- ग्लैडसन डुंगडुंग -
16वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम ने देश की पूरी राजनीतिक परिदृृश्य को ही बदल दिया है। देश में अबतक यह माना जाता था कि अल्पसंख्यक वोट ही केन्द्र की राजनीति तय करता है। लेकिन अब यह कहा जा रहा है कि अल्पसंख्यक वोट निर्णयक नहीं रह गया है। इसलिए यह विचार विविधता में एकता के लिए ज्यादा खतरनाक है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में भाजपा की सरकार बनते ही बृहद पैमाने पर यह प्रचार-प्रसार किया जा रहा है कि देश के 125 करोड़ जनता के लिए अच्छे दिन आ गये। हालांकि केन्द्र सरकार द्वारा पैसेंजर ट्रेन का भाड़ा में 14 प्रतिशत की वृद्धि, जरूरी समानों की कीमत में वृद्धि एवं पेट्रोल व डीजल की कीमत में बढ़ोतरी का निर्णय ने लोगों के उम्मीदों पर सवालिया निशान जरूर लगा दिया है। बावजूद इसके भाजपा के समर्थक इस बढ़ोतरी को न्यायोचित ठहरा रहे हैं। कुछ भी हो लेकिन संसद में राष्ट्रपति का अभिभाषण में आदिवासियों के लिए ‘‘वनबंधु’’ जैसे शब्दों का सरकारीकरण करना, नर्मदा डैम की उंचाई बढ़ाने का निर्णय, आदिवासी हितों में बने जमीन रक्षा कानूनों को समाप्त करने का निर्णय, खनन कंपनियों के वास्ते कानूनों में भारी परिवर्तन एवं जल, जंगल और जमीन बचाने के लिए आदिवासियों के संघर्ष में साथ देने वाले गैर-सरकारी संगठनों पर लगाम लगाने का निर्णय एक स्पष्ट संकेत है कि आदिवासियों के लिए बुरे दिन आ रहे हंै। लेकिन क्या नरेन्द्र मोदी को वोट देने वाले आदिवासियों के पास अब भी इसके लिए कुछ कुतर्क बचा हुआ है? क्या वे अब भी मोदी का समर्थन करेंगे? या क्या वे मोदी के इन निर्णयों के खिलाफ बोलेंगे?
हमारे उम्मीदों के अनुरूप ही देश के केन्द्रीय सत्ता पर बैठते ही संघ परिवार ने आदिवासियों के पहचान और अस्मिता के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया है। 5 जनवरी, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आदिवासी ही भारत के मूल निवासी हैं। संघ परिवार इसी बात को झूठलाना चाहती है क्योंकि इनके पूर्वज यूरोप से आये थे बावजूद इसके वे स्वयं को देश का मूल निवासी साबित करने पर तुले हुए हैं और इसके लिए उन्हें आदिवासियों को वनवासी यानी जंगली बनाना ही होगा। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने अनुसूचित जनजातियों के लिए 100 करोड़ की लागत वाली ‘‘वनबंधु कल्याण योजना’’ लागू करने की घोषणा की है। लेकिन सवाल यह है कि जब आदिवासियों के लिए संवैधानिक शब्द ‘‘अनुसूचित जनजाति’’ रखा गया है तो फिर ‘‘अनुसचित जनजाति कल्याण योजना’’ के जगह पर मोदी सरकार ने क्यों इस योजना का नाम ‘‘वनबंधु कल्याण योजना’’ रखा? इस प्रश्न को गंभीरता से चर्चा किया जाना चाहिए क्योंकि यह आदिवासी पहचान एवं अस्मिता के साथ सीधा जुड़ा हुआ है और इसके दूरगामी परिणाम होंगे।
हमें यह समझना चाहिए कि केन्द्र सरकार ऐसा इसलिए कर रही है ताकि आदिवासी लोग स्वयं को धीरे-धीरे वनवासी यानी जंगली कहना स्वीकार कर ले और देश के मूलवासी होने का दावा करना छोड़ दें। केन्द्र सरकार में मंत्री पद का शपथ लेने के बाद लोहरदगा के सांसद सुदर्शन भगत ने विगत दिनों अपने झारखंड प्रवास के दौरान कहा कि नमोः ने उन्हें वनवासियों के कल्याण का भार सौंपा है। वे आदिवासियों के लिए वनवासी शब्द का प्रयोग बड़े पैमाने कर रहे हैं लेकिन किसी ने भी उनका विरोध नहीं किया। लेकिन क्या सुदर्शन भगत को आदिवासी पहचान और अस्मिता के लिए विगत सैकड़ों वर्षों से चल रहे संघर्ष के बारे में कुछ भी नहीं पता? क्या वे सिर्फ निजी फायदा के लिए आदिवासी समाज के पहचान, अस्मिता और अस्तित्व को ही इस तरह दांव पर रख रहे हैं? क्या आदिवासी नेता इस तरह गैर-आदिवासियों के मानसिक गुलामी के शिकार हैं?
