सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

आदिवासियों के लाश पर विकास की इमारत

- ग्लैडसन डुंगडुंग - 

2 जनवरी, 2006 को ओडिसा के जजपुर जिले स्थित कलिंगानगर में टाटा कंपनी के प्रस्तावित ग्रीन फिल्ड परियोजना का विरोध करने वाले आदिवासियों पर बम एवं बंदूक से हमला किया गया, जिसमें 19 आंदोलनकारी मारे गए। इतिहास बताता है कि जहां-जहां आंदोलनकारी शहीद हुए हैं वहां उनकी जमीन बच गई है। इसलिए कलिंगानगर जाते समय मेरे मन में भी काफी उत्साह था उस आंदोलन के बारे में जानने के लिए। मैं उन बहादुर आदिवासी शहीदों के बारे में जानना चाहता था, जिन्होंने अपने पूर्वजों की धरोहर को बचाने के लिए अपनी जान दे दी। लेकिन कलिंगानगर पहुंचते ही मेरे होश उड़ गए क्योंकि वहां टाटा कंपनी का एक विराट स्टील प्लांट खड़ा किया जा रहा था। फिर भी हम बचे हुए आंदोलनकारियों को खोजने लगे। शांम होते ही कलिंगानगर रोशनी की चकाचैंध छटा से सराबोर हो गया। आधुनिक दौड़ में इसी को विकास कहते हैं विकास पंडित। लेकिन हम तो इस चकाचैंध रोशनी में भी उन आदिवासियों को देखना चाहते थे, जिनकी जमीन पर टाटा कंपनी का विशाल इमारत खड़ा किया जा रहा है। निश्चय ही आदिवासी दिखे, लेकिन अपनी ही जमीन पर मजदूरी करते हुए। टाटा प्लांट के बाहर सैंकड़ों की संख्या में हडि़या बेचते हुए। और कुछ लोग इस चिंता में पड़े हुए मिले कि उनका अस्तित्व बच पायेगा या नहीं। कुल मिलकर कहें तो भविष्य अंधकारमय!

कलिंगनगर का इलाका ‘हो’ आदिवासी बहुल था। लेकिन निलाचल एवं टाटा कंपनी की स्थापना के बाद यहां गैर-आदिवासियों की संख्या निरंतर बढ़ने लगी है। नये-नये रेस्टोरेंट, होटल और टाउनशीप का निमार्ण हो रहा हैै। आदिवासियों के साथ एक और बड़ी त्रासदी यह है कि निलाचल, टाटा कंपनी एवं ओडिसा सरकार ने तो विकास के नाम पर उनसे लगभग 13,000 एकड़ जमीन छिन लिया है। लेकिन इन कंपनियों में नौकनी करने आये गैर-आदिवासियों ने भी गैर-कानूनी तरीके से उनकी बची-खुची जमीन को हड़पने का प्रयास जारी रखा है, जो तबतक चलता रहेगा जबतक यहां के आदिवासी पूरी तरह से लूट नहीं जाते हैं। गांवों से शहरों में विकसित किया गया जमशेदपुर, रांची, बोकारो, राउरकेला या आप कहीं का भी उदाहरण ले लीजिए। वे इसी तरह लूटे गए हैं और लूटे जा रहे हैं। आज के जमाने में विकास का मतलब ही यही है कि आदिवासियों से उनकी जमीन, जंगल, पानी, खनिज और पहाड़ छिनकर पूंजीपतियों को दे देना। और जिन-जिन राज्यों की सरकारें इसमें जितना ज्यादा माहिर हैं उसे उतना ही ज्यादा तेजी से उभरता हुआ राज्य कहा जा रहा है। अब इस सूची में छत्तीसगढ़ और ओडिसा पहले और दूसरे पायदान पर दिखाई दे रहे हैं। इसी से आप समझ सकते हैं कि इन राज्यों में आदिवासियों के संसाधनों को लूटने का रफ्तार कितनी तेज है।   

