ग्लैडसन डुंगडुंग
छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग अंतर्गत दंतेवाड़ा जिले में स्थित बैलाडीला पहाड़ को बचाने के लिए 200 गांवों के लगभग 25,000 आदिवासियों का संघर्ष ने छत्तीसगढ़ सरकार को बैलाडीला पहाड़ में लौह-अयस्क उत्खनन कार्य रोकने के लिए मजबूर कर दिया है। अब सरकार कह रही है कि पिछली सरकार के समय में लौह-अयस्क हासिल करने के लिए किये गये फर्जी ग्रामसभा और खनन कंपनी के द्वारा 2,000 पेड़ों को काटकर जलाने वाली घटना की जांच की जायेगी। बैलाडीला आंदोलन ने देश में एक बार फिर यह बहस छेड़ दिया है कि क्या विकास के नामपर जंगलों और पहाड़ों को उजाड़ना सही है? क्या विकास के नामपर कारपोरेट जगत को फायदा पहुंचाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बेहिस्साब दोहन उचित है? देश में जलवायु परिवर्तन के असर को देखते हुए क्या हमलोग बचे-खुचे जंगल और पहाड़ों को उजाड़ने की इजाजत दे सकते हैं?
यह हैरान करने वाली बात है कि बैलाडीला में ‘पृथ्वी पुरूष’ के मित्र गौतम अडानी की कंपनी ‘अडानी इंटरप्राईजेज प्रा. लि. के द्वारा लौह-अयस्क का उत्खनन करने के लिए 2,000 हजार पेड़ों को काटकर, जलाते हुए राख में तब्दील कर दिया गया। अडानी कंपनी ने 25,000 पेड़ों को काटने के लिए सरकार से अनुमति हासिल कर ली है। यह संख्या सिर्फ बड़े पेड़ों की है। छोटे-छोटे पेड़ और पौधों को नहीं गिना गया है। इन्हें कौन गिनेगा? क्या इनके अस्तित्व को नकारना सही है? यदि सभी पेड़-पौधों को गिना जायेगा तब यह संख्या लाखों में होगी। यह सोचनीय बात है कि जब खनन कार्यों के लिए सरकार हजारों पेड़ों को कटवाती है और कारपोरेट घरानों को जंगल उजाड़ने की अनुमति देती है तब उसे वैध कहा जाता है। लेकिन जब जंगलों की रक्षा करने वाले आदिवासी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए पेड़ काटते हैं तब सरकार उसे अवैध करार देती है और पेड़ काटने वाले आदिवासियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उन्हें जेल में डाल देती है। ऐसी दोहरी मापदंड क्यों है? जबकि हकीकत यह है कि जिन इलाकों में आदिवासी रहते हैं वहीं जंगल बचा हुआ है।
विकास के नामपर पेड़ों को काटने, जंगलों को उजाड़ने और पहाड़ों को बेचकर पूंजीपति, सत्ताधीश और नौकशाहों का खजाना भरने के लिए हमारे दिमाग में यह डाल दिया गया है कि विकास करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जरूरी है। देश में ऐसा मान्यता स्थापित कर दिया गया है कि विकास करने के लिए पेड़ों को काटना, जंगलों को उजाड़ना और पहाड़ों को बर्बाद करना जरूरी है। इतना ही नहीं प्रकृति के साथ जीने वाले आदिवासियों को असभ्य, जंगली और पिछड़ा कहा जाता है तथा जो लोग कांक्रीट के जंगलों में रहते हैं उन्हें सभ्य, शिक्षित और विकसित। इसलिए बहुसंख्य लोग पेड़ काटने, जंगल उजाड़ने और पहाड़ों को तोड़ने पर सवाल नहीं उठाते हैं और पर्यावरण पर होने वाले असर के बारे में भी बात नहीं करते हैं। जबकि हकीकत यह है कि विकास के नामपर प्राकृतिक संसाधनों का बेहिस्साब दोहन हो रहा है। देश के जिन आदिवासी बहुल क्षेत्रों से अरबों रूपये का लौह-अयस्क, बाक्साईट, कोयला, इत्यादि निकाला जा रहा है उन क्षेत्र के लोगों को अपनी आजीविका के लिए संषर्घ करना पड़ रहा है और जंगल भी खत्म हो रहा है।