इतिहास यह बताता है कि पहचान और अस्मिता के सवाल पर आदिवासियों के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ किया गया। सबसे पहले आर्य लेखक, सहित्यकार और इतिहासकारों ने आदिवासियों को असूर, राक्षस, सूअर, बंदर, भालू, जंगली, मांसभक्षी इत्यादि कहा। उसके बाद अंग्रेजों के शासन काल में 12 अक्टूबर, 1871 को क्रिमिलन ट्राइब्स एक्ट लागू किया गया और यहां तक कहा गया कि इन आदिवासियों के आदत में ही अपराध है। इसलिए उन्हें घुमने में मनाही, प्रौढ़ आदिवासियों को प्रति सप्ताह थाना में सूचना देना और बहुत तरह के प्रताड़ना से गुजरना पड़ा। 1947 में आजादी के समय 127 आदिवासी समुदायों के 1 करोड़ 30 लाख लोगों को को इस कानून की वजह से प्रताड़ना झेलना पड़ा। देश के आजादी का पहला संघर्ष 1782 में बाबा तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासियों ने शुरू किया और वे देश के लिए शहीद हो गये लेकिन उन्हें इतिहास में जगह नहीं दी गयी। देश आजाद होने के बाद भी उनके पहचान के साथ खिलवाड़ किया गया। उन्हें कभी एस.टी., गिरिजन तो कभी वनवासी कहा गया। और अब संघ परिवार संचालित केन्द्र सरकार ने आदिवासियों के लिए वनबंधु जैसे शब्दों का सरकारीकरण कर आदिवासियों के पहचान और अस्मिता को समाप्त करने का पूरा षड्यंत्र बना लिया है, जिसका खुलकर विरोध होना चाहिए।
इधर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने नर्मदा डैम का उंचाई 122 मीटर से 138 मीटर बढ़ाने का निर्णय लिया है, जो गुजरात सरकार की पुरानी मांग थी। इस डैम से महाराष्ट्र, गुुजरात और मध्यप्रदेश के लगभग 2.5 लाख लोग प्रभावित हैं, जिनके पुनर्वास का काम अधूरा पड़ा हुआ है। डैम की वर्तमान उंचाई से 16 मीटर ज्यादा बढ़ाने से आदिवासियों का घर, खेत-खलिहान सबकुछ डूब जायेगा। लेकिन नरेन्द्र मोदी को इसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे उसी समय उन्होंने कहा था कि गुजरात के 4 लाख किसानों की खुशहली के लिए 10 हजार आदिवासियों को विस्थापित करने में कोई हर्ज नहीं होनी चाहिए। नरेन्द्र मोदी सत्ता से चिपक कर रहना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें मध्यवर्ग और किसानों का समर्थन चाहिए। आज आदिवासियों का वोट सत्ता को प्रभावित नहीं कर पा रही है इसलिए उनके हितों के बारे में कोई चिंता नहीं करता है और मोदी भी वहीं कर रहे हैं। केन्द्र सरकार के इस निर्णय का सीधा असर आदिवासियों के आजीविका, पहचान और अस्तित्व पर पड़ेगा।
केन्द्र सरकार ने गैर-सरकारी संस्थानों पर लागाम लगाने का निर्णय लिया है, जिसका असर भी सीधे तौर पर आदिवासी समाज पर पड़ेग। झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडि़सा की राज्य सरकारों ने विगत कुछ वर्षों में लगभग 500 बड़े देशी और विदेशी निजी कंपनियों के साथ इन राज्यों में तथाकथित विकास परियोजना लगाने के लिए समझौता किया है, जिसमें टाटा, जिंदल, मित्तल, पोस्को, एस्सार, भूषण इत्यादि शामिल हैं। आदिवासियों ने अपने पूवर्जो से विरासत में मिले जल, जंगल, जमीन, पहाड़ और खनिज की रक्षा के लिए इन कंपनियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है। आदिवासियों को मालूम हैं कि उनका अस्तित्व तभी तक बना रहेगा जबतक उनके पास ये संसाधन हैं इसलिए वे किसी भी कीमत पर इन संसाधनों को पूंजीपतियों के हाथों में सौंपना नहीं चाहते हैं। निश्चित तौर पर आदिवासियों को संगठित करने में गैर-सरकारी संगठनों का बहुत बड़ा हाथ है इसलिए केन्द्र सरकार इन संगठनों पर सीधा हमला कर रही है। केन्द्र सरकार को लगता है कि गैर-सरकारी संगठनों पर लागाम लगाने से जनांदोलन कमजोर पड़ जायेंगे। फलस्वरूप, आदिवासियों को बंदूक और कानून का भय दिखाकर उनसे उनका प्रकृतिक संसाधन लूटने में आसान हो जायेगा।
