शनिवार, 16 मार्च 2019

कोचांग का दर्द

कोचांग का दर्द   

- ग्लैडसन डुंगडुंग

कोचांग जाने का विचार आते ही मन में उमंग और भय का तरंग बराबर उमड़ने लगा। एक तरफ जहां पहली बार कोचांग जाने का उमंग था तो वहीं दूसरी तरफ सुरक्षा बलों और नक्सलियों के अमानवीय व्यवहार के शिकार होने का भय मन को सताता रहा। लेकिन खतरा का परवाह किये बगैर मसीह प्रकाश सोय, जेवियर टोपनो, विपिन कुजूर और मैं खूंटी से दिन के दो बजे निकल पड़े। लगभग आधा घंटे में बंदगांव घाटी पार करते हुए बाजार टांड पहुंचे। इस घाटी में शांम छः बजे के बाद जाना मना था पर अब वह खौफ न के बराबर है। लेकिन मोबाईल का नेटवर्क अब भी काम नहीं करता है। कोचांग के लिए बंदगांव बाजार से पूरब दिशा की ओर जाना पड़ता है। कई गाड़ियां कोचांग की ओर जाने के लिए तैयार दिखे। हमे वहां कुछ परिचित भी मिले, जो ‘जेरे’ और ‘सोसोय’ गाड़ियों से कोचांग जा रहे थे। मुलाकात की औपचारिकता पूरी करने के बाद हमलोग कोचांग की ओर कुच किये। 

पतझड़ होने से जंगल का रंग हरा-पीला दिखाई देने लगा। जंगल के बीच-बीच में लाल रंग से सराबोर पलास के फूल दिखाई देने लगे जो हमें नई उम्मीद दे रहे थे। चिड़ियों की कोलाहल भी सुनाई देने लगा और महुआ का गंध गाड़ी से टकराती हवा के साथ खिड़कियों के रास्ते हमारे नाकों तक पहुचने लगा। मैंने ‘जरे’ और ‘सोसोय’ गाड़ी का नाम पहली बार सुना था इसलिए साथियों से पूछा कि क्या मुंडारी में यात्री गाड़ियों को ‘जेरे’ और ‘सोसोय’ गाड़ी कहा जाता है? मसीह प्रकाश सोय ने मेरे सवाल का तुरंत जवाब देते हुए कहा कि अभी कुछ ही देर के बाद आपको ‘जेरे’ और ‘सोसोय’ दिखाई देगा। मैं उत्साहित हो गया कि कोई नया चीज देखने को मिलेगा। कुदाडिह गांव पहुंचते ही सड़क के दोनों तरफ खेतों में सफेद एवं लाल रंग के खुबशूरत फूल दिखाई देने लगे और साथ में पौधों से लगा हुआ हरे रंग का छोटा-छोटा फल भी। ऐसा लगा मानो जंगल में किसी ने फूलों की खेती की हो। ये पोस्ता के पौधे थे। मसीह प्रकाश सोय ने अपने दाहीने हाथ के उंगली से इशारा करते हुए कहा कि देखिये वो हैं ‘जेरे’ और ‘सोसोय’। पोस्ता के फलों से निकलने वाला गोंद, जिससे आफिम तैयार किया जाता है उसे मुंडारी में ‘जेरे’ या ‘सोसोय’ कहते हैं।

इस इलाके में भारी पैमाने पर पोस्ता की खेती की जाती है। पोस्ता की खेती से मिले पैसे से मोटरसाईकल, यात्री गाड़ी एवं अन्य चार पहिया वाहन खरीदा जाता है। इसलिए वैसे गड़ियों को ‘जेरे’ या ‘सोसोय’ गाड़ी यानी आफिम की गाड़ी कहा जाता है। प्रत्येक गांव में ‘जेरे’ और ‘सोसोय’ गाड़ी मिलेगा। सबसे हैरत की बात यह है कि कोचांग गांव में पुलिस कैप है और जवान प्रतिदिन पेट्रालिंग के लिए जाते हैं। फिर भी इस इलाके में आफिम की खेती लहलहा रही है। सुखराम मुंडा बताते हैं कि उन्होंने कई बार पुलिस पदाधिकारियों से आफिम का फसल नष्ट करने को कहा है लेकिन वे कुछ नहीं करते हैं। मेरे मन में सवाल उठा कि गांव के लोग कैसे निडर होकर आफिम की खेती करते हैं? क्या यह पुलिस और राजनीतिज्ञों के सहयोग के बगैर संभव है? मसीह प्रकाश सोय ने फिर से मेरे सवालों का जवाब दिया। उन्होंने रोचक बात बतायी कि चुनावी साल में आफिम की सबसे ज्यादा खेती होती है क्योंकि जिन सत्ताधारी नेताओं को चुनाव लड़ना है वे पुलिस को आदेश दे देते हैं कि जिन-जिन गांवों से उन्हें वोट मिलता है उन गांवों का आफिम नष्ट नहीं करना है। इसलिए जब मीडिया में आफिम खेती की खबरें आने लगती है तब पुलिस उन गांवों का पोस्ता के पौधों को नष्ट करती है, जिन गावों से सत्ताधारी पार्टी के नेताओं को वोट नहीं मिलता है। इसमें पुलिस का भी एक बड़ा हिस्सा है। प्रत्येक गांव से स्थानीय थाना को एक लाख रूपये मिलता है यानी पोस्ता खेती के क्षेत्र में पड़ने वाले थाना को प्रत्येक वर्ष 25 से 30 लाख रूपये मिलता। पोस्ता के फसल की खुल्लेआम खेती होने का मूल कारण यही है।