आदिवासियों के कलिंगनगर आने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। यह क्षेत्र सुकिंदा कहलाता है, जहां सुकिंदा राजा का शासन चलता था। कहा जाता है कि सुकिंदा एवं पोड़हाट के राजाओं के बीच काफी अच्छी दोस्ती थी। सुकिंदा राजा के पास प्रजा बहुत कम थे इसलिए जंगल की रक्षा हेतु उन्होंने पोड़हाट के राजा से कुछ प्रजा अपने यहां भेजने का आग्रह किया। इस पर पोड़हाट के राजा राजी हो गए और आदिवासियों को यहां भेज दिया। इस तरह से आदिवासी यहां पर आये। सुकिंदा राजा ने आदिवासियों की मेहनत को देखकर उन्हें यही बसाया और उन्हें जमीन भी दे दी। इसके बाद में और भी आदिवासी इस क्षेत्र में आये, जिन्होंने जंगल साफ कर खेती योग्य जमीन बनाया। आज भी आदिवासियों के पास राजा द्वारा निर्गत पट्टा उपलब्ध है। हालांकि 1928 में पहली बार अंग्रेज सरकार ने जमीन का सेटलमेंट किया लेकिन उस समय भी सभी को पट्टा नहीं दिया गया। यहां के आदिवासी आज भी जमीन पर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं क्योंकि जमीन उनके आजीविका का संसाधन भर नहीं है लेकिन उनकी पहचान, संस्कृति, इतिहास, विरासत और अस्तित्व भी जमीन पर ही निर्भर है।

1991 में उदारीकरण के तुरंत बाद सरकार की नजर इस क्षेत्र पर पड़ी। 1992 में ओडिसा सरकार ने यहां ‘‘कालिंगानगर इंडस्ट्रियल काॅम्पलेक्स’’ के निर्माण हेतु जमीन अधिग्रहण कानून 1894 के तहत जमीन का मूल्य प्रति एकड़ 37,000 रूपये निर्धारित कर अधिग्रहण प्रारंभ किया लेकिन आदिवासियों ने इसका भारी विरोध किया। इसी बीच कुछ गैर-आदिवासी लोग सरकार को जमीन देने के लिए तैयार हो गए। इस तरह से सरकार ने 13,000 एकड़ जमीन को अधिगृहित घोषित कर दिया लेकिन रैयतों से जमीन हासिल करने में असमर्थ रहा। इसी बीच कुछ अधिगृहित जमीन पर भूमि पूजन भी किया गया लेकिन फिर से रैयतों के विरोध के कारण कार्य प्रारंभ नहीं किया जा सका। इसी बीच भूषण कंपनी एवं सिमलेक्स कंपनी ने भी इस क्षेत्र में जमीन लेने का प्रयास किया लेकिन आदिवासियों के भारी विरोध की वजह से वे भी अपने मनसूबा में कामयाब नहीं हुए।

फिर 1997 में ओडिसा सरकार के सहयोग से चलने वाली कंपनी ‘नीलाचल इस्पात निगम लिमिटेड’ का यहां आगमन हुआ। कंपनी ने प्रतिवर्ष 1.1 मिलियन टन आयन एवं स्टील उत्पादन क्षमता वाली प्लांट की स्थापना का प्रयास शुरू किया। कंपनी ने जमीन के बदले मुआवजा एवं नौकरी देने के नाम पर आदिवासियों से लगभग 2500 एकड़ जमीन मांगा। जब आदिवासी लोग इसके लिए तैयार हो गए तो कंपनी ने पूरा जमीन पर घेरा डाल दिया। इसके बाद सेरेंगसाई, खोडयापुम, सरामपुर, डोंकागडिया एवं हेसाकुंडी के लगभग 1000 घरों को बुलडोजर से रौंद दिया गया और विरोध करने वाले आदिवासियों को पुलिस द्वारा लाठी चलवाया गया एवं उन्हें जेलों में डाल दिया गया। इसके बाद बचे हुए लोगों को गोबरघाटी कोलोनी में डांम्प कर दिया गया तथा 7 वर्षों तक उन्हें न मुआवजा और न ही नौकरी दी गई। कंपनी के रवैये को देखते हुए आदिवासियों ने 2004 में ‘‘विस्थापन विरोधी जनामंच’’ का गठन कर कंपनी के खिलाफ मोचा खोल दिया। आदिवासियों के भारी विरोध को देखते हुए नीलाचल कंपनी ने रैयतों को जमीन का मुआवजा और नौकरी देना प्रारंभ किया। हालांकि अभी भी सभी रैयतों को मुआवजा और नौकरी नहीं मिल पायी है। आंदोलन के नेतृत्वकर्ता चक्रधर हाईब्रू कहते हैं कि आंदोलन नहीं होने से रैयतों को कुछ भी नहीं मिलता।

