत्री रघुवर दास को लिखे गये पत्र के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर गौर करना होगा। वे लिखते हैं कि ‘आज आदिवासियों के मन में कई सवाल कौंध रहे हैं। क्या भगवान बिरसा के अलगुलान के बाद आजादी पूर्व अंग्रेजों द्वारा बनाये सीएनटी एक्ट के तहत आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन पर मिले अधिकारों व संरक्षण को अपने देश की सरकार ही उनसे छीन लेगी?’’ उन्होंने अपनी बातों पर वजन डालने के लिए धरती आबा बिरसा मुंडा का सहारा लिया। लेकिन उन्होंने अपने शासन काल में उलगुलान की धरती को ही मित्तल कंपनी के पास गिरवी रखने की पूरी कोशिश की थी। क्या अर्जुन मुंडा यह भूल गये कि कैसे उन्होंने मुंडा दिसुम को मितल नगर बनाने के लिए लंदन गये थे? मितल कंपनी के जिस 12 मिलियन टन स्टील उत्पादन करने के लिए लगभग 1000 एकड़ जमीन की जरूरत थी लेकिन अर्जुन मुंडा ने 25,000 एकड़ जमीन और 20,000 क्यूबिक पानी प्रतिदिन देने के लिए एम.ओ.यू. किया था और उस एम.ओ.यू. को अपने एक वर्ष के कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि बतायी थी। क्या अर्जुन मुंडा को तब बिरसा भगवान याद नहीं आये थे?
अर्जुन मुंडा ने अपने पत्र में सबसे बड़ा सवाल उठाते हुए लिखा है, ‘‘क्या सरकार आदिवासियों की जमीन छीनना चाहती है? यह सवाल अर्जुन मुंडा को खूद अपने घेरे में लेने के लिए काफी है क्योंकि जब उन्होंने मितल कंपनी के साथ एमओयू किया तब उस मुंडा दिसुम के लोग गोलबंद होकर निरंतर प्रतिरोध करते रहे। लेकिन उन्होंने आदिवासियों की आवाज को कभी सुनने की कोशिश नहीं की। उन्होंने आंदोलनकारियों के साथ एक बार भी वार्ता नहीं किया बल्कि मितल कंपनी के लिए आदिवासियों की 25,000 एकड़ जमीन छीनने के लिए पुलिस एवं प्रशासन को लगा दिया। आज अर्जुन मुंडा किस मुंह से बोल रहे हैं कि झारखंड सरकार आदिवासियों की जमीन छीनना चाहती है?
उन्होने अपने पत्र में संविधान की पांचवीं अनुसूची का जिक्र करते हुए लिखा है कि ‘पांचवीं अनुसूची में ‘‘राज्यपाल होता है न कि मंत्री-परिषद्। इतना ही नहीं उन्होंने आदिवासी सलाहकार परिष्द, पेसा कानून 1996, समता जजमेंट 2007 एवं भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनव्र्यवस्थान कानून 2013 का जिक्र किया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या उन्होंने अपने कार्यकाल के समय मितल कंपनी से एमओयू करने से पहले राज्यपाल, आदिवासी सलाहकार परिषद् और ग्रामसभाओं से सलाह-मशविरा किया था? जब ग्रामसभाओं ने मितल कंपनी के प्रस्तावित परियोजना का विरोध किया तब उन्होंने ग्रामसभाओं की बात क्यों नहीं माना?
अर्जुन मुंडा अपने पत्र के अंत में लिखते हैं कि ‘नए संशोधनों से आदिवासियों के शोषण और विस्थापन मे अप्रत्याशित बढ़ोतरी की प्रबल आशंका बनती है। यदि ऐसा हुआ तो वे अपने अधिकारों से वंचित हो कर जीवनयापन के लिए अपनी मातृभूमि को छोड़कर पलायन करने को मजबूर हो जाएंगे। यह न केवल आपका नैतिक और संवैधानिक कर्तव्य है बल्कि आपकी व्यक्तिगत जिम्मवारी भी है कि आप आदिवासियों के पहली पंक्ति के संरक्षक बनकर उनके साथ खड़े रहें और यह सुनिश्चित करें कि झारखंड सरकार की नीतियां और कार्य संविधान सम्मत हो।’’ उपरोक्त पक्तियों को पढ़ने से कोई भी क्या अर्जुन मुंडा आदिवासियों के अंतिम पंक्ति के संरक्षक बने थे इसलिए मुंडा दिसुम को मितल कंपनी के हवाले कर दिया था? क्या आदिवासियों की 25,000 एकड़ जमीन मितल कंपनी को देकर अर्जुन मुंडा किस तरह से आदिवासियों के अधिकारों का संरक्षण कर रहे थे? क्या मितल के परियोजना से आदिवासी शोषित और विस्थापित नहीं होते? क्या मितल कपनी के परियोजना से विस्थापित होने वाले लाखों आदिवासी पलाचन करने को मजबूर नहीं होते? किस नैतिक एवं संवैधानिक जिम्मेवारी के तहत अर्जुन मुंडा ने आदिवासियों को विस्थापित करने वाली इतनी बड़ी परियोजना को स्वीकृति प्रदान की थी? क्या यह अर्जुन मंडा का संवैधानिक सम्मत कार्य था?
अर्जुन मुंडा न कभी क्रांतिकारी थे और न ही वे कभी क्रांतिकारी हो सकते हैं। अर्जुन मुंडा के क्रांतिकारी बनने के पीछे असली मकसद है आदिवासियों को एक सीढ़ी की तरह उपयोग कर सत्ता हासिल करना। झारखंड में देश का 40 प्रतिशत खनिज सम्पदा होने एवं औद्योगिक घरानों के साथ सैकड़ों एमओयू करने के बावजूद राज्य के पिछले एक दशक से कोई बड़ा कंपनी का परियोजना स्थापित नहीं हो पाया था। इसी को मद्देनजर रखते हुए कारपोरेट जगत एवं भाजपा ने राज्य में गैर-आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए एक षड्यंत्र रचा था। अर्जुन मुंडा एक कदावर नेता हैं, जिनके रहते भाजपा एक गैर-आदिवासी को मुंख्यमंत्री बनाने की हिम्मत नहीं कर सकती थी। इसलिए पिछले विधानसभा चुनाव में उन्हें एक षड्यंत्र के तहत हराया गया। मोदी लहर में भाजपा के अधिकांश नेता चुनाव जीत गये लेकिन अर्जुन मुंडा चुनाव हार गये क्योंकि भाजपा के लोगों ने विपक्ष के उम्मीदवार को वोट दिया। जब यह बात अर्जुन मुंडा को पता चला तब उनके पैर के नीचे की जमीन खिसक गई। अब उनको एहसास हो चुका है कि यदि उन्हें सत्ता तक पहुंचना है सिर्फ आदिवासियों पर भरोसा करना होगा। सीएनटी/एसपीटी संशोधन का मामला उन्हें आदिवासियों के करीब लायेगा और वे इसी का फायदा उठाने के लिए क्रांतिकारी बनने की कोशिश में जुटे हुए हैं।
ब्राह्मणवादी पार्टी ने कैसे अर्जुन मुंडा को भ्रष्ट करके फिर एक गैर-आदिवासी नेता रघुवर दास को झारखंड का मुख्यमंत्री बनाकर इस राज्य का बेड़ागर्क करती है उसपर भी कुछ लिखिए ग्लैडसन दादा !
जवाब देंहटाएं