गुरुवार, 3 जनवरी 2019

कोचंग में जमीन लूट

ग्लैडसन डुंगडुंग

बिरसा उलगुलान का केन्द्र रहा सरवदा में जुटे लगभग दो-तीन हजार की भीड़ में कोचंग गांव से वह अकेला था। वह भयभीत तो नहीं लग रहा था। विगत 19 जून 2018 को हुए तथाकथित गैंगरेप ने कोचंग को दुनिया में बदनाम कर दिया है। और तब से यहां पुलिस का पहरा है इसलिए गांव के लोग झुंड में कही भी नहीं जाते हैं। गांव के लोगों का एकजुट होने का अर्थ सरकार विरोधी कदम मान लिया गया है। अभिव्यक्ति की आजादी को भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा प्राप्त है, जिसे सुरक्षित और सुनिश्चित करना राज्य का परम कर्तव्य है। लेकिन ऐसी गतिविधियां यहां देशद्रोह कहलाती है। आज आयोजित सभा में वह कोचंग के जमीन लूट की कहानी बताने के लिए आया था। लेकिन भय से उसने सभा में अपनी बात नहीं कही। उसे डर सताता रहा कि कहीं मुंह खोलने का बुरा अंजाम तो भुगतना नहीं पड़ेगा। यहां बुरा अंजाम का मतलब है पुलिस की लाठी से पिटाई, पत्थलगड़ी में शामिल होने के आरोप में फर्जी केस और जेल की हवा। कई हातु मुंडा जेल में हैं देशद्रोह के आरोप में। 

लेकिन उसे रहा नहीं गया। वह अपनी बात बताये बगैर भी वापस जाना उचित नहीं समझा शायद उसे अपने लोगों को जवाब भी देना था। इसलिए सभा समाप्त होने के बाद उसने मुझे एक किनारे ले जाकर अपनी बात बतायी। 23 अक्टूबर 2018 को अड़की के अंचलाधिकारी ने कोचंग में ग्रामसभा का आयोजन करने का फरमान जारी किया था। आदेश-पत्र में लिखा था कि कोचंग गांव में सामुदायिक भवन निर्माण हेतु पुलिस अधीक्षक, खूंटी से अधियाचना प्राप्त हुआ है, जिसके लिए 2.47 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाना है। इसलिए उक्त योजना हेतु इन 30 अक्टूबर 2018 को ग्रामसभा आयोजित है, जिसमें सभी सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य है।

गांव के आदिवासियों को पता है कि यह आदेश पेसा कानून 1996 के खिलाफ है क्योंकि ग्रामसभा बुलाने का अधिकार सिर्फ हातुमुंडा यानी ग्रामप्रधान को है। राजसत्ता कोचंग गांव में स्थायी पुलिस कैप बनाना चाहता है, जिसके लिए गांव में जमीन चाहिए। आदिवासी नहीं चाहते हैं कि उनके गांव में पुलिस कैंप बने इसलिए वे जमीन नहीं देना चाहते हैं। उन्हें मालूम है कि यह पुलिस कैंप उनके सुरक्षा के लिए नहीं है और न ही इसे यहां शांति स्थापना होगी। कोचंग गांव का जमीन लेने के लिए राजसत्ता ने कानून, बंदूक और जेल के नामपर ग्रामीणों को भयभीत करना शुरू किया। 29 अक्टूबर 2018 को कोचांग के हातु मुंडा सुखराम सोय को खूंटी पुलिस ने खूंटी बाजार में चाय पीते समय उठा लिया और थाना में कई घंटो तक रखा। उन्हें रात के 11 बजे छोड़ा गया। पुलिस पदाधिकारियों ने थाना में उन्हें धमकाया कि यदि वे जमीन अधिग्रहण वाले दस्तावेज में दस्तखत नहीं करते हैं तब उसका परिणाम बहुत बुरा हो सकता है। उन्हें ‘पत्थलगड़ी’ के केसा में फंसाकर जेल में सड़ा दिया जा सकता है। 