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और विकास की हकीकत को समझने के लिए झारखंड का सारंडा जंगल सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां विकास के नामपर 1925 से लौह-अयस्क का उत्खनन किया जा रहा है। सारंडा जंगल से प्रतिवर्ष लगभग 3,000 करोड़ रूपये का लौह-अयस्क का उत्खनन किया जाता है। लेकिन जंगल के अंदर गांवों को जोड़ने के लिए 2012 से पहले एक सड़क तक नहीं थी। आज भी सारंडा जंगल के अंदर रहने वाले 80 प्रतिशत आदिवासी बच्चे कुपोषित हैं और 70 प्रतिशत आदिवासी महिलाएं खून की कमी से जुझ रहीं हैं। वे अपनी आजीविका के लिए संघर्ष कर रहे हैं जबकि खनन कार्य से जुड़े बाहरी लोग मलामाल हैं। सारंडा जंगल में किसके विकास के लिए लौह-अयस्क का उत्खनन किया जा रहा है? सारंडा जंगल एशिया का सबसे बड़ा सखुआ का जंगल है, जिसे विकास के नामपर उजाड़ा जा रहा है। सारंडा जंगल में सरकार ने 22 नया खनन लीज दिया है। इससे किसका विकास होगा? हकीकत यह है कि विकास के नामपर प्राकृतिक संसाधनों का बेहिस्साब दोहन कर सिर्फ मुट्ठीभर पूंजीपतियों, सत्ताधीशों और नौकरशाहों का खजाना भरा जा रहा है।
विकास के नामपर जंगलों को उजाड़ने का आंकड़ा भयावह है। 1980 से 2018 तक विकास के नामपर 26,194 परियोजनाओं के लिए 15,10,055.5 हेक्टेयर जंगलों को उजाड़ा गया है। इसमें सबसे ज्यादा आश्चर्य करने वाली बात यह है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र से ‘‘चैम्पियन आफ अर्थ’’ पुरस्कार जीतने वाले भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में 2014 से 2018 तक 2,347 परियोजनाओं के लिए 57,864.466 हेक्टेयर जंगलों को विकास नामक दानव के हवाले कर दिया गया। इतना ही नहीं 2019 में अबतक 954 परियोजनाओं के लिए 9,383.655 हेक्टेयर जंगलों को विकास की बली बेदी पर चढ़ाया जा चुका है एवं अभी और कई जंगलों और पहाड़ों को विकास के नामपर उजाड़ने की तैयारी चल रही है। भारत सरकार का ‘वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ देश में मौजूद जंगलों और पहाड़ों को पूंजीपतियों को सौपने के लिए निरंतर प्रयासरत है।
देश के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। लोग भीषण गर्मी से तबाही झेल रहे हैं और सत्ताधीश विकास के नामपर जंगलों को पूंजीपतियों को सौपते जा रहे हैं। इसी सच्चाई को छुपा कर रखने के लिए गोदी और मोदी मीडिया के द्वारा यह अफवाह फैलाया जा रहा है कि देश में गर्मी का कारण पाकिस्तान के द्वारा भेजा गया गर्म हवा है। ऐसी स्थिति में यदि लोग अभी भी सच्चाई से मुंह मोड़ते रहेंगे, भाजपा-कांग्रेस करते रहेंगे और सत्ताधीशों को तथाकथित विकास के नामपर जंगलों को उजाड़ने देते रहेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब तापमान 50-55 डिग्री के पार चला जायेगा और हमारे पास तड़प-तड़पकर करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचेगा।
हमारे देश में जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज सम्पदा को बचाने के लिए संघर्षरत आदिवासियों को विकास विरोधी कहा जाता है। लेकिन अभी यह समझने की जरूरत है कि यदि आदिवासी प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए संघर्षरत है तो वे न सिर्फ आदिवासी समुदाय और प्रकृति को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं बल्कि धरती और जीवन का भविष्य उनके संघर्ष पर टिका हुआ है। इसलिए अब उन्हें विकास विरोधी बोलने के बजाय हमें उनके संघर्ष का हिस्सा बनना चाहिए। प्रकृति और जीवन विरोधी विकास को न कहने का सही समय यही है। यदि हम आज भी नहीं चेते तो निश्चितरूप से कल हमारा नहीं होगा।
Good and insightful article. This is one of the sensitive issue.
जवाब देंहटाएंयह लेख विकास के झूठे नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के जिनपर आदिवासियों का प्राकृतिक नागरिक मूल अधिकार है, कंपनियों की स्वार्थी डकैती लूट को सही सही बयां करता है |
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