इसी बीच 17 नवंबर, 2004 को ओडि़सा सरकार एवं टाटा कंपनी के बीच ग्रीनफिल्ड परियोजना हेतु एक समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर किया गया। कालिंगानगर परियोजना टाटा का दूसरा सबसे बड़ा ग्रीनफिल्ड परियोजना है जो दो फेज में 3-3 मिलियन टन का बनेगा, जिसकी लागत 15,400 करोड़ रूपये है, जिसके लिए कंपनी को कुल 6000 एकड़ जमीन की जरूरत है। सरकार ने टाटा कंपनी को 3471.808 एकड़ जमीन दे दिया है जो ओडिसा इंडस्ट्रियल इंफ्रस्ट्रक्चर डेवलाॅपमेंट काॅरपोरेशन द्वारा हस्तांतरित है, जिसमें 2755.812 एकड़ जमीन 1195 परिवारों से लिया गया है। टाटा कंपनी दावा करती है कि सरकार ने रैयतों से 1992 में ही भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा-34 के तहत मुआवजा दे दिया था लेकिन विस्थापित लोगों को जमीन से बेदखल नहीं किया गया था। इस तरह से टाटा कंपनी इस क्षेत्र में प्रवेश कर गई और परियोजना लगाने का प्रयास शुरू कर दिया।  

2 जनवरी, 2006 को टाटा कंपनी ने बुलडोजर लगाकर जमीन का समतलीकरण प्रारंभ किया, जिसको देखते हुए आदिवासियों के बीच आक्रोश पैदा हुआ और वे काम रोकने के लिए प्रस्तावित परियोजना स्थल पर गए जहां पुलिस के साथ सीधा संघर्ष हुआ। आंदोलन के नेता अमर सिंह वानारा बताते हैं कि परियोजना स्थल को लगभग 300 सुरक्षा बलों ने घेरकर रखा था और कंपनी के लोगों ने जमीन में लैण्ड माईंस बिछाया था इसलिए जैसे ही आंदोलनकारी वहां विरोध करने पहुंचे लैण्ड माईंस बलास्ट किया गया एवं लोगों के उपर फायरिंग भी की गई, जिसे घटना स्थल पर ही 12 लोगों की मृत्यु हो गई एवं 50-60 लोग बुरी तरह से घायल हो गए। इतना ही नहीं कंपनी के लोगों ने लाशों के साथ भी अमानवीय व्यवहार किया। चक्रधर हाईब्रू एवं अमर सिंह वानारा दोनों बताते हैं कि पोस्ट माॅर्डम के बाद जब उन्हें लाश दिया गया तब कुछ महिलाओं का स्तन एवं कुछ का हाथ कटा हुआ था, जिसे जनाक्रोश और ज्यादा बढ़ गया। आंदोलनकारियों ने सभी शहीदों का अंतिम संस्कार एक ही जगह किया जहां बाद में शहीद स्थाल का निर्माण किया गया है। आंदोलन के दौरान पुलिस फायरिंग में 12 लोग एक साथ मारे गए थे एवं 7 लोगों की मौत इलाज के दौरान अस्पाताल में हुई। इस तरह से कलिंगानगर गोलीकंड में कुल 19 आदिवासी लोग शहीद हो गए।

