- ग्लैडसन डुंगडुंग -
हम आदिवासियों ने जब से अपनी जुबान खोली है, अपनी कलम की धार तेज की है और अपने समाज के साथ हुए अन्याय की कड़वी सच्चाई को दुनियां के सामने लाना शुरू किया है, कुछ नकली देशभक्तों को मिर्ची लगने लगा है। वे हम पर आरोप लगा रहे है कि अब हमें धरती के महान भारतीय लोकतंत्र पर भरोसा ही नही रहा इसलिए हम अपने नौजवानों को बंदूक उठाने की सलाह दे रहे हैं। ऐसे लोगों पर तरह आता है। लेकिन हद तो तब हो जाती है जब ऐसे लोग हमें लोकतंत्र का पाठ पढ़ाना शुरू कर देते हैं, जो इस देश के संविधान, कानून और नियमों को तोड़ते हुए हमारी जमीन, जंगल, नदी, पहाड़ और खनिजों को लूट कर मौज कर रहे हैं। वे सवाल करते हैं कि क्या आदिवासियों को लोकतंत्र पर भरोसा नहीं है? आदिवासी लोग लोकतंत्रिक तरीक से संघर्ष क्यों नहीं करते? और वे हथियार क्यों उठा रहे हैं? ऐसा लगता है कि मानो सभी आदिवासियों ने सरकार पर बंदूक ताने रखा है। लेकिन क्या कोई हमें यह बतायेगा कि इस लोकतंत्र में हमारा हक कहां है? इस लोकतंत्र ने हमारी समस्याओं का समाधन करने के बजाये समस्याओं का अंबार नहीं लगा दिया है? आप किस लोकतंत्र की बात करते हैं? क्या यह लोकतंत्र आदिवासियों के मामले में स्लेक्टिव नहीं है? किसने हमारे नौजवानों को हथियार उठाने पर मजबूर किया है?
हम अपनी बात देश के संविधान में आदिवासियों के लिए किये गये संवैधानिक प्रावधानों से शुरू करते हैं। संवैधानिक प्रावधानों की मूल आत्मा को समझा जाये तो हम आदिवासियों की भूमि, भू-भाग और संसाधनों की सुरक्षा के लिए पांचवीं एवं छठवीं अनुसूची का प्रावधान किया गया है। लेकिन इन प्रावधानों को लागू करने के बजाये इन पर हमला जारी है। पांचवीं अनुसूची को हटाने के लिए झारखंड उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर किया गया है, जिसमें दलील दी गयी है कि जिन इलाकों में आदिवासियों की संख्या 50 प्रतिशत से कम है उन इलाकों को अनुसूचित क्षेत्रों से बाहर कर दिया जाना चाहिए। लेकिन कुछ इलाके जहां आदिवासियों की जनसंख्या 50 प्रतिशत से उपर है वे इलाके भी अनुसूचित क्षेत्रों से बाहर है इसके बारे में चर्चा क्यों नहीं होती है? तामिलनाडु, केरल और उतर भारत के कई आदिवासी बहुल इलाके अनुसूचित क्षेत्र से बाहर हैं। क्या यह हम आदिवासियों के अधिकार, अस्मिता एवं अस्तित्व पर एकतरफा हमला नहीं है? हमारे अधिकारों की कद्र क्यों नहीं होती?
