ग्लैडसन डुंगडुंग
भारतीय संविधान के 124वें संशोधन बिल 2019 के द्वारा आर्थिकरूप से पिछड़े यानी 10 प्रतिशत सवर्णों को सरकारी नौकरी एवं शैक्षणिक संस्थानों में नामंकन के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। आदिवासी और दलितों के लिए सरकारी नौकरी एवं शैक्षणिक संस्थानों में नामंकन के अलावा संसद एवं विधानसभाओं में भी आरक्षण की व्यवस्था की गई है। इसलिए यहां मौलिक प्रश्न यह है कि गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ सरकारी नौकरी एवं शैक्षणिक संस्थानों में नामंकन के लिए क्यों किया गया? क्या आरक्षण गरीबी हटाओ और आर्थिक सशक्तिकरण की योजना है? क्या गरीब सवर्णों को संसद एवं विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व नहीं चाहिए? क्या केन्द्र सरकार ने आगामी चुनाव में सवर्णों के वोट बैंक को भाजपा के पक्ष में करने के लिए संविधान के मूल भावना के साथ खिलवाड़ किया है? क्या सिर्फ वोट बैंक के चक्कर में दलित और आदिवासी नेता भी संविधान में दिये गये आरक्षण के मूल मकसद को भूल गये? क्या सवर्णों को दिया गया आरक्षण संविधान के मूल भावना के खिलाफ नहीं है?
सवर्णों के द्वारा आम तौर पर कहा जाता है कि गरीब की कोई जाति नहीं होती है इसलिए आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए जातीय नहीं। लेकिन क्या यह सच है? क्या गौरवशाली भारतीय समाज में गरीब सवर्ण और गरीब दलित या आदिवासी की स्थिति एक जैसी है? क्या गरीब सवर्ण भी दलितों जैसा ही अछूत है? हकीकत यह है कि पवित्र गंगा नदी में स्नान करने के बाद भी दलित अपवित्र ही रहते हं जबकि सवर्ण गरीब गंगा में स्नान किये बगैर भी पवित्र है। जब पवित्र गंगा भी दलितों को पवित्र नहीं कर सकती है क्या तब भी कहेंगे कि गरीब की कोई जाति नहीं होती है? क्यों गरीब सवर्ण परिवारों के बच्चे दलित बुजूगों के पैर नहीं छूते हैं? क्या गरीब सवर्ण और दलित मंदिरों में एक साथ पूजा कर सकते हैं? यदि गरीब की कोई जाति नहीं होती है तो सवर्ण और अन्य गरीब एक साथ क्यों नहीं बैठते हैं? इस हकीकत को कोई भी नहीं झूठला सकता है कि बहुसंख्य समाज का आधार वर्ण एवं जाति व्यवस्था है इसलिए यहां सबकुछ जाति के आधार पर ही तय होता है इसलिए गरीब की जाति होती है।
यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या सवर्ण गरीब हैं? भारत सरकार ने गरीबी को आंकने के लिए दो अलग-अलग मानक स्थापित किया है। सवर्णों के लिए अलग और अन्य गरीबों के अलग। इसके तहत जिन सवर्ण परिवारों की वार्षिक आय 8 लाख रूपये से कम है उन्हें आर्थिकरूप से कमजोर यानी गरीब मानकर आरक्षण दिया जायेगा लेकिन वहीं जिन आदिवासी, दलित और ओबीसी परिवारों की वार्षिक आय 27,000 रूपये से कम है उन्हें गरीबी रेखा के नीचे रखा गया है। यदि सवर्ण गरीब हैं तो फिर सरकार ने उनके लिए क्यों अलग से गरीबी का मानक तय किया है? कितने सवर्ण परिवारों की वार्षिक आय 27,000 रूपये से कम है? गरीबी का दो मानक कैसे हो सकता है? क्या यह जाति के आधार पर तय किया हुआ मानक नहीं है? इसका अर्थ यह है कि सरकार स्वयं ही असमानता को बढ़ाने का काम रही है जो असंवैधानिक कार्य है और संविधान के खिलाफ काम करना देशद्रोह के अन्तर्गत आता है।
यहां सवाल यह भी है कि प्रतिदिन 2000 रूपये यानी प्रतिमाह 60,000 रूपये एवं वार्षिक 7,20,000 रूपये आय वाले सवर्ण परिवार गरीब कहलायेंगे और उनको आरक्षण मिलेगा। जबकि आदिवासी और दलितों के बीच देखा जाये तो मुश्किल से एक प्रतिशत ही लोग होंगे, जिनकी वार्षिक आय 8 लाख रूपये से ज्यादा है यानी मोदीनोमिक्स के अनुसार लगभग 99 प्रतिशत आदिवासी और दलित गरीब हैं। यदि इस मानक को देश के सभी परिवारों पर लागू किया जायेगा तो लगभग 95 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे आ जायेंगे। भारत एक ऐसा देश है, जो विश्वगुरू बनने का ख्याब देखता है, जिसकी 95 प्रतिशत जनसंख्या गरीब है। क्या यह मोदीनोमिक्स है या जेटलीनोमिक्स? क्या देश के 95 प्रतिशत जनसंख्या को दुनिया के सामने गरीब कहना देश का अपमान नहीं है? क्या मोदी ने सवर्णों के वोट बैंक के चक्कर में देश का आपमान नहीं किया है? क्या सत्तधारियों को आरक्षण का मूल मकसद समझ में आता है?
