शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

मुंडा दिसुम को कब्जा करने का षडयंत्र

ग्लैडसन डुंगडुंग

 
झारखंड के मुंडा दिसुम में पांच महिलाओं के साथ हुए गैंगरेप, तीन पुलिसकर्मियों का अगवा और एक निर्दोंष आदिवासी की पुलिसिया कार्रवाई में हुई मौत एवं सैकड़ों आदिवासियों पर किये गये पुलिस जुल्म की भत्र्सना करते हुए मैं कहना चाहता हॅंू कि इस क्षेत्र में पिछले एक साल से चल रहा सांप-सीढ़ी का खेल मूलतः मुंडा दिसुम को कब्जा करने का है, जिसे ऐतिहासिक पृष्टभूमि से समझना पड़ेगा। झारखंड राज्य के गठन के साथ ही भाजपा सरकार के द्वारा वर्ष 2001 में औद्योगिक नीति बनायी गई थी, जिसमें झारखंड में औद्योगिक गलियारा बनाने का प्रस्ताव पहली बार आया था और यहीं से आदिवासियों की उल्टी गिनती शुरू हो गई। इसके बाद भाजपा सरकार ने मुंडा दिसुम को मित्तल नगर में तब्दील करने की भरपूर कोशिश की, जिसके लिए 2005 में झारखंड सरकार और मित्तल कंपनी के बीच एक समझौता पर हस्ताक्षर किया गया था। उपलब्ध दस्तावेज के अनुसार मित्तल कंपनी को 12 एमटी एक इंटीग्रोटेड स्टील प्लांट के लिए 25,000 एकड़ जमीन और 20,000 क्यूबिक पानी प्रतिदिन देने का प्रस्ताव था लेकिन आदिवासियों के भारी विरोध के कारण यह परियोजना अभी तक स्थापित नहीं हो सका है। यहां झारखंड सरकार से प्रश्न पूछना चाहिए कि 12 मिलियन टन प्रतिवर्ष स्टील बनाने के लिए एक कंपनी को 25,000 एकड़ जमीन क्यों चाहिए? क्या यह जमशेदपुर की तरह ही आदिवासी इलाके को कब्जा कर काॅरपोरेट और गैर-आदिवासियों का सम्राज्य स्थापित करने का षडयंत्र नहीं था?

जब आदिवासियों ने अपनी एकजूटता के बदौलत विकास और आर्थिक तरक्की के नाम पर मुंडा दिसुम को कब्जा करने के इस षडयंत्र को रोक दिया तब और एक षडयंत्र के साथ गैर-आदिवासी को झारखंड का मुख्यमंत्री बनाकर आदिवासी इलाका को लूटने की योजना तैयार की गई। इसी के तहत रघुवर दास के मुख्यमंत्री बनते ही आदिवासियों की जमीन को उद्योगपतियों को देने के लिए झारखंड सरकार ने भूमि बैंक का गठन कर राज्य के 21 लाख एकड़ सामुदायिक, धार्मिक एवं वनभूमि को ग्रामसभाओं से अनुमति लिये बगैर भूमि बैंक में डाल दिया। इसके अलावा आदिवासियों की जमीन हड़पने के रास्ते पर रोड़ा बनने वाले सीएनटी/एसपीटी एवं भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन किया गया। इसी बीच 16-17 फरवरी 2017 को रांची में ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट का आयोजन किया गया, जिसमें दुनियां भर में 11,200 पूंजीपतियों को बुलाकर 210 एमओयू पर हस्ताक्षर करते हुए 3.10 लाख करोड़ रूपये में झारखंड को बेचने का समझौता हुआ। इसी समझौता में से कोरियाई समूह की कंपनी स्मोल ग्रिड प्रा.लि. ने 7000 करोड़ रूपये पूंजी लगाकर अपना काम शुरू किया। झारखंड सरकार ने कंपनी के लिए सोढ़ा गांव में 210 एकड़ जमीन का आवंटन कर दिया। लेकिन आदिवासियों ने ग्रामसभा में प्रस्ताव पारित कर पत्थलगड़ी करते हुए उक्त कंपनी को जमीन देने से इंकार कर दिया। 

