ग्लैडसन डुंगडुंग
वैश्विक मंच ‘‘ग्लोबल लैंडस्केप फोरम’’ लोगों के अधिकार, जमीन का सत्त उपयोग एवं स्थायी विकास के मसले पर प्रतिबद्ध दुनिया का सबसे बड़ा फोरम है। इस फोरम में अबतक दुनिया के 185 देशों के 4,400 संगठनों से जुड़े 180,000 लोग भाग ले चुके हैं। इस बार यह फोरम जर्मनी के बोन शहर में 22 एवं 23 जून 2019 को सम्पन्न हुआ, जिसमें 150 देशों के 700 लोग सीधे तथा 14,000 लोग आनलाईन शामिल हुए। इसके अलावा सोशल मीडिया के द्वारा फोरम का संदेश 1 करोड़ 40 लाख लोग तक पहुंचा। इस बार मुझे भी ग्लोबल लैडस्केप फोरम में शामिल होने का मौका मिला। मैंने मजबूती, दृढ़ता और प्रखरता के साथ जंगलों से आदिवासियों के बेदखलीकरण के मुद्दे को फोरम के पटल पर रखा।
इन दिनों भारत के विभिन्न जंगलो के अंदर रहने वाले आदिवासी कई खतरों से जुझ रहे हैं। इसमें सुप्रीम कोर्ट के द्वारा 13 फरवरी 2019 को दिया गया बेदखलीकरण का आदेश सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने उन आदिवासी एवं अन्य पारंपरिक वननिवासियों को वनभूमि एवं जंगलों से बेदखल करने का आदेश दिया था, जिनका दावा-पत्र वन अधिकार कानून 2006 के तहत खारिज किया जा चुका है। लोकसभा चुनाव के मद्देनजर केन्द्र सरकार ने इस आदेश पर रोक लगवा दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 20 राज्यों के राज्य सरकारों आगामी 12 जुलाई 2019 तक इस मसले पर अपना एफिडेविट दायर करने को कहा है। सुप्रीम कोर्ट आगामी 24 जुलाई 2019 को इस मामले की सुनवाई करेगा। वन अधिकार के मामले पर राज्य सरकारों के द्वारा पुर्नावलोकन के बाद भी 15 लाख दावा-पत्रों को खारिज मान लिया गया है, जिसका अर्थ है कि 75 लाख आदिवासियों के उपर जंगलों से बेदखल होने का खतरा मंडरा है। यदि इन्हें जंगलों से बेदखल किया गया तो ये लोग कहां जायेंगे?
इसके अलावा दूसरा खतरा है भारतीय वन अधिनियम 1927 का संशोधन प्रस्ताव। भारत सरकार भारतीय वन अधिनिय 1925 को संशोधन करते हुए वन अधिनियम 2019 बनाने की प्रक्रिया चला रही है। प्रस्तावित संशोधन के अनुसार राज्य सरकारें किसी भी जंगल को रिजर्व जंगल घोषित करते हुए आदिवासियों को जंगल से बेदखल कर सकती हैं। वन सुरक्षा गार्डों के पास जंगलों में तीर-धनुष एवं कुल्हड़ी जैसे औजारों के साथ दिखाई देने वाले लोगों को सीधे गोली मारने की शक्ति होगी एवं गोली चलाने वाले सुरक्षा गार्डों के उपर कानूनी कार्रवाई करने के लिए पीड़ितों को लिए सरकार से अनुमति लेना होगा।
इसी तरह तीसरा खतरा यह है कि केन्द्र सरकार आदिवासी बहुल राज्यों में मौजूद नेशनल पार्क, वाईल्डलाईफ सेंक्चूरी एवं अभ्यरणों को जोड़कर वाईल्ड लाईफ कारिडोर बना रही है। उदाहरण के लिए झारखंड में तीन कारिडोर एवं तीन-सब कारिडोर बनाने का प्रस्ताव है, जिसके तहत 870 गांवों को जंगलों से बाहर करने का प्रस्ताव है। पलामू टाईगर रिजर्व के अंदर आने वाले 8 गांवों को नोटिस दिया जा चुका है। इस परियोजना से लगभग 5 लाख आदिवासियों का अस्तित्व खतरे में है। सरकार इन्हें बंजर भूमि पर बसाना चाहती है। ऐसी स्थिति में इनकी आजीविका का स्रोत समाप्त हो जायेगा।
इसके अतिरिक्त चैथा खतरा है लैंड बैंक का गठन। कारपोरेट घरानों को बसाने के लिए राज्य सरकारें लैंड बैंक बना रहीं हैं। झारखंड सरकार राज्यभर के 20 लाख एकड़ सामुदायिक, धार्मिक एवं वनभूमि को लैंड बैंक में डाला दिया है, जिसमें 10 लाख एकड़ वनभूमि है। वन अधिकार कानून 2006 के तहत उक्त वनभूमि पर आदिवासियों के अधिकारों को मान्यता देना है लेकिन सरकार इस जमीन को पूंजीपतियों को देना चाहती है।
इसके अलावा पांचवां खतरा है भारत सरकार ने द्वारा लागू किया गया कैफ कानून 2016। यह कानून कम्पा फंड में रखे गये 66,000 करोड़ रूपये को वनरोपन में खर्च करने के लिए बनाया गया है। यह पैसा तथाकथित विकास परियोजनाओं को स्थापित करते समय जंगलों को बर्बाद करने के एवज में कंपनियों ने वनरोपन के लिए केन्द्र सरकार के फंड में जमा किया है। वनरोपन का कार्य गैर-वनीय भूमि पर किया जाना है। लेकिन वन विभाग आदिवासियों को बेदखल करते हुए गांवों के जंगलों पर वनरोपन कर रही है। फलस्वरूप, वनविभाग और आदिवासियों के बीच विवाद बढ़ता जा रहा है। कैफ कानून के द्वारा आदिवासियों को उनकी आजीविका के संसाधनों से बेदखल किया जा रहा है। झारखंड और ओड़िसा में इस तरह के उदाहरण भरे पड़े हैं।