इस घटना के बाद आंदोलन और ज्यादा तेज हो गया। कलिंगानगर से पारादीप जाने वाली सड़क को अनिश्चितकाल के लिए बन्द का दिया गया, जो 14 महिनों तक जारी रहा। स्थिति ऐसी हो गई थी कि टाटा कंपनी के लिए परियोजना लगाना मुश्किल दिखाई दे रहा था। और जब 19 लोग शहीद हुए हों तो मानवता के नाते भी टाटा कंपनी को परियोजना वापस ले लेना चाहिए था। लेकिन टाटा कंपनी को सिर्फ और सिर्फ लाभ चाहिए उन्हें मानवता से क्या लेना देना है? टाटा कंपनी ने कई गांवों के युवाओं को पैसा का लालच देकर दलाल बनाया। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य यह है कि गांवों में आधुनिक गाडि़यां बाॅलेरो, पाजेरो, स्काॅरपियो इत्यादि देखा जा सकता है। ये गाडि़यां गांवों में कैसे पहुंची? आंदोलनकारियों के खिलाफ फर्जी मुकदमा किया गया। 8 आंदोलनकारियों को कंपनी के एक कर्मचारी की हत्या करने का आरोप लगाकर जेल भेज दिया गया। चक्रधर हाईब्रू, रवि जारिका, चक्रधर हाईब्रू (जूनियर), तुरम पूर्ति, प्रताप चाला इत्यादि के खिलाफ माओवादी होने का आरोप लगाकर फर्जी मुकदमा दर्ज किया गया। कोई भी ऐसा आंदोलनकारी नहीं है, जिसको पुलिस ने धमकाने की कोशिश नहीं की। पुलिस आंदोलनकारियों को बाजार, घर या तालाब कहीं से भी उठा लेती थी। इस तरह से लगभग 120 लोगों को जेल में डाला गया। इस तरह से आंदोलन को तोड़ा गया, जिसमें राजनीतिक दलों के स्थानीय नेताओं ने भी इसमें प्रमुख भूमिका निभायी क्योंकि उन्हें भी पैसा का लालच दिय गया।  

इतना ही नहीं जजपुर जिले के जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक एवं सहायक पुलिस अधीक्षक लगातार आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं के पास जाकर उन्हें समझाने व धमकाने की कोशिश में जुटे रहे। ऐसा लगने लगा था कि जजपुर जिले का प्रशासन एवं पुलिस दोनो सिर्फ टाटा कंपनी के लिए काम कर रहे हैं। आंदोलन के नेता चक्रधर हाईब्रू बताते हैं कि जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक एवं सहायक पुलिस अधीक्षक उसके यहां जाते थे एवं उसे गेस्ट हाउस भी बुलाकर यही कहते थे कि वे कंपनी का विरोध नहीं करे नहीं तो उसे इसके लिए भुगतना पड़ेगा। पुलिस दमन के कारण आंदोलनकारी एवं ग्रामीण भयभीत हो गए व जमीन देने के अलावा उनके पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा। आंदोलनकारी अमर सिंह वानरा कहते हैं कि राजकीय दमन ने आदिवासियों को जमीन छोड़ने के लिए मजबूर कर दियाा। अंतः आदिवासियों ने टाटा कंपनी को अपनी दे दी। इस परियोजना से सनचानडिया, बैइबुरू, चम्पाकोयला-1, कालामाटी, चंडिया, बालिगोथा, गोबरघाटी, बमियागोथा, चम्पाकोयला-2, अम्बागडिया, ससोगोथा, गदापुर एवं बन्दगाडिया गांवों के लगभग 6000 लोग विस्थापित हो गए। उनके गांवों को बुलडोज कर उन्हें ट्राॅजिट काॅलोनियों में रख दिया गया और प्रचार किया जा रहा है कि वे स्वयं ही जमीन देने के लिए राजी हो गए और टाटा परिवार के सदस्य बन गए हैं।

