ग्लैडसन डुंगडुंग
संघ परिवार आदिवासियों को सरना धरम कोड देने के खिलाफ हैं। संघ के नेताओं को पता है कि जिस दिन सरना धर्मालंबियों को सरना धरम कोड मिल गया उस दिन से सरना-ईसाई का विवाद ही खत्म हो जायेगा क्योंकि सरना धर्मालंबी भी अल्पसंख्यकों की श्रेणी में आ जायेंगे। उन्हें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों का अधिकार मिल जायेगा। फलस्वरूप, ईसाई धर्मालंबी आदिवासियों पर दोहरा लाभ लेने का आरोप स्वतः ही समाप्त हो जायेगा। झारखंड में सरना-ईसाई विवाद के अंत का सीधा अर्थ है भाजपा का राजनीतिक सन्यास। धर्म आधारित विवाद खत्म होते ही भाजपा की राजनीति समाप्त हो जायेगी। इसलिए भाजपा सरना धर्मावलंबियों की दिखावा हितैशी बनकर रहना चाहती है।
झारखंड विधानसभा के बजट सत्र में मुख्यमंत्री प्रश्नकाल के दौरान कांग्रेस विधायक सुखदेव भगत के द्वारा सरना कोड को लेकर पूछे गये सवाल का जवाब देते हुए झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने कहा कि राज्य सरकार सरना धरम कोड़ के लिए केन्द्र सरकार से अनुशंसा करने पर विचार कर रही है। इस मसले को भाजपा के समर्थक सरना धर्मालंबी ऐसे पेश कर रहे हैं जैसे उन्हें सरना धरम कोड मिल गया है। इसलिए इस मसले पर चिंतन करने की जरूरत है। ‘सरना-सनातन एक है‘ और ‘संताल-सनातन एक है’ का नारा बुलंद करने वाले संघ परिवार के किसी नेता के मुंह से इस तरह का विचार आना न सिर्फ आश्चर्यजनक लगता है बल्कि इसमें संदेह पैदा होता है और कई सवाल भी खड़े होते हैं। क्या झारखंड सरकार सरना धर्मावलंबियों को सरना धरम कोड़ देना चाहती है या यह सिर्फ एक चुनावी जुमला है? इसमें संदेश होना लाजमी है क्योंकि इससे पहले भी झारखंड के मुख्यमंत्री कई जुमले दे चुके हैं जैसे झारखंड को स्वीट्जरलैंड बनाना, राज्य में 24 घंटे बिजली देना, नक्सलवाद को जड़ से खत्म करना, इत्यादि जो अब तक हकीकत में तब्दील नहीं हुए हैं।
सरना धरम कोड की अनुशंसा करने के मसले पर सवाल उठने के कई कारण हैं। झारखंड सरकार के द्वारा कारपोरेट घराने और व्यापारियों को फायदा पहुंचाने के लिए आदिवासियों के सुरक्षा कवच सीएनटी/एसपीटी कानूनों में किये गये संशोधन के खिलाफ उठे जनाक्रोश को दबाने के लिए मुख्यमंत्री रघुवर दास ने गुमला से धर्मांतरण का कार्ड खेला था। उस समय उन्होंने कहा था कि धर्मांतरण राज्य का सबसे बड़ा मुद्दा है। इसलिए सरकार इसे रोकने के लिए कानून बनायेगी। उनकी सरकार ने धर्मांतरण के खिलाफ कानून भी बनाया। लेकिन उन्होंने सरना धरम कोड पर न कोई बात की और न ही विधानसभा में बिल लाया जबकि सरना धर्मालंबी इसके लिए राज्य में लंबे समय से आंदोलनरत हैं। सरना धरम कोड की बात करने के बजाय वे सरना-सनातन एक हैं और संताल सनातन एक हैं का नारा बुलंद करते रहे। चूंकि उन्होंने लोकसभा चुनाव के ठीक पहले सरना धरम कोड की बात की है इसलिए सवाल उठता है कि यदि सरना धरम कोड देने की मंशा है तो वे अबतक चुप क्यों थे?