यदि आदिवासियों के उपर मंडराने वाले इन सारे खतरों का आंकलन एक साथ किया जाये तो स्थिति भयावह दिखती है। भारत में 10 करोड़ आदिवासी रहते हैं, जिनमें से 91.1 प्रतिशत यानी 9 करोड़ आदिवासियों की आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि एवं वन है। ऐसी स्थिति में सरकार के द्वारा जंगल छीनने के लिए किये जा रहे प्रयासों से 9 करोड़ आदिवासियों का अस्तित्व खतरे में है। हमलोग आदिवासी लोग इन खतरों से निपटने के लिए जनांदोलन कर रहे हैं, ग्रामसभाओं की शक्तियों का उपयोग कर रहे हैं, कानून एवं संवैधानिक प्रावधानों का प्रयोग कर रहे हैं, कोर्ट का सहारा ले रहे हैं और मीडिया, सोशल मीडिया और अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का सहयोग ले रहे हैं। लेकिन यह काफी नहीं है क्योंकि इसका मूल जड़ है ‘‘राजसत्ता और कारपोरेट जगत’’ के बीच गहरा सांठ-गांठ।
कई रिपोर्टों में कहा गया है कि विगत लोकसभा चुनाव में 60,000 करोड़ रूपये खर्च हुआ है, जिसमें से सिर्फ एक राजनीतिक दल का खर्च 27,000 करोड़ रूपये यानी कुल खर्च का 45 प्रतिशत है। एक राजनीतिक दल के पास इतना पैसा कहां से आया? निश्चितरूप से यह कारपोरेट घरानों का पैसा है, जो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर पैसा कमाना चाहते हैं। सरकार की गतिविधियांें में दूर से द्वंद दिखाई पड़ता है लेकिन ऐसा है नहीं। आप कह सकते हैं कि एक तरफ सरकार आदिवासी हितों के पक्ष में वन
अधिकार कानून जैसे कानून लागू कर रही है और दूसरे तरफ वनभूमि एवं जंगलों को पूंजीपतियों को सौप रही है। लेकिन वर्तमान सरकार ने आदिवासियों लिए ऐसा कोई कानून नहीं लाया है बल्कि कई भूमि सुरक्षा कानूनों का संशोधन किया है। केन्द्र में शासन कर रही पार्टी की कई राज्यों में सरकारें हैं, जिन्होंने आदिवासियों के वनाधिकार को भी नकारा है। छत्तीसगढ़ के घटबारा गांव में कोयला खनन के लिए तीन सामुदायिक पट्टे खारिज कर दिये गये, बैलाडीला में अडानी कंपनी को लौह-अयस्क पहाड़ सौप दिया गया और झारखंड के रिंची गांव के 72 आदिवासियों को वन अधिकार इसलिए नहीं दिया गया क्योंकि वहां कोयला का भंडार है।
लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी हम आदिवासियों के अधिकरों की रक्षा हो सकती है। भारत में हमारे लिए वन अधिकार कानून, पेसा कानून एवं भूमि सुरक्षा संबंधी कई अच्छे कानून हैं और संवैधानिक प्रावधान भी है, जिन्हें जमीन पर हू-ब-हू लागू करने से हमारी जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा सुनिश्चित हो जायेगी। इसलिए मैं इस ग्लोबल लैंडस्केप फोरम के माध्यम से भारत सरकार से मांग करता हॅं कि इन कानूनों और संवैधानिक प्रावधानों को जमीन पर सख्ती से लागू करे। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र के द्वारा जारी आदिवासी घोषणा-पत्र एवं आई.एल.ओ. कान्वेंशन 169 को लागू करे। मैं निवेदन करता हॅं कि संयुक्त राष्ट्र के द्वारा नियुक्त आदिवासी मामलों के रपटकर्ता ‘‘विकी’’ भारत का दौरा करें। इसका हम आदिवासियों के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
मैं अंत में कहना चाहता हॅं कि जब हम आदिवासी लोग अपनी भूमि, इलाका और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए आंदोलन करते हैं तब सरकारी महकमा और तथाकथित मुख्यधारा के लोग हमें विकास विरोधी कहते हैं और हमारे उपर राष्ट्रद्रोही का तमगा लगाते हैं। मैं उन्हें अक्सर कहता रहता हॅं और आज भी कह रहा हॅं कि हम आदिवासियों को विकास विरोधी और राष्ट्रद्रोही कहना बंद कीजिये। हमलोग न विकास विरोधी हैं, न राष्ट्रदोही और न ही स्वार्थी। हमलोग न सिर्फ अपनी जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे है बल्कि सभी लोगों का भविष्य हमारे संघर्ष पर निर्भर है क्योंकि जिस दिन हमलोग संघर्ष करना बंद कर देंगे उस दिन सरकार और कारपोरेट मिलकर बचा-खुचा प्राकृतिक संसाधनों को बेच कर खत्म कर देंगे। इसलिए हम आदिवासियों पर आरोप लगाने के बजाय आप हमारे संघर्ष का हिस्सा बनें।
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