रविवार, 17 सितंबर 2023

क्या आदिवासियों की धार्मिक भावना नहीं है?

ग्लैडसन डुंगडुंग


जैन धर्मावलंबियों का सबसे बड़ा तीर्थस्थल झारखंड के गिरिडीह जिले में स्थित पारसनाथ पहाड के सम्मेद शिखर को पर्याटन स्थल के बजाय तीर्थ स्थल घोषित करने हेतु जैन समुदाय की मांग पर उनकी धार्मिक भावना के सम्मान में केन्द्र सरकार ने 2019 में जारी अपने ईको सेंसिटिव जोन अधिसूचना पर रोक लगा दी है। लेकिन संताल आदिवासियों के द्वारा पारसनाथ पहाड़ पर अपना मालिकाना हक जताने के बाद धार्मिक भावना के मसले पर बहस छिड़ गई है। भारत में विकास, जनहित एवं राष्ट््रहित के नाम पर आदिवासियों की हजारों धार्मिक स्थलों को जमींदोज कर दिया गया है जबकि संस्थागत धार्मिक समुदायों की भावनाओं की कद्र करते हुए केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने विकास प्रक्रिया पर ही रोक लगा दी। इसलिए सवाल उठता है कि क्या आदिवासियों की धार्मिक भावना नहीं है?    

निश्चित तौर पर ‘‘सम्मेद शिखर’’ जैन धर्मावलंबियों का सबसे बड़ा तीर्थस्थल है लेकिन वे उसपर मालिकाना हक नहीं जता सकते हैं क्योंकि संताल आदिवासी वहां के प्रथम निवासी हैं इसलिए पारसनाथ पहाड़ पर पहला हक उनका है। यहां उनका ‘‘मरांग बुरू’’ यानी ईश्वर वास करते हैं एवं पवित्र ‘‘जाहेरथान’’ भी है। यहां जैन मुनि तीर्थ करने आते थे, राजा के शासनकाल में जैन मंदिर बना एवं 1583 में अकबर ने इसके प्रबंधन का जिम्मा जैन समुदाय को सौंप दिया था। जैन समुदाय ने पारसनाथ पर संतालों के पारंपरिक अधिकार न होने का दावा किया था लेकिन 1911 में प्रिवि कौंसिल ने उसे खारिज करते हुए उन्हें विशु शिकार करने का अधिकार दे दिया। 

यह चिंतनीय बात है कि आदिवासी इलाकों में मौजूद पहाड़, नदी एवं झरनों के इर्द-गिर्द धर्मस्थल बनाकर उसपर संस्थागत धर्म के लोग कब्जा जमाये हुए हैं। इसके अलावा सरना स्थलों को मंदिरों में तब्दील कर उसे कब्जा करने के कई उदाहरण मौजूद हैं। झारखंड के रामगढ़ स्थित राजा रापा, तमाड़ स्थित दिरी ओड़ा एवं रांची का रिंचीबुरू आदिवासियों का पूजास्थल था। अब ये अपना मूल पहचान खोकर रजरप्पा, देवड़ी एवं पहाड़ी मंदिर के रूप में स्थापित हैं। लेकिन क्या बाहर से आये लोग इन धार्मिक स्थलों के मालिक बन सकते हैं? क्या पारसनाथ पहाड़ पर जैन समुदाय को दावेदारी करनी चाहिए? 

जनगणना रिपोर्ट 2011 के अनुसर भारत में जैन धर्मावलंबियों की जनसंख्या मात्र 45 लाख है जो देश की कुल जनसंख्या का सिर्फ 0.3 प्रतिशत है जबकि आदिवासियों की जनसंख्या 10 करोड़ 42 लाख है, जो देश की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। लेकिन जैन धर्मावलंबियों की जनसंख्या इतनी कम होने के बावजूद क्यों केन्द्र सरकार ने आदिवासियों के बजाय उनको प्राथमिकता दिया? इस प्रश्न का जवाब बहुत ही सरल है। जैन धर्मावलंबी संगठित हैं तथा वे भाजपा के मतदाता हैं बावजूद इसके मतदाता के रूप मेें वे भारतीय राजनीतिक को प्रभावित नहीं करते हैं लेकिन व्यापार में मजबूत पकड़ होने की वजह से मौजूदा वक्त में भारतीय राजनीति में इनकी मजबूत पकड़ है। 

केन्द्र सरकार के सबसे चाहेता व्यापारी गौतम अडाणी और केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह दोनों जैन समुदाय से आते हैं। ये दोनों ही शख्स देश के सबसे ताकतवर व्यक्तियों में सुमार हैं। अडाणी न सिर्फ भाजपा के बड़े काॅरपोरेट डोनर हैं बल्कि वे भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा के मालिक भी हैं। मूल बात यह है कि जैन समुदाय पैसा और मीडिया के द्वारा भारतीय राजनीति को प्रभावित करता है और मौजूदा वक्त में काॅरपोरेट डेमोक्रेशी की दिशा भी तय कर रहा है। यह कौन नहीं जानता है कि केन्द्र सरकार ने अडाणी का हित साधने हेतु देश के कई नियम-कानून बदल दिये? क्या पारसनाथ के मसले पर अडाणी और शाह के हस्तक्षेप से इंकार किया जा सकता है? 

जैन समुदाय के समक्ष आदिवासी सिर्फ जनसंख्या के आधार पर शक्तिशाली हैं, जो भारतीय राजनीतिक को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। देशभर से 47 सांसद लोकसभा में एवं 529 विधायक विभिन्न राज्यों के विधानसभाओं में आरक्षित सीटों से चुनकर जाते हैं। इसके अलावा कई सामान्य लोकसभा एवं विधानसभा सीटों में वे निर्णयक मतदाता हैं। बावजूद इसके केन्द्र सरकार आदिवासियों के धार्मिक भावनाओं की चिंता नहीं करती है क्योंकि आदिवासी धर्म, समुदाय एवं पार्टियों मंे विभाजित हैं। आदिवासियों को सरना-ईसाई के नाम पर आपस में लड़वाकर उनका वोट हासिल करना आसान है लेकिन चुनावी वर्ष में केन्द्र सरकार जैन धर्मावलंबियों से पंगा नहीं ले सकती है क्योंकि चुनाव लड़ने के लिए मोटी रकम इसी समुदाय से आना है एवं मीडिया के द्वारा मतदाताओं को अपने पक्ष में प्रभावित भी करना है। 

बावजूद इसके सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्यों जैन समुदाय के आवाज को केन्द्र सरकार ने तुरंत सुन लिया जबकि छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्या और बैलाडिला पहाड़ों को बचाने के लिए वहां के आदिवासी वर्षों से आंदोलन करते रहे लेकिन उनकी भावनाओं को आहत होने से बचाने के बजाय उनके उपर पुलिसिया कार्रवाई की गई? ओड़िसा के नियमगिरि पहाड़ को बचाने के लिए वहां आदिवासियों को संघर्ष करते हुए बलिदान क्यों देना पड़ा? क्यों टाटा कंपनी ने झारखंड के नवामुंडी में देशाउली को कब्जा करके रखा है एवं सारंडा जंगल के अंदर मौजूद देशाउली को मित्तल कंपनी को लीज में दे दिया गया है? क्यों झारखंड के हजारों सरना स्थाल, जहेरथान एवं देशाउली को लैंड बैंक में डाल दिया गया है? क्या आदिवासियों की धार्मिक भावनाओं के लिए देश में कोई जगह नहीं है?

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