लगभग एक घंटे की यात्रा के बाद हमलोग कोचांग गांव पहुंचे। बाजार का दिन होने के कारण लोग खरीद-बिक्री में लगे हुए थे। गांव के मुहाने पर हरा रंग से रंगा हुआ एक छः फीट का पत्थर गड़ा हुआ मिला, जिसपर भारतीय संविधान के कुछ अनुच्छेद लिखे हुए थे। यह पत्थर कोचांग गांव जाने वालों को सावधान करता है कि यह ग्रामसभा का शासन क्षेत्र है। यहां ग्रामसभा की अनुमति के बगैर कोई काम नहीं कर सकते हैं। इससलिए हमलोग सीधे ग्रामप्रधान सुखराम मुंडा के घर पहुंचे। बगल में ही पुलिस कैंप है। हमारे पहुंचने से पुलिस कैंप में हलचल दिखाई पड़ा। कुछ जवान कैप से बाहर हमारे गाड़ी के आस-पास मंडराने लगे। बाघ से अचानक मुठभेड़ होने पर झूठा साहस दिखने वाले गीदड़ की तरह हम अपना मनोबल उंचा करते हुए आपस में जोर-जोर से बातें करने लगे। फलस्वरूप, जवानों ने हमसे सवाल पूछने की हिम्मत नहीं की। अब हमलोग साहस के साथ सुखराम मुंडा के कैंपस में घुस गये। 

आंगन में सरसों के पोधौं को सुखया गया था। लीची पेड़ के नीचे मुर्गी अपने बच्चों को दाना चुगना सिखा रही थी। घर का पहरेदार भी मुस्तैद था। हमें आंगन में बैठने के लिए प्लास्टिक की कुर्सी दी गई और साथ में पीने के लिए पानी भी। थोड़ी देर में सुखराम मुंडा आये। वे दीवाल के किनारे मिट्टी से बने पींडा पर बैठ जाते हैं। वे अपना और कोचांग का दर्द बयान करते हैं। वे अपनी और गांव की जमीन बचाने के लिए लड़ रहे हैं। वे बताते हैं कि इस इलाके में पत्थलगड़ी आंदोलन बहुत बाद में शुरू हुआ। जब उन्हांने पत्थलगड़ी के बारे में सुना तो गांव के कई लोगों के साथ पत्थलगड़ी आंदोलन के कई बैठक और सभाओं में शामिल होकर उसे समझने की कोशिश की। जब उन्हें लगा कि गांव की जमीन और जंगल को बचाने के लिए पत्थलगड़ी जरूरी है तब उन्होंने गांव में ग्रामसभा की बैठक बुलायी, जिसमें पत्थलगड़ी चर्चा की गई और निर्णय लिया गया कि गांव में पत्थलगड़ी करना जरूरी है। इसके बाद गांव में चंदा किया गया। इस तरह से 25 फरवरी 2018 को पारंपरिक तरीके से पत्थलगड़ी की गई। फिर भी कोचांग गांव चर्चा में कहीं नहीं था। 