टाटा कंपनी के कलिंगानगर परियोजना का निर्माण ठेका पर किया जा रहा है, जिसमें 35,000 मजदूर प्रतिदिन 170 रूपये की हाजरी पर कार्यरत हैं। यह अलग बात है कि आॅवर टाईम काम करके वे ज्यादा पैसा कमा लेते हैं लेकिन वे प्रतिदिन शांम में नशाीले पदार्थों का सेवन कर अपना सेहत भी बिगाड़ रहे हैं। और यह करना उनकी मजबूरी है वरना काम ही नहीं कर पायेंगे। इतना ही नहीं कंपनी के बाहर सैंकड़ों की संख्या में हडि़या दुकान, दारू दुकान एवं छोटे-छोटे अन्य दुकान हैं। मीडिया की भाषा में ये सारे रोजगार हैं, जो कंपनी द्वारा पैदा किया जाता है। इसमें हास्यास्पद बात यह है कि जहां भी कोई बड़ा परियोजना का निर्माण होता है उसमें दिहाड़ी मजदूरी, उसके इर्द-गिर्द लगने वाले सभी तरह के दुकान हडि़या-दारू दुकान सहित रोजगार के श्रेणी में आते हैं लेकिन वहीं काम आम जगहों पर होने पर रोजगार के श्रेणी में नहीं गिने जाते है। कभी-कभी तो इसे गैर-कानूनी कार्य की श्रेणी में भी रखा जाता है और लोगों को जेल भी जाना पड़ता है। सवाल यह भी है कि 35,000 मजदूरों का भविष्य क्या है? क्या प्लांट तैयार हो जाने के बाद उन्हें बाहर नहीं कर दिया जायेगा? बड़ा उद्योग को ही विकास और रोजगार बताकर ढोल पीटने वाली मीडिया को इसका जवाब देना चाहिए।

26 जनवरी, 2001 को देश के पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्र को संबोधित करते समय देशवासियों को चेतावनी देते हुए कहा था कि ‘‘आनेवाली पीढि़ हमें यह न कहे कि इस हरी-भरी धरती एवं उस पर सदियों से वास करने वाले बेगुनाह आदिवासियों को बर्बाद कर भारतीय गणतंत्र का निर्माण किया गया’’। लेकिन कलिंगानगर का दौरा करने के बाद मुझे यह विश्वास हो चुका है कि भारतीय गणतंत्र को आदिवासियों की हत्या करने में शर्म नहीं आती है। और वह लगातार आदिवासियों की लाश पर इस आधुनिक भारत का निमार्ण में लगा हुआ है। अब मेरा विश्वास भी तथाकथित लोकतंत्र से लगातार टूटता जा रहा हैं। आजकल राष्ट्रीय टेलिविजन चैनलों में हम आदिवासियों को यह लेक्चर दिया जा रहा है कि अगर हमारे साथ अन्याय हो रहा है तो हमें लोकतंत्रिक तरीके से आवाज उठाना चाहिए न कि बंदूक की गोली से। मैं उन लोगों से पूछना चाहता हूँ कि आप किस लोकतंत्र की बात कर रहे है? क्या कलिंगानगर के आदिवासी बंदूक लेकर टाटा कंपनी का विरोध कर रहे थे? जब जिले का उपायुक्त और पुलिस अधीक्षक पूंजीपतियों को जमीन दिलाने में दिन-रात एक कर दे तो आदिवासी लोग किसके पास जाये? जिले के उपायुक्त को ही तो आदिवासियों की जमीन रक्षा का जिम्मा दिया गया है? आदिवासियों के लिए लोकतंत्र कहां है?

टाटा कंपनी के कलिंगानगर परियोजना का नारा है ‘‘नया जीवन, नई आशा’’ लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि 19 आदिवासियों की हत्या कर उनकी जमीन पर विकास की इमारत खड़ा करने वाली टाटा कंपनी आदिवासियों को क्या नया जीवन और नयी आशा दे सकता है? क्या 19 शहीदों का कोई मूल्य भी है? क्या कंपनी और सरकार तब भी इसी तरह का व्यवहार करते जब 19 गैर-आदिवासी वहां शहीद हो गए होते? आदिवासियों की लाश पर विकास की इमारत खड़ा करने से पहले पांचवी अनुसूची एवं पेसा कानून की अनदेखी क्यों की गई? क्यों आदिवासियों से यह नहीं पूछा गया कि वे क्या चाहते है? क्या इस लोकतंत्र में आदिवासियों का कोई अधिकार ही नहीं है? आदिवासियों को चारों तरफ से क्यों लूटा जा रहा है? क्या तथाकथित मुख्यधारा में शामिल लोगों के पास मानवता, नैतिकता और भाईचारा बचा ही नहीं है? अगर ऐसा ही है तो आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल कर आप उन्हें भी लूटेरा मत बनाईये। आदिवासियों को आदिवासी ही रहने दीजिए क्योंकि हम हरी-भरी धरती एवं किसी के लाश पर विकास की इमारत खड़ा नहीं करना चाहते हैं।

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