जब आदिवासी इलाकों में गैर-आदिवासियों की घुसपैठी को लेकर शोर-शराबा होता हैं तो बहुसंख्यक गैर-आदिवासी लोग संविधान के अनुच्छेद 19 का खंड (1) उपखंड (घ), (ड़) एवं (छ) का संदर्भ देकर तर्क देते हैं कि भारत के नागरिकों को देश के किसी भी हिस्से में स्वंत्रतपूर्वक घुमने, आजीविका चलाने, नौकरी करने, व्यापार करने, निवास करने और बसने का मौलिक अधिकार प्राप्त है। लेकिन वही लोग संविधान के अनुच्छेद 19 का उपबंध (5) एवं (6) को क्यों भूल जाते हैं जिसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सामान्य जनता या आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए जरूरी रोक हेतु बनाये गये कानून पर संविधान का अनुच्छेद 19 का खंड (1) उपखंड (घ), (ड़) एवं (छ) प्रभावी नहीं होगा। इसका अर्थ यह है कि आदिवासी इलाकों में गैर-आदिवासियों के स्वंत्रतपूर्वक घुमने, आजीविका चलाने, नौकरी करने, व्यापार करने, निवास करने, स्थायी रूप से बसने और जमीन खीदने पर रोक हेतु बनाये गये पांचवीं एवं छठवीं अनुसूची तथा भूमि रक्षा कानूनों के साथ छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता है। लेकिन इसकी खुल्लेआम धज्जियां उड़ायी जा रही है और देश के संसद में चर्चा तक नहीं होती?
यह सभी जानते हैं कि अंग्रेजों ने 1765 में बंगाल, बिहार और ओडि़सा की दीवानी ले ली और इन क्षेत्रों में जमीनदारी प्रथा लागू किया तब आदिवासियों ने उनके शासन को नाकारते हुए कह दिया था कि जमीन तो भागवान ने उन्हें दिया है फिर वे सरकार को लगान क्यों देंगे? इस तरह से बाबा तिलका मांझी के नेतृत्व में संघर्ष शुरू हुआ जो लगातार चलता रहा। 1793 में जमीन पर पूर्ण कब्जा हेतु स्थायी बंदोबस्ती कानून लागू कर दी गई लेकिन संघर्ष भी नहीं रूका। पहाडि़या विद्रोह, कोल्ह विद्रोह, संताल हुल, चेरो-खरवार विद्रोह एवं बिरसा उलगुलान जैसे सैंकड़ों आंदोलनों ने अंग्रेजी हुकूमत को आदिवासियों की भूमि, परंपरा एवं संस्कृति की रक्षा हेतु कानून बनाने पर मजबूर कर दिया, जिसमें संताल परगना एवं छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम तथा विलकिल्संस रूल्स प्रमुख हैं। लेकिन आजादी के बाद इन कानूनों की धज्जियां उड़ायी गयी और जब जमीन लूटने में ये कानून आड़े आने लगे तो इन्हें विकास विरोधी कानून बताकर इनके अस्तित्व को ही समाप्त करने की कोशिश जारी है।
इसी तरह अंगे्रजी हुकूमत ने देश में ‘भूमि अधिग्रहण कानून 1894’ लागू किया और सरकार को देश की जमीन पर प्रभुसत्ता हासिल हो गयी। अब सरकार विकास के नाम पर जब और जहां चाहा जमीन अधिग्रहण कर ली। इस तरह से रैयतों से भूमि हाथिया कर उन्हें संसाधानहीन बना दिया गया। यह कानून आजादी के बाद भी इसी तरह प्रभावी रहा। फलस्वरूप, विकास परियोजनाओं से देश में 6 करोड़ लोग विस्थापित और प्रभावित हुए हैं, जिसमें सबसे ज्यादा तबाही आदिवासियों की हुई है। पुनर्वास के नाम पर मात्र 25 प्रतिशत विस्थापितों को ही कुछ हासिल हुआ और शेष 75 प्रतिशत विस्थापित व प्रभावित लोग भूखों मरने पर विवश हो गए। जब अपने लोगों के साथ हुए अन्याय को देखते हुए आदिवासियों ने ‘‘जान देंगे पर जमीन नहीं देंगे’’ का नारा दिया तो केन्द्र की यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून 2013 लाकर यह कहा दिया कि अब विकास परियोजना लगाने के लिए 80 प्रतिशत प्रभावितों की स्वीकृति जरूरी है। आदिवासी लोग खुश हो गए लेकिन अब केन्द्र की एनडीए सरकार इस कानून को भी पूंजीपतियों के रास्ते का रूकावट बताते हुए संशोधन का प्रयास कर रही है।