कोचांग गांव चर्चा में तब आया जब 19 जून 2018 को यहां सामूहिक बलात्कार कांड हुआ, जिसमें पत्थलगड़ी आंदोलन के नेताओं को इसका मास्टरमाईंड बताया गया। सुखराम मुंडा बताते हैं कि इस घटना के बाद एक रात अचानक सुरक्षा बलो की एक टुकड़ी गांव पहुंची और मध्य विद्यालय भवन में डेरा डाल दिया। अगले दिन शिक्षकों को कहा गया कि कोचांग के मध्य विद्यालय को रूगूड़डिह मध्य विद्यालय में मिला दिया गया है। इसलिए वे बच्चों को लेकर वहां जायें। अपनी नौकरी बचाने के लिए शिक्षक तो रूगूड़डिह चले गये लेकिन गांव के 35-36 बच्चों ने विद्यालय जाना छोड़ दिया। सरकार ने इन आदिवासी बच्चों के शिक्षा के मौलिक अधिकार को एक झटके में छीन लिया। सरकार ने शिक्षा के अधिकार कानून 2009 का खुला उल्लंघन किया है। यदि यही काम ग्रामसभा या नक्सली करते तो यह देश की मीडिया में बड़ी खबर बनता। इसी बीच सुरक्षा बलों ने अपने लिए शौचालय बनाने के लिए बिना पूर्व सूचना और अनुमति के सुखराम मुंडा की 14 डिसमिल जमीन को कब्जा कर लिया जबकि उन्होंने पहले ही विद्यालय बनाने के लिए मुफ्त में अपनी जमीन दान दी थी। सरकार ने ग्रामसभा के अधिकारों को कुचल डाला। इतना ही नहीं सरकार अब गांव की 2.47 एकड़ जमीन पर स्थायी पुलिस कैंप बनाना चाहती है, जिसके लिए पिछले दरवाजे से काम किया जा रहा है। 

सुखराम मुंडा बताते हैं कि 23 अक्टूबर 2018 को अड़की के अंचलाधिकारी ने कोचंग में ग्रामसभा आयोजन करने का फरमान जारी किया था। आदेश-पत्र में लिखा था कि कोचंग गांव में सामुदायिक भवन निर्माण हेतु पुलिस अधीक्षक, खूंटी से अधियाचना प्राप्त हुआ है, जिसके लिए 2.47 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाना है। इसलिए उक्त योजना हेतु आगामी 30 अक्टूबर 2018 को गांव में ग्रामसभा आयोजित है, जिसमें सभी सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य है। गांव के आदिवासियों को पता है कि यह आदेश पेसा कानून 1996 के खिलाफ है क्योंकि ग्रामसभा बुलाने का अधिकार सिर्फ ग्रामप्रधान को है। सरकार कोचांग गांव में स्थायी पुलिस कैप बनाना चाहता है, जिसके लिए गांव में जमीन चाहिए। आदिवासी नहीं चाहते हैं कि उनके गांव में पुलिस कैंप बने इसलिए वे जमीन नहीं देना चाहते हैं। उन्हें मालूम है कि यह पुलिस कैंप उनके सुरक्षा के लिए नहीं है और न ही इसे यहां शांति स्थापना होगी। 

कोचांग गांव की जमीन लेने के लिए सरकार ने कानून, बंदूक और जेल के नामपर ग्रामप्रधान को भयभीत करना शुरू किया। 29 अक्टूबर 2018 को सुखराम मुंडा एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए रांची गये थे, जिन्हें लौटते समय खूंटी पुलिस ने खूंटी बाजार से उठा लिया और थाना में कई घंटो तक रखा, जहां खूंटी थाना एवं अड़की थाना के प्रभारियों ने उन्हें धमकाया कि यदि वे जमीन अधिग्रहण वाले दस्तावेज में दस्तखत नहीं करते हैं तब उसका परिणाम बहुत बुरा हो सकता है। ‘पत्थलगड़ी’ के मामले में उनके खिलाफ चार केस दर्ज हैं इसलिए वे उन्हें किसी भी समय जेल भेजकर सड़ा सकते हैं। वे एक बार जेल गये तो वहां से निकलना मश्किल हो जायेगा। उन्होंने डरा-धमकाकर भूमि अधिग्रहण से संबंधित दस्तावेज में दस्तखत करवा लिया उसके बाद रात के 11 बजे उन्हें छोड़ा गया।  

