शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

विस्थापन के दर्द से तड़प-तड़पकर

ग्लैडसन डुंगडुंग -







विस्थापन के दर्द से तड़प-तड़पकर,
जीना पड़ेगा तुम्हें,  
और विकास के नाम पर,
लूट कर तुम्हारी,
जमीन, जंगल, पहाड़, नदी और खनिज,
सुशिक्षित, सभ्य और विकसित,
होने की तिलक लगेगी,
माथे पर हमारी,
बिजली बनेगी डैम में तुम्हारी,
लेकिन जगमगायेगा रोशनी से घर हमारा,
बनेगा लोहा खनिज से तुम्हारा,
और मजबूत होगा उससे घर हमारा,
उद्योग लगेगा खेतों में तुम्हारा,  
पर मिलेगी नौकरी उसमें बच्चों को हमारा,
जंगल, जमीन, पहाड़, नदी और खनिज बचाने की,
कोशिश मत करना कभी,
भाषा, संस्कृति और अस्तित्व रक्षा की,  
हिम्मत मत जुटाना कभी
नमक से भी कम है,
हमारे समाज में कीमत तुम्हारी,
लूटने दो तुम हमें,
जमीन, जंगल, पहाड़, नदी और खनिज अपनी,
वरना बना देंगे तुम्हें हम,
विकास विरोधी, नक्सली और देशद्रोही,
अपने पूर्वजों की कभी दुहाई मत देना,
विकास की इमारतें बनेगी,
कब्रगह पर तुम्हारी,
और तुम्हारे हिस्से का मुआवजा भी,
लूटने से खूद को रोक न पायेंगे हम,
याद दिलाना मत कानून की हमें कभी,
देश का संविधान भी,
कब जो काम आया है तुम्हारा,
जनहित के नाम पर,
विकास का आतंकवाद,
कर देगा तुम्हें बर्बाद,
और बर्बादी को भी तुम्हारी,
परोशकर रूपहले परदे पर,
किस्मत चमकायेंगे हम अपनी ही,  
विस्थापन के दर्द से तड़प-तड़पकर,
जीना पड़ेगा तुम्हें ही. 

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