यह कहने की जरूरत नहीं है कि 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के द्वारा 24 दिसंबर, 1993 को देश में पंचायत राज लागू किया गया लेकिन देश के आदिवासी इलाकों में इस कानून का घोर विरोध हुआ क्योंकि आदिवासियों की अपनी शासन व्यवस्था थी। फलस्वरूप, भारत सरकार ने 1994 में भूरिया समिति का गठन किया और समिति के सिफारिश के आधार पर सरकार ने अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत उपबंध विस्तार अधिनियम 1996 लागू किया। इस कानून का मूल प्रावधान प्रकृतिक संसाधनों पर ग्रामसभा को अधिकार प्रदान करना है। लेकिन अनुसूचित क्षेत्रों में आने वाले देश के 9 राज्यों में से किसी भी राज्य ने इस कानून को मूलरूप से लागू ही नहीं किया। इतना ही नहीं इस कानून को झारखंड उच्च न्यायालय में यह तर्क देते हुए चुनौती दी गयी कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 14 यानी समानता के अधिकार का उल्लंघन है और न्यायालय ने भी इसे असंवैधानिक करार दे दिया था। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसे पुनः संवैधानिक करार देते हुए बहाल किया। यह क्या दर्शाता है? ओडिसा के नियमगिरि वाले मसले पर सर्वोच्च न्यायलय ने यहां तक कह दिया है कि गांव के संसाधनों के मामले में ग्रामसभा ही सर्वोपरि है। ऐसी स्थिति में कोई भी औद्योगिक घराना या सरकार आदिवासियों से उनका संसाधन नहीं छिन सकती है। लेकिन अब केन्द्र की मोदी सरकार इस कानून की मूल आत्मा को ही खत्म करने का प्रयास कर रही है। आदिवासियों के साथ ऐसा क्यों हो रहा है?
यह कौन नहीं जानता है कि ‘स्टेट’ नाम की चीज आने से पहले जंगल पर आदिवासियों का सम्पूर्ण हक था। लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने उनका हक छिन लिया फिर आजादी के बाद तो उनको जंगल और जंगली जानवरों का दुश्मन ही मान लिया गया। 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने जंगल के विनाश का जवाबदेही आदिवासियों पर ही डाल दिया और उन्हें जंगलों से बाहर निकाल फेंकने की सिफारिश कर दी। और इसी आधार पर 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बनाकर रिजर्व जंगल का पत्ता तोड़ने को भी आपराध की श्रेणी में रख दिया गया। अंततः 2002 में आदिवासियों को वनों से खदेड़ना शुरू किया गया, जिसमें 25 हजार आदिवासियों का जीवन तबाह हो गया। लेकिन आंदोलन के बदौलत सरकार ने यह माना कि आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक रूप से अन्याय हुआ है और अब उसे न्याय देने की जरूरत है। इस तरह से वन अधिकार कानून 2006 बना। बावजूद इसके बाघ बचाने वालों की लाॅबी ने वन अधिकार कानून को दो वर्षों तक रोक कर रखा। अंततः 1 जनवरी, 2008 को वन अधिकार कानून पूरे देश में लागू हो गया, लेकिन अब यह कानून भी पूंजीपतियों के रास्ते पर एक कांटे की तरह दिखाई पड़ रहा है और सरकार उसमें भी संसोधन करने की कोशिश में जुटी हुई हैं।
आदिवासियों के हकों की रक्षा हेतु बनाये गये संवैधानिक प्रावधान, कानून एवं नियमों पर चारों तरफ से हमला जारी है। और ये सारे हमले विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर सिर्फ और सिर्फ पूंजीपतियों, व्यापारियों एवं गैर-आदिवासियों को आदिवासियों की भूमि, भू-भाग और संसाधनों पर कब्जा दिलाने के लिए किया जा रहा है। ऐसे में आदिवासी लोग महान लोकतंत्र पर कैसे विश्वास कर सकते हैं? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम आदिवासियों के भूमि, भू-भाग, संसाधन, संस्कृति एवं परंपरा की रक्षा के लिए बनाये गये कानून एवं संवैधानिक प्रावधान हमारे संघर्षों के परिणाम हैं इसलिए ये हमारा विरासत भी है, जिसपर हमला करना महंगा पड़ सकता है। सवाल यह है कि हमारे इलाकों की हिफाजत के लिए किया गया संवैधानिक प्रावधान एवं भूमि रक्षा हेतु बनाये गये कानून विकास विरोधी कैसे हो जाते हैं? हमें जंगल पर हक दिलाने वाले कानून आर्थिक तरक्की के लिए बाधक क्यों बन जाते? खनिज सम्पदा से भरी पड़ी जमीन और जंगल के मालिक आज फटेहाल क्यों हैं? पिछले छः दशकों का आकलन करने से भी स्पष्ट है कि हमारे लिए किस-किस तरह की नीतियां बनायी गयी। क्या हमें लाचार बनाने वाले योजना नहीं लागू किये गये? हमारे हिस्से का पैसा भी गटक लिया गया। क्यों? किसने हमारा हक मारा?
