ग्लैडसन डुंगडुंग
28 फरवरी 2019। सुप्रीम कोर्ट ने अपने विगत ‘आदिवासी खदेड़ो आदेश’ पर रोक लगाते हुए आदेश दिया कि वन अधिकार कानून 2006 के तहत खारिज दावा-पत्रों का सही मूल्यांकन कर राज्य सरकारें हल्फनामा दायर करें। आदेश का पालन करते हुए देश के 20 राज्यों की सरकारों ने खारिज दावा-पत्रों का मूल्यांकन अद्भूत तरीके से किया। ओडिसा इसका एक बड़ा उदाहरण मात्र है। आडिसा के नौकरशाहों ने दावा-पत्रों के मूल्यांकन के नामपर वनभूमि के दावेदारों को शपथ-पत्रों में अपना नाम और उम्र लिखकर हस्ताक्षर या अंगूठे का निशान लगवाकर अपना ड्यूटी पूरा किया। शपथ-पत्रों में लिखा था - हमारे पास वनभूमि पर दावेदारी करने के लिए प्रमाण नहीं हैं। इसलिए जिला स्तरीय समिति का निर्णय सही है। इस तरह से नौकरशाहों ने एक झटके में वनभूमि एवं जंगल के 10,000 असली दावेदारों एवं हकदारोंका दावा-पत्र खारिज कर दिया। ये लोग कई पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे हैं और वनभूमि पर खेती करते हैं।
एक उदाहरण है मयूरभंज जिले के चंडक वाईल्डलाईफ सेंचूरी में स्थित अम्बापड़िया गांव। अम्बापड़िया में 52 आदिवासी परिवार 1950 से रह रहे हैं। इन्होंने ही गांव बसाया है। वन अधिकार कानून 2006 में वाईल्डलाईफ संचूरी के अंदर आवास और आजीविका का अधिकार दिया गया है। जब यह कानून लागू हुआ तब इन आदिवासियों ने 2008 में ही दावा-पत्र भरा लेकिन 2010 में उनकी दावेदारी को खारिज कर दिया गया लेकिन उन्हें सूचना नहीं दिया गया। जब उन्हें इसकी भनक लगी तब उन्होंने सरकारी आफसरों को पत्र लिखा लेकिन कुछ नहीं हुआ। अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 15 जून 2019 को आफसरों ने उन्हें 18 जून को अनुमंडल स्तरीय समिति के पास उपस्थिति होने का आदेश जारी किया। आदिवासियों ने 3000 रूपये खर्च करते हुए गाड़ी का इंतिजाम कर समिति के जनसुनवाई में भाग लिया। लेकिन पदाधिकारियों ने शपथ-पत्रों पर उनका हस्ताक्षर एवं अंगूठे का ठप्पा लगाकर उन्हें गांव वापस भेज दिया। ऐसा ही सभी दावेदारों के साथ हुआ है।
इस सच्चाई को जानकार कोई भी हैरान हो सकता है। केन्द्र सरकार ने दावा किया था कि वन अधिकार कानून को आदिवासी एवं अन्य पारंपरिक वन निवासियों के उपर किये गये ऐतिहासिक अन्याय को न्याय में बदलने के लिए कानून लागू किया जा रहा है। कानून में प्रावधान स्पष्ट है कि जो दावेदार 13 दिसंबर 2005 के पहले से वनभूमि पर काबिज हैं या जंगल में घर बनाकर रह रहे तथा जंगल का उपयोग कर रहे हैं तो उसमें उन्हें खेती की जमीन और आवासीय भूमि पर व्यक्तिगत तथा जंगल पर सामुदायिक अधिकार मिलेगा। सरकारी आफसरों का काम सिर्फ सही दावेदारों की पहचान कर पट्टा निर्गत करना है। यहां सवाल उठता है कि जो आदिवासी वनभूमि और जंगलों पर कई पीढ़ियों से काबिज हैं उनका दावा-पत्र क्यों खारिज किया जा रहा है? यदि सुप्रीम कोर्ट का आदिवासी खदेड़ों आदेश लागू होता है तब इन आदिवासियों के आजीविका का क्या होगा? इसके लिए कौन जिम्मेवार है?
