बुधवार, 6 नवंबर 2019

आदिवासी समाज की चुनौतियां

ग्लैडसन डुंगडुंग

आज हमारा आदिवासी समाज चैराहे पर खड़ा दिखाई पड़ता है। एक तरफ जहां संघ परिवार और सरकार हम आदिवासियों की पहचान, धर्म और संस्कृति को तय कर रही है तो वहीं दूसरी तरफ हमारी जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज सम्पदा को हमसे छीनकर कारपोरेट को देने का काम भी जारी है। आज की विकट परिस्थिति में हमारी पहली चुनौती है आदिवासी पहचान, भाषा और संस्कृति को बरकरार रखना। हम अपनी आदिवासी पहचान, भाषा एवं संस्कृति से निरंतर बेदखल किये जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 5 जनवरी 2011 को ‘कैलाश एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार’ के मसले पर फैसला देते समय आदिवासियों की मूल पहचान को स्थापित करते हुए स्पष्ट कहा कि 8 प्रतिशत आदिवासी ही भारत देश के प्रथम निवासी और मालिक हैं तथा शेष 92 प्रतिशत लोग आक्रमणकारी या व्यापारियों के संतान हैं। लेकिन संघ परिवार से संचालित सरकार आदिवासियों की मूल पहचान को खत्म करते हुए उन्हें सिर्फ वनवासी बनाकर वर्ण एवं जाति व्यवस्था के अंदर घुसाने का प्रयास कर रही है। 

एक तरफ जहां हम आदिवासियों के उपर वर्ण एवं जाति व्यवस्था को थोपकर हमारा हिन्दूकरण करने का निरंतर प्रयास हो रहा है तो वहीं दूसरी तरफ हम आदिवासियों की पहचान को धर्म के आधार पर तय करने की भी कोशिश की जा रही है। यहां तक कहा जा रहा है कि सिर्फ सरना धर्म मानने वाले लोग ही आदिवासी है। यहां प्रश्न उठता है कि संघ परिवार और सरकार हम आदिवासियों की पहचान, धर्म और संस्कृति को कैसे तय कर सकती है? कौन आदिवासी हैं और कौन नहीं हैं यह सरकार या संघ परिवार कैसे तय कर सकते हैं? क्या यदि गैर-आदिवासी सरना धर्म को मानेंगे तो वे भी आदिवासी हो जायेंगे? हमारे पूर्वज हमारी आदिवासियत तय कर चुके हैं। यदि देश में सही एनआसी हो जाये तो हम आदिवासियों को छोड़कर बाकी सभी लोगों को देश छोड़कर जाना पड़ेगा। हमें मजबूती के साथ सरकार को बताना होगा कि हम पहले आदिवासी हैं, बाद में भी आदिवासी हैं और आखिरी में भी आदिवासी हैं। हम आदिवासी ही भारत देश के प्रथम निवासी और संरक्षक हैं। हमें अपनी आदिवासी पहचान की मजबूत दावेदारी करने के साथ-साथ अपनी भाषा एवं संस्कृति को भी बचाना होगा।  

हमारी दूसरी चुनौती है आदिवासी स्वायत्तता को बरकरा रखना। झारखंड अलग राज्य आंदोलन के जनक मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा ने नारा दिया था - ‘‘अबुआ दिसुम, अबुआ राईज’’ यानी हमारे राज्य में हमारा शासन। झारखंड अलग राज्य बना लेकिन आज यहां बाहरी लोग शासन कर रहे हैं। यहां की विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया और व्यवसाय में बाहरी लोगों का ही बोल-बाला है। यदि हम इसे नारा के रूप में कहें तो आज का झारखंड ‘‘अबुआ दिसुम, दिकूआ राईज’’ बन गया है। दिकुओं के राज में हम आदिवासियों को कभी न्याय नहीं मिल सकता है। झारखंड सरकार ग्रामसभाओं के निर्णय को नहीं मानती है। स्वायत्तता आंदोलनों को आज सरकार विरोधी, राष्ट्रविरोधी एवं देशद्रोही कहा जाता है। गांवों की स्वायत्तता की मांग करने वाले आदिवासियों के उपर द्रेशद्रोही का मुकदमा किया गया है। ऐसी परिस्थिति में ’अबुआ दिसुम, अबुआ राज’ का सपना साकार करना बड़ी चुनौती है। क्या हम आदिवासी अपनी स्वायत्तता की दावेदारी करना छोड़ देंगे? 

तीसरी चुनौती है जमीन की सुरक्षा। जमीन ही आदिवासी समाज का मूल आधार है। जमीन हम आदिवासियों के लिए सम्पति नहीं है बल्कि यह हमारी पहचान, अस्मिता, संस्कृति, विरासत और अस्तित्व है। हमारे पूर्वजों ने जंगल-झाड़ को साफ कर तथा उंचा-नीचा स्थल को कोड़कर खेती योग्य जमीन बनाया। उन्होंने जमीन को हमारे लिए सुरक्षित रखने हेतु अपना खून बहाया और कुर्बानी दी। फलस्वरूप, ब्रिटिश हुकूमत को हमारी जमीन बचाने के लिए विशेष कानून - छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 एवं संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 बनाना पड़ा, जिसमें प्रावधान किया गया कि आदिवासियों की जमीन गैर-आदिवासी नहीं खरीद सकते हैं। लेकिन कानून का उल्लंघन करते हुए लाखों एकड़ जमीन आदिवासियों से लूट लिया गया। इसके बावजूद आज भी हमारे पास काफी जमीन है। हम आदिवासियों को समझना होगा कि यदि जमीन चला गया तो हमारा अस्तित्व भी मटियामेट हो जायेगा। 

