गुरुवार, 3 जनवरी 2019

मुंडा दिसुम के मौलिक सवाल?

 ग्लैडसन डुंगडुंग

3 दिसंबर 2018। चुकलू हातु में सनाटा पसरा हुआ है। यह मुंडा आदिवासियों का गांव है, जो झारखंड के खूंटी जिले में जंगल के अंदर स्थित है। सरकारी भाषा में यह सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में से एक है। यहां प्रकृति का अद्भुत दृश्य है। दूर से सिर्फ घुमावदार जंगल दिखाई पड़ते हैं। लेकिन जंगल के बीच में गांव है। खेतों में पके धान के पीले पौधे प्रकृति की खुबशूरती में चार चांद लगाते हैं। हवा शुद्ध है, पानी शुद्ध है और लोग भी। लेकिन औद्योगिकरण के प्रभाव से हो रहे जलवायु परिवर्तन ने यहां भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। इस वर्ष समय पर बारिश नहीं होने से उपरी सतह के कई खेतों में धान के पौधे सूख गए हैं, उनमें अनाज नहीं है सिर्फ पुआल बचा हुआ है, जो मवेशियों के चारा का काम आयेगा। लेकिन अधिकांश गहरे खेतों में धान की फसल अच्छी हुई है। जीवन में ऐसा द्वंद अक्सर दिखाई पड़ता है। यह कटनी का समय है। सुबह से मुंडा आदिवासी अपने-अपने खेतों में धान काटने में व्यस्त हैं। मन में सवाल उठता है कि धान काटना छोड़कर सभा में शामिल होने कौन आयेगा?  

लेकिन दोपहर होते-होते आस-पास के 15 गांवों के आदिवासी अपनी पीड़ाओं को लेकर चुकलू हातु के अखड़ा में ईमली पेड़ों के नीचे आकर बैठ जाते हैं। यही मुंडा आदिवासियों की खासियत भी है। वे अपनी जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए तत्पर रहते हैं। मुंडाओं को लड़ाकू माना जाता है। अखड़ा के एक हिस्से में दो बड़े-बड़े टेबलनुमा पत्थर गाड़े गये हैं, जहां गांव एवं यहां के रैयतों के बारे में जानकारी स्पष्टरूप से लिखा हुआ है। यह गांव का खतियान है, जिसे राजसत्ता भयभीत है क्योंकि वह इस इलाके को कबजाकर पूंजीपतियों को सौपना चाहता है। लेकिन दीवार की तरह खड़े ये निर्जीव पत्थर मुडाओं को उलगुलान का हौसला देते हैं। ये याद दिलाते हैं कि इनके पूर्वजों के खून-पसीना इस मिट्टी से सने हुए हैं, जिसे बचाकर आने वाली पीढ़ी को सौपना इनका फर्ज है। इसलिए मुंडा आदिवासी अपनी जान की परवाह किय बगैर राजसत्ता को चुनौती देते रहते हैं। 

आमसभा की शुरूआत करते हुए गांव के बिरसा हंस दुरंग करते हैं - ‘‘अबु आदिवासी मुंडा को संगबोंगा कबु बागीया, हठि-कुठि राड़ी-बाड़ी जाति को ओते हासा को रेओं जद बुआ।’’ (हम आदिवासी मुंडा लोग सिंगबोंगा को नहीं छोड़ेगें, दिकु हमारी हमीन को लूट रहे हैं।) यह दुरंग बिरसा उलगुलान के समय का है लेकिन आज की हकीकत से पूर्णरूप से मेल खाता है। इसलिए मुंडाओं ने इसे अपने हृदय से लगाकर रखा है। बिरसा उलगुलान का मतलब उन्हें समझाने की जरूरत नहीं होती है। वे जानते हैं की उन्हें अपनी जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए अंतिम सांस तक लड़ते रहना होगा।   

125 साल पहले दिकुओं ने मंडा आदिवासियों की जमीन को कई हथकंडे अपनाकर लूटा था तब यह दुरंग गढ़ा गया था। बिरसा उलगुलान के प्रभाव को देखते हुए ब्रिटिश हुकूमत ने 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम लागू किया रैयतों की जमीन को सुरक्षा प्रदान करने के लिए। लेकिन सत्ताधीशों ने इस कानून को ईमानदारी से लागू नहीं किया। इसलिए आदिवासियों की जमीन लूट आज और भी ज्यादा भयावह होता जा रहा है। इसी बीच एक युवा उठ खड़ा होता है। वह काफी गुस्से में है। वह ओजस्वी स्वर में सवाल उठाता है, ‘‘झारखंड सरकार ने हमारे गांवों की सामाजिक जमीन, सरना स्थल और जंगल-झाड़ की जमीन को लैंड बैंक में क्यों डाला है? यह ग्रामसभा की जमीन है तो फिर सरकार को इसकी इजाजत किसने दी? क्या सरकार के पास यह अधिकार है? हमारी जमीन कैसे बचेगी?’’ ऐसा ही सवाल प्रत्येक गांव के लोग पूछते हैं। क्या राजसत्ता इन्हें इन सवालों का जवाब दे सकता है?   

