सोमवार, 14 अगस्त 2017

आज कहां हैं हम?

ग्लैडसन डुंगडुंग

भारत अपने आजादी की 71वां सालगिरह मना रहा है। यह हमारे लिये निश्चित तौर पर गर्व करने का विषय है। लेकिन हमें आजादी का जश्न मनाने के साथ-साथ आजादी का मूल्यांकन भी करना चाहिए। क्या आजादी के आंदोलन के समय लोगों से किया गया रोटी, कपड़ा और मकान तथा भूमि सुधार का वादा पूरा हुआ है? क्या भारत के संविधान में सभी व्यक्तियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय देने तथा समानता, स्वतंत्रता और गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करने का वादा पूरा हुआ है? क्या देश की धर्मनिरपेक्षता, एकता और अखंडता को बरकरार रखने में हम सफल हुए हैं? हमें इन प्रश्नों पर गंभीरता से चर्चा करते हुए भविष्य का रास्ता अख्तियार करना होगा।

आज देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें दो वक्त की रोटी नहीं मिल पर रही है तथा उनके पास पहनने के लिए कपड़े नहीं हैं और उन्हें रहने के लिए घर नसीब नहीं हुआ है। देश में लाखों लोग ऐसे हैं जिनके पास पैर रखने के लिए एक इंच भी जमीन नहीं है। देश का 70 प्रतिशत सम्पति सिर्फ एक प्रतिशत लोगों के पास केन्द्रित को गया है। क्या ऐसे में कभी आर्थिक समानता आयेगी?

देश में दोहरी शिक्षा व्यवस्था होने के कारण असमानता असमान छू रही है। एक तरफ जहां सरकारी शिक्षा व्यवस्था खिचड़ी शिक्षा व्यवस्था मे तब्दील हो चुकी हैं वहीं सम्पन्न परिवारों के बच्चों के लिए ‘एप्पल स्कूल’ मौजूद हैं। फलस्वरूप, देश में अमीरों की संख्या बढ़ रही है तो गरीबों की संख्या में भी बहुत ज्यादा इजाफा हो रहा है। आज शिक्षा एक व्यवसाय का रूप ले लिया है और यह गरीबों से लगातार दूर होता जा रहा है। इसलिए जबतक शिक्षा व्यवस्था में एकरूपता नहीं आयेगी देश में समानता नहीं आ सकता है। स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति भी कमोबेश ऐसे ही है। आज गरीबों के लिए उचित स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पायी हैं जबकि सम्पन्न परिवारों के लिए अलग से स्वास्थ्य सुविधाएं हैं। क्या सभी लोगों को मौलिक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं होनी चाहिए?

भारत के संविधान निर्माण के समय ही छुआछूत और जातीय भेदभाव जैसे भयंकर सामाजिक बुराईयों को खत्म कर दिया गया था। लेकिन वास्ताव में हमारे समाज में छुआछूत, जातीय एवं लिंग आधारित भेदभाव आज भी मौजूद हैं, जो सामाजिक न्याय के रास्ता पर रोड़ा अटकाये हुए हैं। आज भी दलित, आदिवासी और महिलाओं के साथ समाज में दूसरे दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार होता है। इसी तरह देश में धर्म, भाषा एवं क्षेत्रीय आधारित भेदभाव भी मौजूद है। देश के बहुसंख्यक लोग आधुनिक संचार मध्यमों का उपयोग कर रहे हैं लेकिन उनकी मानसिकता में बदलान नहीं होना सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। हमारे दिलो-दिमाग में भेदभाव क्यों भरा पड़ा है? क्या जातीय, धार्मिक, लिंग, भाषा और क्षेत्रीय आधारित भेदभाव को खत्म किये बगैर भारत एक सशक्त देश बन सकता है? 

आज हिंसा विशेषकर धर्म आधारित हिंसा ने देश की धर्मनिरपेक्षता छवि को धूमिल करते हुए देश की एकता और अखंडता पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। विभिन्न धर्मों के सम्प्रदायिक समूह देशभर मं धर्म आधारित नफरत फैला रहे हैं, हिंसा कर रहे हैं और एक दूसरे की हत्या करने में तुले हुए हैं। भारत को अनेक धर्म, संस्कृति विभिन्नता और भाषाओं के विविधता के लिए जाना जाता है। लेकिन आज यह अनेकता में एकता, विभिन्नता और विविधता के अस्तित्व पर सबसे बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। क्या हमारा देश एक भाषा, एक धर्म और एक नस्ल पर आधारित राष्ट्रवाद को अपना सकता है? क्या ऐसे सिद्धांत को अपनाने से देश का मूल अस्तित्व खत्म नहीं हो जायेगा?    

यदि हम ईमानदारी से आजादी का मूल्यांकन करें तो पिछले सात दशकों में आजादी आंदोलन के समय और भारत के संविधान में किया गया वादा को जमीन पर नहीं उतारा जा सका है। आज भी देश के बहुसंख्यक लोग को रोटी, कपड़ा और मकान जैसे बुनियादी जरूरते नहीं मिल पायी है, देश में भूमि सुधार का मसला अटका हुआ है तथा देश में मौजूद छुआछूत, जातीय भेदभाव, बाल मजदूरी, मानव व्यापार और पलायन जैसे गंभीर समस्या हमें याद दिलाने के लिए काफी हैं कि आज भी देश के कमजोर तबके के लोगों के लिए समानता, स्वतंत्रता और गरिमापूर्ण जीवन एक सपना ही है। देश में घटित धर्म आधारित विवाद, संघर्ष और दंगों ने देश की धर्मनिरपेक्षता, एकता और अखंडता वाली छवि को चकनाचुकर करके रख दिया है। देश के 125 करोड़ लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आजादी मिले बगैर देश के आजादी का असली संकल्प पूरा नहीं हो सकता है। इसलिए आज जरूरत है कि हमसब मिलकर इन वादों को पूरा करते हुए भारत देश को एक सशक्त राष्ट्र बनाने का संकल्प लें।

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