लोकतंत्र, देशहित, आर्थिक तरक्की, देश का विकास और राष्ट्र निर्माण के नाम पर हमारे आजीविका के संसाधनों को लूटा गया। और वे लोग हमें विकास का पाठ पढ़ाते रहे जो 365 दिनों में दो दिन अपने दफतरों में तिरंगा झंडा फहराकर देशभक्त बनते हैं और शेष 363 दिनों तक अपने ही देश को लूटते रहते हैं। यह लोकतंत्र हमें क्यों नहीं बचा पा रहा है? हमारे 47 सांसदों का मुंह किसने बंद किया है? इन सांसदों के लिए आदिवासी मुद्दों से पार्टी लाईन बड़ा क्यों है? क्या देश का लोकतंत्रिक व्यवस्था हमें बंदूक उठाने पर मजबूर नहीं कर रहा है? जब हम लोग संविधान के अनुच्छेद 19 जो हमें अभिव्यक्ति की आजादी देता है का उपयोग करते हुए जमीन, जंगल, नदी, पहाड़ और खनिजों की रक्षा की मांग करते हैं तो विकास विरोधी, राष्ट्र विरोधी और अलगावादी कैसे हो जाते हैं? जब पुलिस हम पर गोली चलाती है, फर्जी मुकदमें में फंसाती है और हमारी महिलाओं का बलात्कार करती है, जिसका हम विरोध करते हैं तो नक्सली बना दिये जाते हैं? क्या कोई हमें यह बता सकता है कि हमारी बची-खुची जमीन, जंगल, पहाड़, नदी और खनिज को बचाने के लिए हमारे देश में कौन सा लोकतंत्र है? क्या हम सिर्फ वोट देने और लूटाने के लिए ही हमारे महान लोकतंत्र पर गर्व करें? क्या धरती के महान लोकतंत्र के पास हमारे सवालों का जवाब है?
हम अपनी बात देश के संविधान में आदिवासियों के लिए किये गये संवैधानिक प्रावधानों से शुरू करते हैं। संवैधानिक प्रावधानों की मूल आत्मा को समझा जाये तो हम आदिवासियों की भूमि, भू-भाग और संसाधनों की सुरक्षा के लिए पांचवीं एवं छठवीं अनुसूची का प्रावधान किया गया है। लेकिन इन प्रावधानों को लागू करने के बजाये इन पर हमला जारी है। पांचवीं अनुसूची को हटाने के लिए झारखंड उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर किया गया है, जिसमें दलील दी गयी है कि जिन इलाकों में आदिवासियों की संख्या 50 प्रतिशत से कम है उन इलाकों को अनुसूचित क्षेत्रों से बाहर कर दिया जाना चाहिए। लेकिन कुछ इलाके जहां आदिवासियों की जनसंख्या 50 प्रतिशत से उपर है वे इलाके भी अनुसूचित क्षेत्रों से बाहर है इसके बारे में चर्चा क्यों नहीं होती है? तामिलनाडु, केरल और उतर भारत के कई आदिवासी बहुल इलाके अनुसूचित क्षेत्र से बाहर हैं। क्या यह हम आदिवासियों के अधिकार, अस्मिता एवं अस्तित्व पर एकतरफा हमला नहीं है? हमारे अधिकारों की कद्र क्यों नहीं होती?