इस बात की गंभीरता इसी से समझी जा सकती है कि छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में छोटे-बड़े सभी को मिलाकर लगभग 500 निजी कम्पनियों का प्रवेश हो रहा है। झारखंड के छोटानागपुर और कोल्हान इलाके में 100 से ज्यादा बड़ी कंपनियां अपना पैर पसार रही हैं तथा ओडि़सा के प्रकृतिक संसाधनों को वेदांता, पोस्को और मित्तल कंपनी हड़प लेना चाहती हैं। इसलिए इन इलाकों के आदिवासियों को कहा जा रहा है कि वे जमीन का मुआवजा और नौकरी लेकर जमीन इन कंपनियों के हाथों में सौंप दे। इसलिए वहां के बहुसंख्यक आदिवासी डरे-सहमें हुए हैं। उनका भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग चुका है। वे अगर इन कंपनियों का विरोध करते हैं तो उन्हें नक्सली, विकास विरोधी और राष्ट्रद्रोही बताकर उन्हें मार दिया जायेगा या उनके खिलाफ फर्जी मुकदमा दायर कर उन्हें जेलों में डाल दिया जायेगा। वे इस तथाकथित विकास का समर्थन करते हुए अपनी जमीन इन कंपनियों को सौंप देते हैं तो उनकी अगली पीढि़ शायद भीख मांगने के कगार पर पहुंच जायेगा। रांची स्थित एच.ई.सी., जमशेदपुर स्थित टाटा कंपनी और बोकारो स्थित बी.एस.एल. के कड़ुआ अनुभव ने इन आदिवासियों को हैरन कर दिया है। मतलब इनके लिए एक तरफ कुआं तो दूसरे तरफ खाई हैं यानी इन्हें किसी भी तरह से गड्ढ़े में गिरना ही होगा। लेकिन क्या सचमुच में इन आदिवासियों को डरने की जरूरत है जब वे इस देश के मूलनिवासी है? आदिवासियों के संघर्ष का गौरवपूर्ण इतिहास तो यही बताता है कि उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है बस उन्हें अपना उलगुलान जारी रखना होगा।
लेकिन सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि देश का संवैधानिक प्रावधान, आदिवासी हितों में बने कानून और पारंपरिक अधिकार भी उन्हें बचाने में नाकाम हैं क्योंकि इन प्रावधानों और कानूनों को लागू करने वाले लोग ही तो उन्हें लूट रहे हैं और आदिवासी हितों में बने कानूनों और संवैधानिक प्रावधानों पर हमला कर रहे हैं। मुर्गों के अदालत में आनाज को न्याय मिल सकता है क्या? जब उनके लिए लगाये गये पहरेदार ही उन्हें लूट रहे हैं तो और कौन उन्हें बचायेगा? औद्योगपतियों से 5000 करोड़ रूपये लेकर मीडिया में चुनाव अभियान चलाने वाले लोग आदिवासियों के लिए अच्छे दिन लायेंगे या औद्योगपतियों के लिए आदिवासी इलाकों को स्वर्ग में बदल डालेंगे? आदिवासियों को अगर बचना है तो इन नेताओं के झूठे वादों पर विश्वास करना छोड़ना होगा। मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासी महासभा के अधिवेशन में भाषण देते हुए कहा था कि काश अगर उन्हें इतिहास ने शबक सिखाया होता तो वे देश के नेताओं के झूठे वादों पर विश्वास नहीं करते। क्या आज के आदिवासी नेताओं को इतिहास सीखा पाने में सक्षम नहीं है? क्या वे आदिवासी समाज के पहचान, अस्मिता और अस्तित्व को लेकर थोड़ा भी जागरूक है? या क्या वे भी मोदी से अच्छे दिनों की उम्मीद लगाये बैठे हैं?