यदि मोदीनोमिक्स और जेटलीनोमिक्स के अनुसार आरक्षण का मूल मकसद गरीबी हटाना और आर्थिक सशक्तिकरण है तो फिर आयकर का दायरा 2.5 लाख पर क्यों रखा गया है? जब केन्द्र सरकार ने यह मान लिया है कि प्रतिवर्ष आठ लाख से कम आय वाले सवर्ण परिवार गरीब हैं तो फिर 2.5 लाख से ज्यादा कमाने वाले परिवारों से इंकम टैक्स क्यों लिया जाता है? क्या सरकार को 8 लाख तक के वार्षिक आमदनी वाले परिवारों को आयकर माफ नहीं करना चाहिए? दुनिया के कौन से देश में गरीबों से टैक्स वसूलने की व्यवस्था है? यदि देश से गरीबी हटाकर लोगों को आर्थिकरूप से मजबूत करना है तो मोदी और जेटली आयकर का दायरा को बढ़ाकर आठ लाख रूपये क्यों नहीं करते हैं? क्या सरकार का मकसद आरक्षण का झुनझुना दिखाकर सवर्णों से वोट लेने के साथ-साथ 8 लाख तक के वार्षिक आय वाले सवर्णों को आयकर के सिकंजे में कसना तो नहीं है? केन्द्र सरकार का मकसद जो भी हो लेकिन समृद्ध सवर्णों को गरीब बताकर आरक्षण देना गरीबों का मजाक और देश में समानता स्थापित करने के लिए बनाया गया संविधान का अपमान है।
आज के शासकवर्ग को यह समझना होगा कि संविधान में किये गये आरक्षण का प्रावधान गरीबी हटाओ या आर्थिक सशक्तिकरण योजना नहीं है बल्कि इसका मूल मकसद कमजोर तबकों के लोगों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है। यदि हम प्रतिनिधित्व को देखें तो विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया और अन्य सभी जगहों पर सवर्णों का प्रतिनिधित्व 70 प्रतिशत से उपर है। ऐसी स्थिति में सवर्णों को फिर से 10 प्रतिशत आरक्षण देने का क्या तुक है? इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि आरक्षण पर बहस प्रतिनिधित्व के मूल मकसद को लेकर किया जाना चाहिए न कि गरीबी हटाओ और आर्थिक सशक्तिकरण की दृष्टिकोण से। भारत सरकार को एक कानून बनाना चाहिए, जिसके तहत सभी जातीय एवं नस्लीय सामुदायों को जनसंख्या के आधार पर केन्द्र एवं राज्यों के बजट, सरकारी नौकरी, विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, सेना, निजी कंपनी, मीडिया और जितने भी तरह के सरकारी व गैर-सरकारी उपक्रम हैं उसमें चपरासी से लेकर निदेशक तक के पदों को जनसंख्या के आधार पर बांट दिया जाना चाहिए, जिससे प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सकेगा।
यदि आज की स्थिति में आरक्षण को देखा जाये तो भारत में आदिवासी, दलित और ओबीसी के लिए कुल 49.5 प्रतिशत आरक्षण है तथा आघोषितरूप से सवर्णों के लिए 50.5 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है क्योंकि आदिवासी, दलित और ओबीसी के मेरिट धारियों को भी आरक्षित कोटा से ही नौकरी दी जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों में कहा है कि आरक्षित समुदायों के मेरिटधारियों को सामान्य कोटा में भर्ती नहीं दिया जा सकता है तथा आरक्षण का दायरा 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं बढ़ाया जा सकता है। क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि 50.5 प्रतिशत सीटें सवर्णों के लिए अघोषितरूप से आरक्षित है? क्या सवर्णों को 100 प्रतिशत आरक्षण चाहिए? गरीबी के नाम पर सवर्णों को दिया गया आरक्षण भारतीय संविधान के मूल भावना और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है।
सवर्ण आरक्षण को लेकर कुछ लोगों का मानना है कि इसे आदिवासी, दलित और ओबीसी पर लगाये गये आरक्षण का दाग धुल जायेगा। लेकिन क्या ऐसा होगा? ऐसा नहीं होगा बल्कि अब सवर्ण लोग उन दलित और आदिवासी परिवारों का भी अपमान करेंगे जो स्वयं को गरीबी रेखा से उपर मानते थे, जिनकी वार्षिक आमदनी पांच लाख रूपये से ज्यादा है। इस संशोधन के बाद इन आदिवासी और दलितों को सदा के लिए गरीब मान लिया जायेगा। इसका सीधा अर्थ यह है कि आदिवासी और दलित लोग हमेशा ही दबे-कुचले रहेंगे उन्हें उपर उठने नहीं दिया जायेगा। क्या दलित और आदिवासी नेता इन सवालों को लेकर कभी आपस में चर्चा करते हैं? आदिवासी और दलितों का प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए इन नेताओं ने क्या भूमिका निभाया है? क्या ब्राह्मणवाद को पानी पी-पीकर गाली देने वाले दलित नेता मायावती, रामबिलास और अठौले देश और समाज के सामने बेनाकाब नहीं हो गए हैं? क्या इन नेताओं को भी आरक्षण का मूल मकसद समझ में नहीं आता है? क्या दलित और आदिवासी नेता संघ परिवार के गुलाम हो गये हैं?