हमें इस मसले को गंभीरता के साथ समझना होगा, जिसे सरकारें समझने को तैयार नहीं हैं। आदिवासी एवं अन्य पारंपरिक वन निवासियों को खदेड़ने के पीछे तथाकथित संरक्षणवादी ताकतें हैं जो यह मानते हैं कि जंगल सरकार का है, जहां सिर्फ जंगली जानवारों को रहने का अधिकार है तथा जो लोग जंगलों के अंदर या उसके आस-पास रहते हैं वे वनभूमि एवं जंगलों का अतिक्रमण किये हुए हैं। ऐसे लोग न सिर्फ जंगलों के बर्बादी के लिए जिम्मेवार हैं बल्कि वे जंगल के दुश्मन तथा वन्यजीवन के लिए खतरा हैं। इसलिए इन लोगों को जंगलों से बेदखल किया जाना चाहिए। 2006 में जब भारत सरकार ने संसद में वन अधिकार कानून पारित करवाया था तब यही लोग अडंगा लगाकर दो वर्षाें तक कानून को लागू करने नहीं दिया। लेकिन जब केन्द्र सरकार ने 1 जनवरी 2008 को वन अधिकार कानून को देशभर में लागू कर दिया तब उसे कानूनी तौर पर रोकने के लिए इन लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाया खटखटाया।
आदिवासी एवं अन्य पारंपरिक वन निवासियों को जंगलों से बेदखल करने का अभियान चलाने वाले तथाकथित संरक्षणवादी एनजीओ हैं - बाम्बे नेच्यूरल हिट्री सोसाईटी, वाईल्डलाईफ ट्रस्ट आफ इंडिया, वाईल्डलाईफ फस्ट, टाईगर रिसर्च एंड काजर्वेशनट्रस्ट, नेचर काजर्वेंशन सोसाईटी एवं वाईल्डलाईफ सोसाईटी आफ ओडिसा। इनमें से अधिकांश एनजीओ वन विभाग से सेवानिवृत अधिकारियों एवं तथाकथित उच्च जातियों के हं, जिन्होंने जीवन भर जंगलों को बेचकर अपना घर भरा तथा बाघों के खाल पर बैठकर पूजा किया। असल में जंगल और बाघ के नष्ट होने के पीछे ये ही हैं। लेकिन अब वन एवं वन्यजीवन बचाने के नामपर जंगलों से आदिवासी एवं अन्य वनाश्रित समुदायों को हमेशा के लिए बेदखल करना चाहते हैं ताकि वे बिना रोक-टोक के टिम्बर एवं जंगली जानवरों की तस्करी कर सकें। हकीकत में आदिवासियों ने ही जंगलों को बचाकर रखा है। फोरेस्ट सर्वे रिपोर्ट 2017 में भारत सरकार ने माना है कि देश के आदिवासी बहुल जिलों में जंगलों का क्षेत्र बढ़ा है। फिर भी तथाकथित संरक्षणवादी आदिवासियों को जंगलों से बेदखल करना चाहते हैं।
इसके लिए सबसे पहले 2008 में वाईल्डलाईफ फस्ट, वाईल्डलाईफ ट्रस्ट आफ इंडिया, टाईगर रिसर्च एंड काजर्वेशन ट्रस्ट एवं नेचर काजर्वेंशन सोसाईटी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका सं. 50/2008 वाईल्डलाईफ फस्ट एवं अन्य बनाम यूनियन आफ इंडिया दाखिल करते हुए वन अधिकार कानून 2006 को असंवैधानिक करार देने की मांग की। लेकिन जब बात नहीं बनी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने उक्त याचिका को लंबित रखा है, तब वाईल्डलाईफ फस्ट, टाईगर रिसर्च एंड काजर्वेशन ट्रस्ट एवं नेचर काजर्वेंशन सोसाईट ने सुप्रीम कोर्ट में दूसरा याचिका सं. 109/2008 दाखिल करते हुए मांग किया कि जंगलों में रहने वाले आदिवासी एवं अन्य वनाश्रित समुदायों को अतिक्रमणकारी घोषित करते हुए उन्हें वनों से बेदखल किया जाये। इसके अलावा कई याचिकाएं राज्यों के उच्च न्यायालयों में दाखिल किये गये। सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी याचिकाओं ‘वाईल्डलाईफ फस्ट एवं अन्य बनाम यूनियन आफ इंडिया सं. 109/2008’ में समाहित करते हुए 2015 में सुनवाई शुरू किया तथा विगत 13 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने वन अधिकार कानून के तहत निरस्त किये गये दावा के संदर्भ में बेदखलीकरण का आदेश जारी किया था।हालांकि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर केन्द्र सरकार ने हस्तक्षेप करते हुए बेदखलीकरण का आदेश पर रोक लगवा दिया।
लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि ये तथाकथित वन एवं वन्यजीवन के रक्षकों ने जंगल उजाड़ने के लिए जिम्मेवार पूंजीपतियों के खिलाफ याचिका में कोई सवाल नहीं उठाया है जबकि 1980 से 2018 तक विकास के नामपर 26,194 परियोजनाओं के लिए 15,10,055.5 हेक्टेयर जंगल को उजाड़ा गया है। इतना ही नहीं विगत पांच वर्षों में 2014 से 2018 तक 2347 परियोजनाओं के लिए 57,864.466 हेक्टेयर जंगल को विकास नामक दानव के हवाले किया गया। इससे स्पष्ट है कि ये तथाकथित वन एवं वन्यजीवन के संरक्षक सिर्फ आदिवासियों को जंगलों से बेदखल करना चाहते हैं। आगामी 24 जुलाई 2019 को सुप्रीम कोर्ट इस केस की सुनवाई करेगा। चुनाव समाप्त हो चुका है इसलिए हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट फिर से बेदखलीकरण का आदेश जारी कर सकता है। यदि ऐसा हुआ तो लगभग 20 लाख परिवारों के 1 करोड़ लोग अपने पुश्तैनी आवास, वनभूमि एवं जंगलों से बेदखल किये जायेंगे, जबकि वे वनभूमि एवं जंगलों के असली दावेदार और हकदार हैं।
लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि ये तथाकथित वन एवं वन्यजीवन के रक्षकों ने जंगल उजाड़ने के लिए जिम्मेवार पूंजीपतियों के खिलाफ याचिका में कोई सवाल नहीं उठाया है जबकि 1980 से 2018 तक विकास के नामपर 26,194 परियोजनाओं के लिए 15,10,055.5 हेक्टेयर जंगल को उजाड़ा गया है। इतना ही नहीं विगत पांच वर्षों में 2014 से 2018 तक 2347 परियोजनाओं के लिए 57,864.466 हेक्टेयर जंगल को विकास नामक दानव के हवाले किया गया। इससे स्पष्ट है कि ये तथाकथित वन एवं वन्यजीवन के संरक्षक सिर्फ आदिवासियों को जंगलों से बेदखल करना चाहते हैं। आगामी 24 जुलाई 2019 को सुप्रीम कोर्ट इस केस की सुनवाई करेगा। चुनाव समाप्त हो चुका है इसलिए हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट फिर से बेदखलीकरण का आदेश जारी कर सकता है। यदि ऐसा हुआ तो लगभग 20 लाख परिवारों के 1 करोड़ लोग अपने पुश्तैनी आवास, वनभूमि एवं जंगलों से बेदखल किये जायेंगे, जबकि वे वनभूमि एवं जंगलों के असली दावेदार और हकदार हैं।
यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘‘सह-अस्तित्व’’ प्रकृति का मूल सिद्धांत है, जो आदिवासी जीवन-दर्शन का एक प्रमुख आधार भी, जिसके तहत आदिवासी, जंगल और वन्यजीवन एक-दूसरे के पूरक हैं। इस अवधारणा को राष्ट्रीय वन नीति 1988 में ‘परस्पर’ संबंध कहा गया हैं। वन अधिकार कानून 2006 के तहत जंगलों में निवास करने का अधिकार भी इसी सह-अस्तित्व को स्वीकार करते हुए दिया गया है। वन्यजीवन संरक्षण अधिनियम 1972 में वाईल्डलाईफ सेंचूरियों के अंदर बफर जोन में मनुष्य एवं जंगली जानवारों के सह-अस्तित्व को बढ़ाने पर जोर दिया गया है। लेकिन कुछ तथाकथित संरक्षणवादी एवं बाघ बचाने के नामपर करोड़ों रूपये कमाने वाले एनजीओ ‘सह-अस्तित्व’ की अवधारणा को नकारते हुए आदिवासी एवं अन्य वनाश्रित समुदायों को जंगलों से निकाल बाहर करने के लिए पिछले कई दशकों से अभियान चला रहे हैं, जिन्हें यह मालूम होना चाहिए कि आदिवासी तब से जंगल एवं वन्यजीवन की सुरक्षा एवं संरक्षण कर रहे जब ‘सुरक्षा’, ‘संरक्षण’ जैसे शब्द गढ़े नहीं गये थे। आदिवासियों के पास वन एवं वन्यजीवन की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए पीढ़ियांें पुराना नियम, कानून और पद्धति है। आदिवासियों के बगैर न जंगल और न ही वन्यजीवन बचेगा। वे ही जंगल के असली हकदार, दावेदार और संरक्षक हैं इसलिए उन्हें वनभूमि एवं जंगलों पर मालिकाना हक दिया जाना चाहिए।
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