मुंडा दिसुम अब शांत प्रतीत होता है लेकिन मुंडाओं के अंदर असंतोष की आग धधक रही है जमीन के अंदर कोयले में लगी आग की तरह। सरकार ने पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों का उपयोग कर जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधनों पर अपना मालिकाना हक का दावा करने वाले अगुओं को जेलों में बंद कर दिया है देशद्रोह का आरोप लगाकर ठीक उसी तरह जिस तरह से अंग्रेज सरकार ने धरती आबा बिरसा मुंडा को जेल में बंद कर दिया था। अब यहां कोई भी सभा सरकार के इजाजत के बिना करना गुनाह है। सरकार से आदेश लेने के बावजूद इस आमसभा में भी सीआपीएफ के एक दिकु आफिर तीन आदिवासी जवानों के साथ आ धमके। वे लोगों के बातों को गौर से सुनते रहे ताकि उन्हें देशद्रोही घोषित कर सके लेकिन इस बार उन्हें खाली हाथ ही वापस लौटना पड़ा क्योंकि मुंडाओं ने इस सभा में सिर्फ अपने संवैधानिक, कानूनी एवं पारंपरिक अधिकारों को सख्ती से लागू करने की बात की।   

मुंडा दिसुम को पुलिस छवनी में बदल दिया गया है। विडंबना यह है कि यहां प्रत्येक पांच किलोमीटर की दूरी पर अर्द्धसैनिक बलों का एक स्थायी कैंप है। लेकिन बीमार पड़ने पर इलाज करने के लिए मुंडा आदिवासियों को 40 से 50 मिलोमीटर की दूरी तय कर सरकारी अस्पताल जाना पड़ता है जहां सही इलाज और दवा की गारंटी भी नहीं है क्योंकि सरकारी अस्पताल खूद बीमार पड़े हैं। भारत के लोकतांत्रिक सरकारों ने पिछले सतर वर्षों में इस क्षेत्र में एक अच्छी सड़क तक नहीं दिया है। गडढ़े और बोल्डरों का सामना करते हुए लोग किसी तरह अपना गंतब्य स्थानों में पहुंचते हैं। विद्यालय पुलिस कैंप में तब्दील हो चुके हैं। कई स्कूलों में बच्चें कैंप के अंदर ही पढ़ते हैं। उन्हें प्रतिदिन बंदूकों का सामना करना पड़ता है। वे खिचड़ी खाते हैं। इस क्षेत्र में एक भी उच्च विद्यालय नहीं है इसलिए बच्चों को आगे की पढ़ाई करने के लिए 30 से 40 मिलोमीटर की दूरी तय करना होता है, जो साईकिल से संभव नहीं है। इसलिए अधिकांश बच्चे विद्यालय जाना छोड़ देते हैं। निश्चितरूप से ये बच्चे भारत देश के भविष्य नहीं हैं।  

झारखंड सरकार ने इस क्षेत्र के ग्रामसभाओं को सरकारी ग्रामसभा में तब्दील कर दिया है। इसके लिए हातु मुंडा को एक हजार रूपये प्रतिमाह वेतन दिया जाता है। असल में यह वेतन नहीं आदिवासियों की जमीन लूटने में मदद करने के लिए राजसत्ता के द्वारा दिया गया घुस है वरना आज तो मजदूर भी प्रतिमाह पांच से आठ रूपये कमाते हैं। यहां सरकार ही कानूनों का कत्ल करती है लेकिन मुंडाओं को देशद्रोही बताकर जेल में डालती है। 23 अक्टूबर 2018 को अड़की के अंचलाधिकारी ने कुरूंग और कोचंग गांवों में ग्रामसभा का आयोजन करने का फरमान जारी किया। आदेश-पत्र में लिखा था कि कुरूंग एवं कोचांग गांवों में सामुदायिक भवन निर्माण हेतु पुलिस अधीक्षक, खूंटी से अधियाचना प्राप्त हुआ है, जिसके लिए दोनों गांवों में 2.47-2.47 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाना है। इसलिए उक्त योजना हेतु इन गांवों में 29 एवं 30 अक्टूबर को ग्रामसभा आयोजित है, जिसमें सभी सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य है।  