जब आदिवासी इलाकों में गैर-आदिवासियों की घुसपैठी को लेकर शोर-शराबा होता हैं तो बहुसंख्यक गैर-आदिवासी लोग संविधान के अनुच्छेद 19 का खंड (1) उपखंड (घ), (ड़) एवं (छ) का संदर्भ देकर तर्क देते हैं कि भारत के नागरिकों को देश के किसी भी हिस्से में स्वंत्रतपूर्वक घुमने, आजीविका चलाने, नौकरी करने, व्यापार करने, निवास करने और बसने का मौलिक अधिकार प्राप्त है। लेकिन वही लोग संविधान के अनुच्छेद 19 का उपबंध (5) एवं (6) को क्यों भूल जाते हैं जिसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सामान्य जनता या आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए जरूरी रोक हेतु बनाये गये कानून पर संविधान का अनुच्छेद 19 का खंड (1) उपखंड (घ), (ड़) एवं (छ) प्रभावी नहीं होगा। इसका अर्थ यह है कि आदिवासी इलाकों में गैर-आदिवासियों के स्वंत्रतपूर्वक घुमने, आजीविका चलाने, नौकरी करने, व्यापार करने, निवास करने, स्थायी रूप से बसने और जमीन खीदने पर रोक हेतु बनाये गये पांचवीं एवं छठवीं अनुसूची तथा भूमि रक्षा कानूनों के साथ छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता है। लेकिन इसकी खुल्लेआम धज्जियां उड़ायी जा रही है और देश के संसद में चर्चा तक नहीं होती?
यह सभी जानते हैं कि अंग्रेजों ने 1765 में बंगाल, बिहार और ओडि़सा की दीवानी ले ली और इन क्षेत्रों में जमीनदारी प्रथा लागू किया तब आदिवासियों ने उनके शासन को नाकारते हुए कह दिया था कि जमीन तो भागवान ने उन्हें दिया है फिर वे सरकार को लगान क्यों देंगे? इस तरह से बाबा तिलका मांझी के नेतृत्व में संघर्ष शुरू हुआ जो लगातार चलता रहा। 1793 में जमीन पर पूर्ण कब्जा हेतु स्थायी बंदोबस्ती कानून लागू कर दी गई लेकिन संघर्ष भी नहीं रूका। पहाडि़या विद्रोह, कोल्ह विद्रोह, संताल हुल, चेरो-खरवार विद्रोह एवं बिरसा उलगुलान जैसे सैंकड़ों आंदोलनों ने अंग्रेजी हुकूमत को आदिवासियों की भूमि, परंपरा एवं संस्कृति की रक्षा हेतु कानून बनाने पर मजबूर कर दिया, जिसमें संताल परगना एवं छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम तथा विलकिल्संस रूल्स प्रमुख हैं। लेकिन आजादी के बाद इन कानूनों की धज्जियां उड़ायी गयी और जब जमीन लूटने में ये कानून आड़े आने लगे तो इन्हें विकास विरोधी कानून बताकर इनके अस्तित्व को ही समाप्त करने की कोशिश जारी है।