संघ परिवार के द्वारा पिछले सात दशकों से आदिवासियों के बीच बांटे जा रहे धर्म का आफिम खाकर उनके ही धुन पर नाचने वाले आदिवासियों के लिए आंख खोलने का समय है क्योंकि तथाकथित गरीब सवर्णों को मिलने वाला 10 प्रतिशत आरक्षण में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और अन्य धर्मावलंबी भी शामिल हैं। क्या आदिवासियों को सरना-ईसाई के नाम पर आपस में लड़ाने वाले संघी और भाजपा नेताओं ने सवर्ण आरक्षण में मुस्लिम और ईसाइयों को शामिल करने का विरोध किया? ईसाई धर्मावलंबी आदिवासियों को आरक्षण का लाभ से वंचित करने का अभियान चलाने वाले भाजपा और संघ के नेता कहां गये? क्या उन्हें सवर्ण ईसाई और मुस्लिमों को हिन्दू सवर्णों के आरक्षण में हिस्सा देने से कोई दिक्कत नहीं है? इसका सीध सा अर्थ है कि तथाकथित उच्च जातियों के लिए धर्म कोई मायने नहीं रखता है बल्कि उनको उनका समाज से ज्यादा प्रेम है। उन्होंने हमारे उपर शासन करने के लिए धर्म का उपयोग किया है। वे आदिवासियों को धर्म के नाम पर आपस में लड़ाकर उनके वोट से उनके उपर ही शासन कर रहे हैं। सवर्णों को आरक्षण देने के मामले में सभी राजनीतिक दल बेनाकाब हो चुके हैं।
यह बहुत ही दिलचस्प मामला है। ‘आरक्षण’ की छवि पहले नाकारात्मक थी लेकिन इसके अंदर सवर्णों के प्रवेश होते ही यह साकारात्मक हो गई है। ‘आरक्षण’ को अछूत, देश तोड़ने वाला, देश को बर्बाद करनेवाला, नाकाबिलियत का प्रतीक , सरकारी भीख और न जाने क्या-क्या उपमा दिया गया था क्योंकि इसका फायदा सिर्फ दलित, आदिवासी और ओबीसी को मिलता था। लेकिन वही ‘आरक्षण’ अब पवित्र, देश को आगे बढ़ाने वाला, देश को एकजुट करनेवाला, सबका साथ सबका विकास करनेवाला, मास्टरस्ट्रोक, सबका अधिकार और न जाने क्या-क्या हो गया क्योंकि अब इसमें सर्वणों का प्रवेश हो रहा है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि सवर्ण लोग उन सभी चीजों को पवित्र, श्रेष्ठ और मूल्यवान घोषित करते हैं, जिनका सरोकर उनके जीवन से है और बाकी चीजों को अपवित्र, घटिया और अछूत घोषित करते है जिनका सरोकार दलित और आदिवासी से हैं।
हमारे देश के 15 प्रतिशत सवर्णों ने 85 प्रतिशत आदिवासी, दलित और ओबीसी को मूर्ख बनाकर रखा है और उनके उपर शासन कर रहे हैं। इसके लिए उन्होंने बड़ी चलाकी से धर्म का उपयोग किया है। आदिवासी, दलित और ओबीसी धर्म के नामपर आपस में लड़ मर रहे हैं और 15 प्रतिशत सवर्ण मौज मना रहे हं। इन समुदायों के लोगों को नीचा दिखाने के लिए सवर्णों ने कहा कि आरक्षण ने देश को बर्बाद कर दिया लेकिन अब वे भी आरक्षण लेने के लिए टूट पड़ रहे हैं। भारतीय संविधान के प्रस्तावना में कहा गया है कि देश के सभी लोगों को समानता एवं स्वातंत्रता के साथ सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय दिया जायेगा। लेकिन आजादी के सात दशक बाद भी संविधान के मूल उद्देश्यों को हासिल नहीं किया जा सकता है क्योंकि ‘‘वर्ण और जाति व्यवस्था’’ इसके आड़े आ रहे हैं। इसलिए ‘‘वर्ण और जाति व्यवस्था’’ को जड़ से खत्म करने के बाद ही संविधान के मूल मकसद को हासिल किया जा सकेगा।
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