हमारे उम्मीदों के अनुरूप ही देश के केन्द्रीय सत्ता पर बैठते ही संघ परिवार ने आदिवासियों के पहचान और अस्मिता के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया है। 5 जनवरी, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आदिवासी ही भारत के मूल निवासी हैं। संघ परिवार इसी बात को झूठलाना चाहती है क्योंकि इनके पूर्वज यूरोप से आये थे बावजूद इसके वे स्वयं को देश का मूल निवासी साबित करने पर तुले हुए हैं और इसके लिए उन्हें आदिवासियों को वनवासी यानी जंगली बनाना ही होगा। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने अनुसूचित जनजातियों के लिए 100 करोड़ की लागत वाली ‘‘वनबंधु कल्याण योजना’’ लागू करने की घोषणा की है। लेकिन सवाल यह है कि जब आदिवासियों के लिए संवैधानिक शब्द ‘‘अनुसूचित जनजाति’’ रखा गया है तो फिर ‘‘अनुसचित जनजाति कल्याण योजना’’ के जगह पर मोदी सरकार ने क्यों इस योजना का नाम ‘‘वनबंधु कल्याण योजना’’ रखा? इस प्रश्न को गंभीरता से चर्चा किया जाना चाहिए क्योंकि यह आदिवासी पहचान एवं अस्मिता के साथ सीधा जुड़ा हुआ है और इसके दूरगामी परिणाम होंगे।
हमें यह समझना चाहिए कि केन्द्र सरकार ऐसा इसलिए कर रही है ताकि आदिवासी लोग स्वयं को धीरे-धीरे वनवासी यानी जंगली कहना स्वीकार कर ले और देश के मूलवासी होने का दावा करना छोड़ दें। केन्द्र सरकार में मंत्री पद का शपथ लेने के बाद लोहरदगा के सांसद सुदर्शन भगत ने विगत दिनों अपने झारखंड प्रवास के दौरान कहा कि नमोः ने उन्हें वनवासियों के कल्याण का भार सौंपा है। वे आदिवासियों के लिए वनवासी शब्द का प्रयोग बड़े पैमाने कर रहे हैं लेकिन किसी ने भी उनका विरोध नहीं किया। लेकिन क्या सुदर्शन भगत को आदिवासी पहचान और अस्मिता के लिए विगत सैकड़ों वर्षों से चल रहे संघर्ष के बारे में कुछ भी नहीं पता? क्या वे सिर्फ निजी फायदा के लिए आदिवासी समाज के पहचान, अस्मिता और अस्तित्व को ही इस तरह दांव पर रख रहे हैं? क्या आदिवासी नेता इस तरह गैर-आदिवासियों के मानसिक गुलामी के शिकार हैं?