भूमि अधिग्रहण को लेकर उक्त गांवों लोग सवाल उठा रहे हैं कि ग्रामसभा के आयोजन का आदेश अंचलाधिकारी कैसे दे सकते हैं? कौन से कानून के तहत उन्हें यह अधिकार दिया गया है? गांवों के विकास का काम कब से पुलिस अधीक्षक के हाथों में सौपा गया है? यदि विकास का काम पुलिस अधीक्षक देखेंगे तो जिला के उपायुक्त क्या करेंगे? जब दोनों गांवों में सामुदायिक भवन पहले से मौजूद हैं फिर सामुदायिक भवन किसके लिए बनाना है? 2.47 एकड़ जमीन में किस तरह का सामुदायिक भवन बनेगा? झारखंड मं इतना बड़ा सामुदायिक भवन नहीं है। गांव का सामुदायिक भवन के लिए 10 से 15 डीसमील जमीन काफी है। लेकिन अंदर की बात यह है कि सामुदायिक भवन के नामपर जमीन का अधिग्रहण कर दोनों गांवों में स्थायी पुलिस कैंप बनाने की योजना है इसलिए पुलिस अधीक्षक ने अंचलाधिकारी को अधिसूचना भेजा है। पुलिस कैंप बनाने के लिए सरकार को जमीन नहीं मिल सकता है इसलिए आदिवासियों को अंधेरा में रखकर जमीन अधिग्रहण करने की कोशिश की जा रही है।  

लेकिन सरकार की असली मांशा को समझकर मुंडा लोग जमीन नहीं देना चाहते है इसलिए पुलिस अपनी शक्ति का प्रयोग कर रही है। 29 अक्टूबर 2018 को कोचांग के हातु मुंडा सुखराम सोय को खूंटी पुलिस ने खूंटी बाजार में चाय पीते समय उठा लिया और थाना में कई घंटो तक रखा। पुलिस पदाधिकारियों ने उन्हें धमकाया कि यदि वे जमीन अधिग्रहण वाले दस्तावेज में दस्तखत नहीं करते हैं तब उसका परिणाम बहुत बुरा हो सकता है। उन्हें ‘पत्थलगड़ी’ के केसा में फंसाकर जेल में सड़ा दिया जा सकता है। इसी तरह की धमकी अन्य लोगों को भी मिल रही है। ‘पत्थलगड़ी’ आंदोलन को असंवैधानिक और देशद्रोही कदम बताकर आंदोलन के नेतृत्वकर्ता एवं कई हातु मुंडाओं को जेल भेज दिया गया है। असल में यह आंदोलन ने ‘भूमि अधिग्रहण’ के लिए खतरा बन चुका था। यह स्पष्ट हो चुका है कि जो आदिवासी अपनी जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधनों को सरकार और पूंजीपतियों को देने से इंकार करेगा वह देशद्रोही है। लेकिन मुंडाओं को इसे फर्क नहीं पड़ता है। उनके पूर्व लड़े वे भी लड़ेंगे। 
मुंडा लोग सवाल पूछ रहे हैं कि क्या पत्थलगड़ी आंदोलन असंवैधानिक था? क्या संविधान की पांचवीं अनुसूची, पेसा कानून और वन अधिकार कानून के खिलाफ ग्रामसभाओं से अनुमति लिये बगैर ग्रामसभाओं की जमीन को लैंड बैंक में डालना असंवैधानिक कार्य नहीं है? क्या अंचलाधिकारी के द्वारा पेसा कानून के खिलाफ ग्रामसभा के आयोजन का आदेश जारी करना असंवैधानिक एवं गैर-कानूनी नहीं है? क्या सामुदायिक भवन के नाम पर पुलिस कैंप के लिए जमीन अधिग्रहण करना असंवैधानिक एवं गैर-कानूनी नहीं है? क्या उनके इलाके में पुलिस छवनी की स्थापना उनकी सुरक्षा के लिए है या उनकी जमीन लूटने के लिए? क्या राज्यपाल महोदय आदिवासी, उनकी जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करेगी? आदिवासियों के संवैधानिक, कानूनी एवं पारंपरिक अधिकारों का हनन करने वाली सरकार देशद्रोही नहीं है तो फिर देशद्रोह का पैमाना क्या है? 

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