इसी तरह अंगे्रजी हुकूमत ने देश में ‘भूमि अधिग्रहण कानून 1894’ लागू किया और सरकार को देश की जमीन पर प्रभुसत्ता हासिल हो गयी। अब सरकार विकास के नाम पर जब और जहां चाहा जमीन अधिग्रहण कर ली। इस तरह से रैयतों से भूमि हाथिया कर उन्हें संसाधानहीन बना दिया गया। यह कानून आजादी के बाद भी इसी तरह प्रभावी रहा। फलस्वरूप, विकास परियोजनाओं से देश में 6 करोड़ लोग विस्थापित और प्रभावित हुए हैं, जिसमें सबसे ज्यादा तबाही आदिवासियों की हुई है। पुनर्वास के नाम पर मात्र 25 प्रतिशत विस्थापितों को ही कुछ हासिल हुआ और शेष 75 प्रतिशत विस्थापित व प्रभावित लोग भूखों मरने पर विवश हो गए। जब अपने लोगों के साथ हुए अन्याय को देखते हुए आदिवासियों ने ‘‘जान देंगे पर जमीन नहीं देंगे’’ का नारा दिया तो केन्द्र की यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून 2013 लाकर यह कहा दिया कि अब विकास परियोजना लगाने के लिए 80 प्रतिशत प्रभावितों की स्वीकृति जरूरी है। आदिवासी लोग खुश हो गए लेकिन अब केन्द्र की एनडीए सरकार इस कानून को भी पूंजीपतियों के रास्ते का रूकावट बताते हुए संशोधन का प्रयास कर रही है।
यह कहने की जरूरत नहीं है कि 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के द्वारा 24 दिसंबर, 1993 को देश में पंचायत राज लागू किया गया लेकिन देश के आदिवासी इलाकों में इस कानून का घोर विरोध हुआ क्योंकि आदिवासियों की अपनी शासन व्यवस्था थी। फलस्वरूप, भारत सरकार ने 1994 में भूरिया समिति का गठन किया और समिति के सिफारिश के आधार पर सरकार ने अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत उपबंध विस्तार अधिनियम 1996 लागू किया। इस कानून का मूल प्रावधान प्रकृतिक संसाधनों पर ग्रामसभा को अधिकार प्रदान करना है। लेकिन अनुसूचित क्षेत्रों में आने वाले देश के 9 राज्यों में से किसी भी राज्य ने इस कानून को मूलरूप से लागू ही नहीं किया। इतना ही नहीं इस कानून को झारखंड उच्च न्यायालय में यह तर्क देते हुए चुनौती दी गयी कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 14 यानी समानता के अधिकार का उल्लंघन है और न्यायालय ने भी इसे असंवैधानिक करार दे दिया था। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसे पुनः संवैधानिक करार देते हुए बहाल किया। यह क्या दर्शाता है? ओडिसा के नियमगिरि वाले मसले पर सर्वोच्च न्यायलय ने यहां तक कह दिया है कि गांव के संसाधनों के मामले में ग्रामसभा ही सर्वोपरि है। ऐसी स्थिति में कोई भी औद्योगिक घराना या सरकार आदिवासियों से उनका संसाधन नहीं छिन सकती है। लेकिन अब केन्द्र की मोदी सरकार इस कानून की मूल आत्मा को ही खत्म करने का प्रयास कर रही है। आदिवासियों के साथ ऐसा क्यों हो रहा है?