इतिहास यह बताता है कि पहचान और अस्मिता के सवाल पर आदिवासियों के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ किया गया। सबसे पहले आर्य लेखक, सहित्यकार और इतिहासकारों ने आदिवासियों को असूर, राक्षस, सूअर, बंदर, भालू, जंगली, मांसभक्षी इत्यादि कहा। उसके बाद अंग्रेजों के शासन काल में 12 अक्टूबर, 1871 को क्रिमिलन ट्राइब्स एक्ट लागू किया गया और यहां तक कहा गया कि इन आदिवासियों के आदत में ही अपराध है। इसलिए उन्हें घुमने में मनाही, प्रौढ़ आदिवासियों को प्रति सप्ताह थाना में सूचना देना और बहुत तरह के प्रताड़ना से गुजरना पड़ा। 1947 में आजादी के समय 127 आदिवासी समुदायों के 1 करोड़ 30 लाख लोगों को को इस कानून की वजह से प्रताड़ना झेलना पड़ा। देश के आजादी का पहला संघर्ष 1782 में बाबा तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासियों ने शुरू किया और वे देश के लिए शहीद हो गये लेकिन उन्हें इतिहास में जगह नहीं दी गयी। देश आजाद होने के बाद भी उनके पहचान के साथ खिलवाड़ किया गया। उन्हें कभी एस.टी., गिरिजन तो कभी वनवासी कहा गया। और अब संघ परिवार संचालित केन्द्र सरकार ने आदिवासियों के लिए वनबंधु जैसे शब्दों का सरकारीकरण कर आदिवासियों के पहचान और अस्मिता को समाप्त करने का पूरा षड्यंत्र बना लिया है, जिसका खुलकर विरोध होना चाहिए।
इधर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने नर्मदा डैम का उंचाई 122 मीटर से 138 मीटर बढ़ाने का निर्णय लिया है, जो गुजरात सरकार की पुरानी मांग थी। इस डैम से महाराष्ट्र, गुुजरात और मध्यप्रदेश के लगभग 2.5 लाख लोग प्रभावित हैं, जिनके पुनर्वास का काम अधूरा पड़ा हुआ है। डैम की वर्तमान उंचाई से 16 मीटर ज्यादा बढ़ाने से आदिवासियों का घर, खेत-खलिहान सबकुछ डूब जायेगा। लेकिन नरेन्द्र मोदी को इसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे उसी समय उन्होंने कहा था कि गुजरात के 4 लाख किसानों की खुशहली के लिए 10 हजार आदिवासियों को विस्थापित करने में कोई हर्ज नहीं होनी चाहिए। नरेन्द्र मोदी सत्ता से चिपक कर रहना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें मध्यवर्ग और किसानों का समर्थन चाहिए। आज आदिवासियों का वोट सत्ता को प्रभावित नहीं कर पा रही है इसलिए उनके हितों के बारे में कोई चिंता नहीं करता है और मोदी भी वहीं कर रहे हैं। केन्द्र सरकार के इस निर्णय का सीधा असर आदिवासियों के आजीविका, पहचान और अस्तित्व पर पड़ेगा।
केन्द्र सरकार ने गैर-सरकारी संस्थानों पर लागाम लगाने का निर्णय लिया है, जिसका असर भी सीधे तौर पर आदिवासी समाज पर पड़ेग। झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडि़सा की राज्य सरकारों ने विगत कुछ वर्षों में लगभग 500 बड़े देशी और विदेशी निजी कंपनियों के साथ इन राज्यों में तथाकथित विकास परियोजना लगाने के लिए समझौता किया है, जिसमें टाटा, जिंदल, मित्तल, पोस्को, एस्सार, भूषण इत्यादि शामिल हैं। आदिवासियों ने अपने पूवर्जो से विरासत में मिले जल, जंगल, जमीन, पहाड़ और खनिज की रक्षा के लिए इन कंपनियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है। आदिवासियों को मालूम हैं कि उनका अस्तित्व तभी तक बना रहेगा जबतक उनके पास ये संसाधन हैं इसलिए वे किसी भी कीमत पर इन संसाधनों को पूंजीपतियों के हाथों में सौंपना नहीं चाहते हैं। निश्चित तौर पर आदिवासियों को संगठित करने में गैर-सरकारी संगठनों का बहुत बड़ा हाथ है इसलिए केन्द्र सरकार इन संगठनों पर सीधा हमला कर रही है। केन्द्र सरकार को लगता है कि गैर-सरकारी संगठनों पर लागाम लगाने से जनांदोलन कमजोर पड़ जायेंगे। फलस्वरूप, आदिवासियों को बंदूक और कानून का भय दिखाकर उनसे उनका प्रकृतिक संसाधन लूटने में आसान हो जायेगा।