पुलिस की लाठी, बंदूक और जेल के भय से कोचंग गांव के मुंडा आदिवासी अंचलाधिकारी के आदेशानुसार तय तिथि को धान काटना छोड़कार ग्रामसभा में बैठ गये। लेकिन कोई भी सरकारी अधिकारी अंचल, प्रखंड या थाना से नहीं पहुंचा। इस तरह से गांव वालों को एक दिन बर्बाद हो गया। 1 नवंबर 2018 को अचानक अड़की थाना के प्रभारी तीन गाड़ियों के साथ गांव के पास स्थित दैनिक बाजार में पहुंचे। दो गड़ियों में धोती-साड़ी था और एक गाड़ी में पुलिस के जवान थे। थाना प्रभारी ने बाजार में उपस्थित आदिवासियों के बीच साड़ी और धोती बांटते हुए सादा कागज पर उनका हस्ताक्षर एवं अंगूठे का निशान ले लिया। जब लोगों ने सवाल पूछा कि क्यों धोती-साड़ी बांटा जा रहा है तब उन्होंने कहा कि सोहराई परब के लिए उन्हें सरकार की ओर से दिया जा रहा है। परब का नाम सुनकर लोगों ने धोती-साड़ी ले ली। लेकिन थानाप्रभारी ने चालाकी करते हुए उक्त दस्तावेज को ग्रामसभा बैठक की कार्यवाही बनाकर लिख दिया कि कोचांग के ग्रामीण सामुदायिक भवन के लिए 2.47 एकड़ जमीन देना चाहते हैं। अंततः यह कागज आंचलाधिकारी के द्वारा जिला भू-अर्जन पदाधिकारी के पास पहुंच गया। इसमें सबसे रोचक बात यह है कि जिन लोगों ने सादा कागज पर हस्ताक्षर एवं अंगूठे का निशान लगाकर साड़ी-धोती लिया है उनमें से अधिकांश व्यक्ति कोचांग गांव का नहीं है। 

कोचांग गांव के आदिवासी भूमि अधिग्रहण को लेकर सवाल उठा रहे हैं कि ग्रामसभा के आयोजन का आदेश अंचलाधिकारी कैसे दे सकते हैं? कौन से कानून के तहत उन्हें यह अधिकार दिया गया है? गांवों के विकास का काम कब से पुलिस अधीक्षक के हाथों में सौपा गया है? कोचंग के आदिवासी कह रहे हैं कि जब गांव में सामुदायिक भवन पहले से मौजूद हैं तो फिर एक और सामुदायिक भवन किसके लिए बनाना है? 2.47 एकड़ जमीन में किस तरह का सामुदायिक भवन बनेगा क्योंकि गांव का सामुदायिक भवन के लिए 10 से 15 डीसमील जमीन काफी है? आदिवासी हकीकत जानते हैं। हकीकत यह है कि सामुदायिक भवन के नामपर जमीन का अधिग्रहण कर वहां स्थायी पुलिस कैंप बनाने की योजना है इसलिए पुलिस अधीक्षक ने अंचलाधिकारी को अधिसूचना भेजा था। पुलिस कैंप बनाने के लिए सरकार को जमीन नहीं मिल सकता है इसलिए आदिवासियों को अंधेरा में रखकर जमीन अधिग्रहण करने की कोशिश की जा रही है। 

सरकार की गैर-कानूनी एवं अन्यायपूर्ण भूमि अधिग्रहण की कोशिश के खिलाफ कोचांग ग्रामसभा ने जिला भू-अर्जन पदाधिकारी, खूंटी को आपति-पत्र दिया है। लेकिन वे कहते हैं कि उन्हें ग्रामसभा की सहमति-पत्र प्राप्त हो चुकी हैं। सुखराम मुंडा बताते हैं कि खूंटी प्रशासन उनसे थाना में लिया गया हस्ताक्षर एवं गांव में धोती-साड़ी बांटते समय लिया गया दस्तखत एवं अगूंठे के निशान को ग्रामसभा का सहमति-पत्र के रूप में उपयोग कर रहा है। वे कहते हैं कि इस अन्याय के खिलाफ कोचांग के आदिवासी अंतिम दम तक लड़ेंगे। उन्हें पुलिस कैंप की भी जरूरत नहीं है इसलिए विद्यालय से कैंप हटाकर विद्यालय को पुनः चालू किया जाना चाहिए क्योंकि यह बच्चों के अधिकार का उल्लंघन हैं। कोचांग गांव के आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय और उनकी पीड़ा से रू-ब-रू होने के बाद हमलोग खूंटी लौट गये। मन में अनुतरित सवाल अब भी है कि आखिर कब तक आदिवासियों के साथ इस तरह का अन्याय होता रहेगा? कोचांग के आदिवासियों के दर्द को कौन सुनेगा? क्या इनके साथ न्याय होगा? 

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