वर्ष 2014 से केन्द्र एवं राज्य में भाजपा की सरकार है लेकिन उन्होंने अबतक सरना धरम कोड के लिए केन्द्र सरकार को अनुशंसा क्यों भेजा? यदि वे सरना धरम कोड के लिए केन्द्र सरकार को अनुशंसा किये होते तो जिस तरह से तथाकथित गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया गया ठीक उसी तरह से सरना धरम कोड के लिए संसद में बिल पारित किया जा सकता था। लेकिन संसद सत्र खत्म होने के बाद वे ऐसी बात क्यों कर रहे हैं? क्या वे सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे वाली नीति अपना रहे हैं? इसका मतलब यह है कि सरना धर्मालंबी सरना धरम कोड की बात सुनकर खुश हो जायेंगे और आगामी चुनाव में भाजपा के पक्ष में वोट डालेंगे लेकिन उनको धरम कोड नहीं मिलेगा।
झारखंड सरकार को यह पता है कि सीएनटी/एसपीटी कानूनों में किये गये संशोधन से आदिवासियों के बीच उपजे जनाक्रोश को खत्म करने के कई प्रयासों के बाद भी जमीन के अंदर लगे कोयले की आग की तरह धधक रहा है। आदिवासियों के बीच स्पष्ट संदेश गया है कि केन्द्र और राज्य की भाजपा सरकारें मिलकर आदिवासियों की बची-खूची जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज सम्पदा को लूटकर पूंजीपतियों को सौपना चाहते हैं। इसलिए भाजपा सरकार को आगामी चुनाव में उखाड़कर फंकना है। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में आदिवासियों ने भाजपा से किनारा कर लिया फलस्वरूप, पार्टी को इन राज्यों में सत्ता गवांना पड़ा है। रघुवर दास को आभाश हो चुका है कि भाजपा राज्य की कई लोकसभा सीटें और विधानसभा चुनाव में राज्य का सत्ता गवां सकती है। इस स्थिति से निपटने के लिए उनके पास अब सरना धर्मावलंबियां को खुश करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। वे सरना धरम कोड के पक्ष में नहीं हैं बल्कि सिर्फ इसे चुनाव में फयादा लेने के लिए उपयोग करने की कोशिश में जुटे हैं। संघ परिवार आदिवासियों को अलग धार्मिक पहचान नहीं दे सकती है। इसे आर्य बनाम अनार्य के लड़ाई को बल मिलेगा और आदिवासी अस्मिता की लड़ाई तेज होगी।
संघ परिवार आदिवासियों को सरना धरम कोड देने के खिलाफ हैं। संघ के नेताओं को पता है कि जिस दिन सरना धर्मालंबियों को सरना धरम कोड मिल गया उस दिन से सरना-ईसाई का विवाद ही खत्म हो जायेगा क्योंकि सरना धर्मालंबी भी अल्पसंख्यकों की श्रेणी में आ जायेंगे। उन्हें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों का अधिकार मिल जायेगा। फलस्वरूप, ईसाई धर्मालंबी आदिवासियों पर दोहरा लाभ लेने का आरोप स्वतः ही समाप्त हो जायेगा। झारखंड में सरना-ईसाई विवाद के अंत का सीधा अर्थ है भाजपा का राजनीतिक सन्यास। धर्म आधारित विवाद खत्म होते ही भाजपा की राजनीति समाप्त हो जायेगी। इसलिए भाजपा सरना धर्मावलंबियों की दिखावा हितैशी बनकर रहना चाहती है।