इस बात की गंभीरता इसी से समझी जा सकती है कि छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में छोटे-बड़े सभी को मिलाकर लगभग 500 निजी कम्पनियों का प्रवेश हो रहा है। झारखंड के छोटानागपुर और कोल्हान इलाके में 100 से ज्यादा बड़ी कंपनियां अपना पैर पसार रही हैं तथा ओडि़सा के प्रकृतिक संसाधनों को वेदांता, पोस्को और मित्तल कंपनी हड़प लेना चाहती हैं। इसलिए इन इलाकों के आदिवासियों को कहा जा रहा है कि वे जमीन का मुआवजा और नौकरी लेकर जमीन इन कंपनियों के हाथों में सौंप दे। इसलिए वहां के बहुसंख्यक आदिवासी डरे-सहमें हुए हैं। उनका भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग चुका है। वे अगर इन कंपनियों का विरोध करते हैं तो उन्हें नक्सली, विकास विरोधी और राष्ट्रद्रोही बताकर उन्हें मार दिया जायेगा या उनके खिलाफ फर्जी मुकदमा दायर कर उन्हें जेलों में डाल दिया जायेगा। वे इस तथाकथित विकास का समर्थन करते हुए अपनी जमीन इन कंपनियों को सौंप देते हैं तो उनकी अगली पीढि़ शायद भीख मांगने के कगार पर पहुंच जायेगा। रांची स्थित एच.ई.सी., जमशेदपुर स्थित टाटा कंपनी और बोकारो स्थित बी.एस.एल. के कड़ुआ अनुभव ने इन आदिवासियों को हैरन कर दिया है। मतलब इनके लिए एक तरफ कुआं तो दूसरे तरफ खाई हैं यानी इन्हें किसी भी तरह से गड्ढ़े में गिरना ही होगा। लेकिन क्या सचमुच में इन आदिवासियों को डरने की जरूरत है जब वे इस देश के मूलनिवासी है? आदिवासियों के संघर्ष का गौरवपूर्ण इतिहास तो यही बताता है कि उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है बस उन्हें अपना उलगुलान जारी रखना होगा।
लेकिन सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि देश का संवैधानिक प्रावधान, आदिवासी हितों में बने कानून और पारंपरिक अधिकार भी उन्हें बचाने में नाकाम हैं क्योंकि इन प्रावधानों और कानूनों को लागू करने वाले लोग ही तो उन्हें लूट रहे हैं और आदिवासी हितों में बने कानूनों और संवैधानिक प्रावधानों पर हमला कर रहे हैं। मुर्गों के अदालत में आनाज को न्याय मिल सकता है क्या? जब उनके लिए लगाये गये पहरेदार ही उन्हें लूट रहे हैं तो और कौन उन्हें बचायेगा? औद्योगपतियों से 5000 करोड़ रूपये लेकर मीडिया में चुनाव अभियान चलाने वाले लोग आदिवासियों के लिए अच्छे दिन लायेंगे या औद्योगपतियों के लिए आदिवासी इलाकों को स्वर्ग में बदल डालेंगे? आदिवासियों को अगर बचना है तो इन नेताओं के झूठे वादों पर विश्वास करना छोड़ना होगा। मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासी महासभा के अधिवेशन में भाषण देते हुए कहा था कि काश अगर उन्हें इतिहास ने शबक सिखाया होता तो वे देश के नेताओं के झूठे वादों पर विश्वास नहीं करते। क्या आज के आदिवासी नेताओं को इतिहास सीखा पाने में सक्षम नहीं है? क्या वे आदिवासी समाज के पहचान, अस्मिता और अस्तित्व को लेकर थोड़ा भी जागरूक है? या क्या वे भी मोदी से अच्छे दिनों की उम्मीद लगाये बैठे हैं?
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