पुलिस की लाठी, बंदूक और जेल के भय से कोचंग गांव के मुंडा आदिवासी अंचलाधिकारी के आदेशानुसार तय तिथि को धान काटना छोड़कार ग्रामसभा में बैठ गये। लेकिन कोई भी सरकारी अधिकारी अंचल, प्रखंड या थाना से नहीं पहुंचा। 1 नवंबर 2018 को अड़की थाना के प्रभारी अपने दल-बल के साथ गांव के पास स्थित दैनिक बाजार में पहुंचे। वहां उन्होंने बाजार में उपस्थित आदिवासियों के बीच साड़ी और धोती बांटते हुए सादा कागज पर उनका हस्ताक्षर एवं अंगूठे का निशान ले लिया। दो-चार लोग सड़क किनारे गाय-बैल चरा रहे थे उन्हें भी सादा कागज पर हस्ताक्षर एवं अंगूठे के निशान लगवाकर साड़ी-धोती दिया गया। अपना काम निपटाने के बाद थाना प्रभारी प्रफुल्लित होकर थाना लौटे। शायद वे यह सोच रहे थे कि आदिवासियों से उनकी जमीन हड़पना कितना आसान है। ये आदिवासी कितना बेवकूफ लोग है, जिन्हें साड़ी-धोती देकर उनसे कुछ भी लिया जा सकता है। उन्हें लगा कि इस काम के लिए उनको खूंटी के पुलिस अधीक्षक से शाबाशी मिलेगा।  

अड़की के थानाध्यक्ष ने सादा कागज को ग्रामसभा बैठक की कार्यवाही बनाकर लिख दिया कि कोचंग के ग्रामीण सामुदायिक भवन के लिए 2.47 एकड़ जमीन देना चाहते हैं। अंततः यह कागज पुलिस अधीक्षक, खूंटी के दफतर में पहुंच गया। इसमें सबसे रोचक बात यह है कि जिन लोगों ने सादा कागज पर हस्ताक्षर एवं अंगूठे का निशान लगाकर साड़ी-धोती लिया है उनमें से कोई भी व्यक्ति कोचंग गांव का नहीं है। इसलिए मैं सोच में पड़ गया हॅं कि क्या होगा अड़की के थाना प्रभारी का जब पुलिस अधीक्षक यह हकीकत जानेंगे? क्या मुंडा आदिवासियों को बेवकूफ समझने के चक्कर में वे स्वंय फांस गये हैं? अब इस झूठ को बेनाकाब कौन करेगा? क्या लोकतंत्र का चैथा स्तंभ इसमें रूचि लेगा?  

कोचंग गांव के आदिवासी भूमि अधिग्रहण को लेकर सवाल उठा रहे हैं कि ग्रामसभा के आयोजन का आदेश अंचलाधिकारी कैसे दे सकते हैं? कौन से कानून के तहत उन्हें यह अधिकार दिया गया है? गांवों के विकास का काम कब से पुलिस अधीक्षक के हाथों में सौपा गया है? कोचंग के आदिवासी कह रहे हैं कि जब गांव में सामुदायिक भवन पहले से मौजूद हैं तो फिर एक और सामुदायिक भवन किसके लिए बनाना है? 2.47 एकड़ जमीन में किस तरह का सामुदायिक भवन बनेगा क्योंकि गांव का सामुदायिक भवन के लिए 10 से 15 डीसमील जमीन काफी है? आदिवासी हकीकत जानते हैं। हकीकत यह है कि सामुदायिक भवन के नामपर जमीन का अधिग्रहण कर वहां स्थायी पुलिस कैंप बनाने की योजना है इसलिए पुलिस अधीक्षक ने अंचलाधिकारी को अधिसूचना भेजा है। पुलिस कैंप बनाने के लिए सरकार को जमीन नहीं मिल सकता है इसलिए आदिवासियों को अंधेरा में रखकर जमीन अधिग्रहण करने की कोशिश की जा रही है।  

यहां मूल सवाल लोकतंत्र को लेकर है। क्या हमारे देश में लोकतंत्र जिन्दा है? मैं कहता हॅं कि लोकतंत्र कब का मर चुका है। जिस देश में संसद के द्वारा पारित पेसा कानून 1996 को दरकिनार किया जाता है वहां लोकतंत्र कैसे जिन्दा रह सकता है? पेसा कानून ग्रामसभा को सर्वोंपरि मानता है लेकिन सरकार नहीं मानती है। आदिवासियों की जमीन छीनने के लिए संवैधानिक प्रावधान, कानून और पारंपरिक अधिकारों का गला घोंटा जाता है तो लोकतंत्र कैसे जिन्दा रह सकता है। हकीकत यह है कि हमारे देश के लोकतंत्र को पूंजीपतियों ने गिरवी रख लिया है। पूंजीपति चुनाव के समय पानी की तरह पैसा बहाते हैं इसलिए सरकार बनाने के बाद उनको फायदा पहुंचाने के लिए संविधान और कानूनों को ताक पर रख दिया जाता है। कोचंग का जमीन लूट यह बताने के लिए काफी है कि यहां लोकतंत्र मर चुका है। जमीन लूट की कहानी बताकर वह व्यक्ति कोचंग लौट गया लेकिन क्या वह सुरक्षित रहेगा? 

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