इसी बीच मुंडा दिसुम में सोना का खान होने का पता चला, जिसने दिकुओं की लालच को और ज्यादा बढ़ा दिया। खनिज सम्पदा, पानी और जमीन की उपलब्धता को देखते हुए इस इलाके में कई कंपनी अपना परियोजना स्थापित करना चाहते थे लेकिन आदिवासी महासभा के द्वारा चलाये जा रहे पत्थलगड़ी आंदोलन इसमें सबसे बड़ा रोड़ा बन गया। इस रोड़ा को हटाने के लिए पत्थलगड़ी आंदोलन को बदनाम करते हुए उसके अगुओं को रास्ते से हटाना ही एकमात्र रास्ता था। सरकार ने इस कार्य को अंजाम देने के लिए विज्ञापन और मुख्यधारा की मीडिया का पूरा सहारा लिया। पत्थलगड़ी आंदोलन के प्रमुख नेतृत्वकर्ताओं में अधिकांश लोगों के ईसाई धर्मालंबी होने से आंदोलन में ईसाई मिशनरी और विदेशी लिंक का तड़का लगाने में और ज्यादा आसान हो गया जबकि इसमें चर्च का दूर-दूर तक का कोई वास्ता नहीं है। पत्थलगड़ी आंदोलन के द्वारा मुंडा गांवों में प्रवेश निषेद्य लगाने से न सिर्फ पुलिस-प्रशासन बल्कि नक्सली संगठन पीएलएफआई और एनजीओ के लिए भी गांवों में जाना मुश्किल हो गया। नक्सली संगठन पीएलएफआई झारखंड पुलिस के द्वारा माओवादियों के खिलाफ लड़ने के लिए बनाया गया था, जो इस इलाके में सरकारी ठेकेदारों से खूब पैसा वसूलता है। इस इलाके में काम करने वाले एनजीओ भी पीएलएफआई का सहयोग लेते हैं। एनजीओ ने पत्थलगड़ी को बदनाम करने में अहम भूमिका निभायी। इसमें यह भी जानना दिलचस्प होगा कि इस इलाके के कुछ बड़े पत्रकार भी सरकारी ठेकेदारी में लिप्त हैं, जिन्हें पत्थलगड़ी आंदोलन के द्वारा सरकारी व्यवस्था को नाकारने से नुकशान हुआ। इन्होंने पत्थलगड़ी आंदोलन को बदनाम करने के लिए कई भ्रमक रिपोर्ट छापकर पत्थलगड़ी आंदोलन के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई के लिए सरकार पर दबाव बनाने की पूरी कोशिश की। 

गैंगरेप ने इन षडयंत्रकारियों को एक नया अवसर दे दिया। गैंगरेप को पीएलएफआई एवं कुछ अन्य अपराधियों ने अंजाम दिया, जिन्हें पत्थलगड़ी वाले टोका-टोकी करते थे। 19 जून 2018 को रात में ही रेप पीड़ित लड़की ने इस मसले को ट््राफिकिंग के मुद्दे पर काम करने वाले एक एनजीओ के अधिकारी को बताया और उसके बाद उक्त व्यक्ति ने रांची में बैठे एक बड़े पुलिस अधिकारी को बताया। इसके बाद गैंग रेप के मामले को हथियार बनाकर पत्थलगड़ी और चर्च दोनों को निशाना बनाने के लिए रांची में एक रणनीति बनायी गयी। इन लोगों ने गैंगरेप पीड़ितों को रांची बलाने की कोशिश की पर वे आने को तैयार नहीं हुए तब इन लोगों ने खूंटी के उपायुक्त को इस घटना की जानकारी दी और पीड़ितों को 20 जून 2018 को ही उपायुक्त के पास भेजा। लेकिन प्राथमिकी दर्ज करवाने के बजाये उपायुक्त ने षड्यंत्र रचा। उन्होंने कुछ खास पत्रकारों को इस खबर को सनसनी बनाकर पेश करने में मद्द की। लेकिन वैसे पत्रकारों को उनसे मिलने नहीं दिया जो हकीकत को सामने लाने के लिए जाने जाते हैं। इन पत्रकारों ने इस मामले पर पुलिस के द्वारा उन्हें गुमराह करने के संबंध में रिपोर्ट प्रकाशित किया।  

पुलिस ने ऐसा खेल इसलिए खेला क्योंकि पत्थलगड़ी के अगुआ जोसेफ पुर्ति को पकड़ने के लिए किये गये कई प्रयास विफल हो चुके थे। जोसेफ पूर्ति के सुरक्षा में 300 धनुषधारी तीन घेरे में रहते थे, जिसे पुलिस भेद नहीं पायी थी। रणनीति के तहत गैंगरेप को पत्थलगड़ी और चर्च से जोड़कर पुलिस ने अखबारी ज्ञान वाले शहरवासियों की सहानुभूमि बटोर ली। इसके लिए महिला आंदोलन से जुड़ी खास महिलाओं की प्रतिक्रिया उनकी तस्वीर के साथ छापी गई। 

इस तरह से गैंगरैप के दोषियों को पकड़ने के बहाने पुलिस फोर्स गांवों में घुस गयी और जोसेफ पूर्ति को घेरने की कोशिश की, जिससे गुसाये आदिवासियों ने सांसद कड़िया मुंडा के घर में हमला करते हुए तीन पुलिसकर्मियों को अगवा कर लिया। पुलिस पदाधिकारी चाहते थे कि ऐसा ही कुछ हो, जिससे पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों को इन गांवों में खुल्लम-खुल्ला घुसने की छूट मिल जायेगा। गांवों में घुसने के बाद आदिवासियों पर जमकर पुलिसिया जुल्म ढाहा गया। बिरसा मुंडा नामक व्यक्ति को गोली मार दी गई और गांवों में तीन पुलिस कैंप स्थापित कर दिया गया। पत्थलगड़ी आंदोलन को कुचलने के बाद, झाखंड सरकार इस क्षेत्र में विकास के नाम पर करोड़ों रूपये खर्च करेगी, जिसमें से एक बड़ा हिस्सा पत्रकार-ठेकेदार और सरकारी आॅफसरों को मिलेगा तथा गिद्ध दृष्टि लगाये हुए काॅरपोरेट घराने के लिए सरकार जमीन अधिग्रहण कर उनको उनका हिस्सा दे देगी। इसलिए आदिवासियों को आपसी लड़ाई छोड़कर अपनी जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए एकजुट होना पड़ेगा। 

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