यह कौन नहीं जानता है कि ‘स्टेट’ नाम की चीज आने से पहले जंगल पर आदिवासियों का सम्पूर्ण हक था। लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने उनका हक छिन लिया फिर आजादी के बाद तो उनको जंगल और जंगली जानवरों का दुश्मन ही मान लिया गया। 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने जंगल के विनाश का जवाबदेही आदिवासियों पर ही डाल दिया और उन्हें जंगलों से बाहर निकाल फेंकने की सिफारिश कर दी। और इसी आधार पर 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बनाकर रिजर्व जंगल का पत्ता तोड़ने को भी आपराध की श्रेणी में रख दिया गया। अंततः 2002 में आदिवासियों को वनों से खदेड़ना शुरू किया गया, जिसमें 25 हजार आदिवासियों का जीवन तबाह हो गया। लेकिन आंदोलन के बदौलत सरकार ने यह माना कि आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक रूप से अन्याय हुआ है और अब उसे न्याय देने की जरूरत है। इस तरह से वन अधिकार कानून 2006 बना। बावजूद इसके बाघ बचाने वालों की लाॅबी ने वन अधिकार कानून को दो वर्षों तक रोक कर रखा। अंततः 1 जनवरी, 2008 को वन अधिकार कानून पूरे देश में लागू हो गया, लेकिन अब यह कानून भी पूंजीपतियों के रास्ते पर एक कांटे की तरह दिखाई पड़ रहा है और सरकार उसमें भी संसोधन करने की कोशिश में जुटी हुई हैं।
आदिवासियों के हकों की रक्षा हेतु बनाये गये संवैधानिक प्रावधान, कानून एवं नियमों पर चारों तरफ से हमला जारी है। और ये सारे हमले विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर सिर्फ और सिर्फ पूंजीपतियों, व्यापारियों एवं गैर-आदिवासियों को आदिवासियों की भूमि, भू-भाग और संसाधनों पर कब्जा दिलाने के लिए किया जा रहा है। ऐसे में आदिवासी लोग महान लोकतंत्र पर कैसे विश्वास कर सकते हैं? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम आदिवासियों के भूमि, भू-भाग, संसाधन, संस्कृति एवं परंपरा की रक्षा के लिए बनाये गये कानून एवं संवैधानिक प्रावधान हमारे संघर्षों के परिणाम हैं इसलिए ये हमारा विरासत भी है, जिसपर हमला करना महंगा पड़ सकता है। सवाल यह है कि हमारे इलाकों की हिफाजत के लिए किया गया संवैधानिक प्रावधान एवं भूमि रक्षा हेतु बनाये गये कानून विकास विरोधी कैसे हो जाते हैं? हमें जंगल पर हक दिलाने वाले कानून आर्थिक तरक्की के लिए बाधक क्यों बन जाते? खनिज सम्पदा से भरी पड़ी जमीन और जंगल के मालिक आज फटेहाल क्यों हैं? पिछले छः दशकों का आकलन करने से भी स्पष्ट है कि हमारे लिए किस-किस तरह की नीतियां बनायी गयी। क्या हमें लाचार बनाने वाले योजना नहीं लागू किये गये? हमारे हिस्से का पैसा भी गटक लिया गया। क्यों? किसने हमारा हक मारा?
लोकतंत्र, देशहित, आर्थिक तरक्की, देश का विकास और राष्ट्र निर्माण के नाम पर हमारे आजीविका के संसाधनों को लूटा गया। और वे लोग हमें विकास का पाठ पढ़ाते रहे जो 365 दिनों में दो दिन अपने दफतरों में तिरंगा झंडा फहराकर देशभक्त बनते हैं और शेष 363 दिनों तक अपने ही देश को लूटते रहते हैं। यह लोकतंत्र हमें क्यों नहीं बचा पा रहा है? हमारे 47 सांसदों का मुंह किसने बंद किया है? इन सांसदों के लिए आदिवासी मुद्दों से पार्टी लाईन बड़ा क्यों है? क्या देश का लोकतंत्रिक व्यवस्था हमें बंदूक उठाने पर मजबूर नहीं कर रहा है? जब हम लोग संविधान के अनुच्छेद 19 जो हमें अभिव्यक्ति की आजादी देता है का उपयोग करते हुए जमीन, जंगल, नदी, पहाड़ और खनिजों की रक्षा की मांग करते हैं तो विकास विरोधी, राष्ट्र विरोधी और अलगावादी कैसे हो जाते हैं? जब पुलिस हम पर गोली चलाती है, फर्जी मुकदमें में फंसाती है और हमारी महिलाओं का बलात्कार करती है, जिसका हम विरोध करते हैं तो नक्सली बना दिये जाते हैं? क्या कोई हमें यह बता सकता है कि हमारी बची-खुची जमीन, जंगल, पहाड़, नदी और खनिज को बचाने के लिए हमारे देश में कौन सा लोकतंत्र है? क्या हम सिर्फ वोट देने और लूटाने के लिए ही हमारे महान लोकतंत्र पर गर्व करें? क्या धरती के महान लोकतंत्र के पास हमारे सवालों का जवाब है?
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