चैथी चुनौती है प्राकृतिक संसाधनों को बचाना। झारखंड सरकार ने कारपोरेट के साथ अबतक लगभग 250 एमओयू किया है। वह हर कीमत पर बचा-खुचा प्राकृतिक संसाधनों को कारपोरेट को देने पर तुली हुई है क्योंकि यही कापोरेट घरानों ने इन्हें चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाकर सत्ता सौपा है। जंगलों को उजाड़कर एवं पहाड़ों को खोदकर वहां से खनिज सम्पदा निकाला जा रहा है। इसके अलावा कम्पा कानून 2016 एवं राष्ट्रीय वन नीति 2018 के द्वारा जंगलों को कारपोरेट को सौपने की कोशिश चल रही है तथा आदिवासियों से जंगल छीनने के लिए भारतीय वन संशोधन अधिनियम 2019 लाने का भी प्रयास हो रहा है। इस कानून के द्वारा सरकार कोई भी जंगल को आरक्षित जंगल घोषित करते हुए आदिवासियों से छीनना सकती है। कानून में आरक्षित जंगलों में प्रवेश करने वालों पर गोली चलाने का प्रावधान, बिना वारंट की गिरफ्तारी एवं छापामारी का प्रावधान किया गया है। क्या जंगल के बगैर आदिवासी अस्तित्व की कल्पना की जा सकती है? जमीन और जंगल आदिवासी अस्तित्व के लिए सबसे जरूरी है। इसके बगैर आदिवासी सभ्यता का अंत हो जायेगा। इसलिए जंगल की सुरक्षा एवं संरक्षण अतिआवश्यक है। 

पांचवीं चुनौती है अनुसूचित क्षेत्र यानी आदिवासी इलाके में बड़े पैमाने पर हो रही गैर-आदिवासियों की घुसपैठी को रोकना। संवैधानिक रूप से राज्य के राज्यपाल को अनुसूचित क्षेत्रों की सुरक्षा, संरक्षण एवं विकास की जिम्मेवारी दी गई है। इस क्षेत्र के लिए नीति निर्धारण को लेकर ट्राईब एडवाईजरी काउंसिल की भी बड़ी भूमिका है। इसके अलावा भारतीय संविधान के अनुच्छेद अनुच्छेद 46 के तहत स्टेट यानी विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका को आदिवासियों के उपर होने वाले हर तरह के शोषण एवं अत्याचार से सुरक्षा प्रदान करना है तथा अनुच्छेद 19 उप-अनुच्छेद 5 एवं 6 का उपयोग करते हुए इनके लिए सुरक्षा घेरा बनाना है। इतने मजबूत प्रावधान होने के बावजूद आदिवासी इलाके में गैर-आदिवासियों की घुसपैठी हो रही है और आदिवासियों की जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोज और खनिज सम्पदा को लूटकर बाजार भाव से बेचा जा रहा है। आज इस घुसपैठी, जमीन लूट के अलावा आदिवासियों पर होने वाले शोषण, दमन एवं अत्याचार को रोकना जरूरी है।

हमारी छठवीं चुनौती है आर्थिक संकट से निपटना। अगले 30 वर्षों के अंदर आदिवासी समाज में गंभीर आर्थिक संकट आने की संभावना है क्योंकि सरकारी नौकरी में अवसर न के बराबर होगा। केन्द्र एवं राज्य सरकारें आरक्षण को खत्म करने के लिए सरकारी संस्थानों का निजीकरण कर रही हैं। इसके अलावा आने वाले समय में बड़े पैमाने पर रोबोट का उपयोग होगा, जो लोगों का नौकरी निगल लेगा। जब आदिवासी युवक-युवतियों को नौकरी नहीं मिलेगा तब शहरों में निवास करने वाले आदिवासी अपनी आजीविका कैसे चलायेंगे? इसी तरह जलवायु परिवर्तन ने वनोपज और खेती को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है जो आने वाले समय में गांवों में रहने वाले आदिवासियों के लिए आर्थिक चुनौती खड़ा करेगा। इस चुनौती से निपटने के लिए हम आदिवासियों को अभी से व्यवसाय को अपनाना होगा। हमारें पूर्व बाजार पर निर्भर नहीं थे। उन्होंने अपने लिए बहुत कुछ उत्पादन किया। हमें भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ते हुए आदिवासी इलाके का बाजार को अपने कब्जा में करना होगा। यही रास्ता हमें आर्थिक संकट से निपटने में मद्दगार होगा।  

सातवीं चुनौती है आदिवासी एकता के द्वारा राजनीतिक शक्ति हासिल करना। हम आदिवासी राजनीतिकरूप से निरंतर पीछे कमजोर हो रहे हैं क्योंकि हमलोग बंटे हुए हैं। हम लोग कई राजीतिक पार्टी, धर्म एवं समुदायों में विभाजित है, जिसका फायदा उठाकर हमारे दुश्मन हमारी राजनीतिक शक्ति छीनकर हमारे खिलाफ कानून एवं नीतियां बनाते हैं। ये लोग कारपोरेट, व्यापारी एवं बाहरी लोगों के हितों को साधने के लिए हमारे हित में बने कानूनों को संशोधन करते हैं। यही लोग खान-पान, धर्म, संस्कृति, भाषा जैसे हमारे मौलिक अधिकारों को खत्म करने के लिए कानून एवं नीतियां तय करते हैं। ऐसी परिस्थिति में यदि हमलोग एकजुट नहीं हुए तो हम अपना अस्तित्व नहीं बचा पायेंगे। आदिवासी एकजुटता समय की मांग है क्योंकि राजनीति पार्टी, धर्म और समुदाय के नामपर आपस में लड़ते रहने से हम अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, स्वायत्तता और जमीन, इलाका एवं प्राकृतिक संसाधनों को नहीं बचा पायेंगे।

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