संघ परिवार, भाजपा और राज्य सरकार सरना धर्मालंबी आदिवासियों के हितैशी होने का दिखावा तो करते हैं लेकिन इनका काम सरना धर्म के ठीक विपरीत है। झारखंड सरकार ने 31 दिसंबर 2014 को एक पत्र जारी कर झारखंड में ‘लैंड बैंक’ का गठन किया। इसके बाद राज्यभर के सामाजिक, धार्मिक एवं वनभूमि को ग्रामसभाओं से बगैर अनुमति लिये परती जमीन बताकर पूंजीपतियों को देने के लिए भूमि बैंक में डाल दिया गया है। पेसा कानून 1996 और सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट ‘ओड़िसा माईनिंग कारपोरेशन बनाम वन व पर्यावरण मंत्रालय एवं अन्य सी सं. 180 आफ 2011 के अनुसार ये जमीन ग्रामसभाओं की है। इसलिए इनसे बगैर अनुमति लिये कुछ नहीं किया जा सकता है।
इसमें सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक बात यह है कि झारखंड सरकार ने सरना धर्मावलंबियों के पवित्र पूजास्थल सरना, जाहेरथान और देशाउली की जमीन को पूंजीपतियों को देने के लिए लैंड बैंक में डाल दिया है। उदाहरण स्वरूप देखा जाये तो खूंटी जिले के 541 सरनास्थलों के 488.82 एकड़ जमीन को भूमि बैक में डाल दिया गया है। यदि पूरे राज्य का खुलासा किया जाये तो भाजपा के खिलाफ जनाक्रोश बढ़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट कहा है कि आदिवासियों को भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 एवं 26 के तहत धार्मिक आजादी का मौलिक अधिकार है इसलिए उनके धर्मास्थलों को कोई नहीं छीन सकता है। यहां सवाल यह है कि जब सरना, जहेरथान और देशाउली से आम आदमी एक पत्ता भी नहीं ले सकता है तो फिर किस अधिकार के तहत सरकार ने इन्हें लैंड बैंक में डाला है? क्या झारखंड सरकार ऐसा ही व्यवहार सनातन हिन्दू धर्म के पूजास्थलों के साथ कर सकती है? सरना धर्मावलंबियों के पूजास्थलों को पूंजीपतियों को सौपने वाली सरकार से धरम कोड की कैसे अपेक्षा की जा सकती है?
झाररखंड में 39.7 प्रतिशत आदिवासी हिन्दू धर्मालंबी हैं, 44.2 प्रतिशत आदिवासी सरना धर्म को मानते हैं, 14.5 प्रतिशत आदिवासी ईसाई धर्मावलंबी हैं और 1.7 प्रतिशत आदिवासी इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिख इत्यादि धर्मों को मानते हैं। संघ परिवार आदिवासियों को हिन्दू धर्म का हिस्सा मानता है लेकिन वह यह बताने में असमर्थ है कि यदि आदिवासी जन्मजात हिन्दू हैं तो वे वर्ण व्यवस्था में कहां हैं? वर्ण व्यवस्था से उपजे जाति व्यवस्था के अन्तर्गत 3000 जातियां और 25000 उपजातियां हैं लेकिन सनातन हिन्दूधर्म में सिर्फ ब्राह्मण जाति के लोगों को पूजारी बनने का अधिकार है। भारत देश में 744 आदिवासी समूह हैं जिनका अपना-अपना पूजारी है। यदि आदिवासी जन्मजात हिन्दू होते तब उनका अपना पूजारी क्यों होता? संघ परिवार जितना भी कोशिश कर ले लेकिन इस हकीकत को नहीं बदल सकता है कि आदिवासी भारत देश के प्रथम निवासी हैं, जिनका अपना धर्म है। वे जन्मजात हिन्दू नहीं हैं बल्कि ईसाई, इस्लाम और अन्य धर्मों के तरह ही सनातन हिन्दू धर्म में उनका धर्मांतरण किया गया है। इसलिए आदिवासियों को सरना कोड मिलना चाहिए। यदि राज्य सरकार सरना धर्मालंबियों की हितैशी है तो जुमलेबाजी बंद करते हुए सरना धरम कोड को हकीकत में तब्दील करे।
बेहद ही तथ्यपरक जानकारी के साथ आपने यह लेख लिखा है ! काबिलेतारीफ !!
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