बुधवार, 29 मई 2019

आदिवासियों से आहत ब्राह्मणवाद!

ग्लैडसन डुंगडुंग

लोकसभा चुनाव में बम्पर बहुमत मिलने के बाद 25 मई 2019 को जब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संविधान पर माथा टेक रहे थे उसी समय तीन ब्राह्मणवादी महिला डाक्टरों - डा. हेमा आहूजा, डा. भक्ति मेहर और डा. अंकिता खंडेलवाल के द्वारा किये गये जातीय, नस्लीय एवं अमानवीय प्रताड़ना से तंग आकर महाराष्ट्र के जलगांव निवासी 26 वर्षीय भील आदिवासी महिला डा. पायल तड़वी के आत्महत्या करने एवं इस ब्राह्मणवादी संस्थागत हत्या के खिलाफ न्याय की मांग से संबंधित खबरें सोशल मीडिया में तैर रही थी। इसी बीच 26 मई 2018 को बीफ खाने को लेकर 29 मई 2017 को किये गये फेसबुक पोस्ट के आधार पर झारखंड के जमशेदपुर निवासी संताल आदिवासी प्रोफेसर जितराई हांसदा को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। पुलिस ने बताया कि प्रो. जितराई हांसदा के बीफ खाने से संबंधित फेसबुक पोस्ट ने लोगों के धार्मिक भावनाओं को आहत कर दिया था इसलिए उसे गिरफ्तार करना पड़ा। इन दोनां घटनाओं का संबंध आदिवासियों से ब्राह्मणवाद के आहत होने से जुड़ा है।  

पहली घटना में एक भील आदिवासी लड़की का डाक्टर बनना तीन ब्राह्मणवादी डाक्टरों को पच नहीं रहा था। इन डाक्टरों ने पायल तड़वी को ड्यूटी के समय जमकर प्रताड़ित किया। फिर भी जब उनका मन नहीं भरा तब उन्होंने वाट्सप ग्रुप में पायल के खिलाफ जातीय एवं नस्लीय संदेश भेजा। उनका वाट्सप संदेश उनके अंदर कूट-कूटकर भरा जातीय एवं नस्लीय नफरत को दर्शाता है। वाट्सप संदेश में उन्होंने लिखा, ‘‘तुम आदिवासी लोग जंगली होते हो, तुमको अक्कल नहीं होती... तु आरक्षण के कारण यहां आई हैं... तेरी औकात है क्या हम ब्राह्मणों से बराबरी करने की... तु किसी भी मरीज को हाथ मत लगाया कर वे अपवित्र हो जायंगे... तु आदिवासी नीच जाति की लड़की मरीजों को भी अपवित्र कर देगी...! डा. पायल तड़वी ने हास्पिटल प्रशासक से इसके बारे में मौखिक शिकायत की थी लेकिन इन डाक्टरों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। इससे स्पष्ट है कि एक आदिवासी लड़की के डाक्टर बनने से न सिर्फ ये तीन ब्राह्मणवादी डाक्टरों को दिक्कत थी बल्कि हास्पिटल प्रशासक भी आहत थे। 

इन ब्राह्मणवादी डाक्टरों को यह नहीं मालूम था कि आदिवासी भारत के वर्ण व्यवस्था से निकले जाति व्यवस्था की उपज नहीं हैं। इसलिए यदि वे उच्च जातियों में नहीं गिने जाते हैं तो वे नीच जातियों में भी नहीं हैं। वे वर्ण और जाति व्यवस्था में हैं ही नहीं बल्कि उनका अपना अलग व्यवस्था है, जिसका मूल आधार सामूहिकता, समानता, स्वायत्तता, न्याय और भाईचारा है। आदिवासी ‘ब्राह्मा’ के किसी भी अंग से पैदा नहीं हुए हैं इसलिए आदिवासियों को नीच जाति के लोग कहना ब्राह्मणवादियों के अज्ञानता का प्रमाण है। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले ’’कैलाश बनाम अन्य एवं महाराष्ट्र सरकार’ में कहा है कि देश के 8 प्रतिशत आदिवासी ही भारत के प्रथम निवासी और मालिक हैं तथा अन्य 92 प्रतिशत लोग आक्रमणकारियों एवं व्यापारियों के वंशज है। इसलिए ब्राह्मणवादियों को यह मालूम होना चाहिए के वे भारत के निवासी नहीं है। उन्हें आदिवासियों के साथ अमानवीय व्यवहार करने का कोई हक नहीं है। इन ब्राह्मणवादी डाक्टरों के वाट्सप संदेश में स्पष्ट झलकता है कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद इन तथाकथित उच्च जातियों के इन लोगों में मानव होने का गुण अबतक विकसित नहीं हुआ है। 

प्रो. जितराई हांसदा के मसले का विश्लेषण यह साबित करता है कि ब्राह्मणवादी अपने अनैतिक कार्यों को न्यायोचित ठहराने और उसे छुपाने में माहिर हैं। प्रो. जितराई हांसदा के साथ हुए असंवैधानिक कार्रवाई ने स्पष्ट कर दिया है कि ब्राह्मणवादी लोग सिर्फ उनके आदिवासी होने के कारण आहत थे न कि बीफ खाने से क्योंकि बीफ को लेकर हकीकत कुछ और ही है। देश में पिछले पांच वर्षों से बीफ पर राजनीति करने वाले संघ परिवार की पाटी भाजपा की सरकार है लेकिन यहां बीफ का कारोबार फल-फूल रहा है। 2018 में भारत विश्व का दूसरा बीफ निर्यातक देश बना जबकि ब्राजील प्रथम देश है। पिछले वर्ष ब्राजील ने 18.55 लाख मेट्रक्स टन और भारत ने 18.50 लाख मेट्रक्स टन बीफ का निर्यात किया। इसके लिए कितने गाय-बैल और भैंसों को काटा गया होगा कल्पना नहीं की जा सकती है। लेकिन इससे ब्राह्मणवादी आहत नहीं हुए हैं। उन्होने न भाजपा नेताओं पर सवाल किया और न ही पार्टी का विरोध? 

सबसे रोचक बात यह है कि देश का सबसे बड़ा बीफ निर्यातक कंपनी है ‘आल कबीर एक्सपोर्टस प्रा. लि. है, जिसने बीफ से 650 करोड़ रूपये कमाया। इस कंपनी का मालिक सतीश सबारवाल है। इसी तरह अराबियन एक्सपोर्ट प्रा. लि. के मालिक सुनील कपूर हैं। एम.के.आर. फ्रोजेन फूड एक्सपोर्ट प्रा. लि. के मालिक मदन अबोट, पी.एफ.एल. इंडस्ट्रीज प्रा.लि. के मालिक ए.एस. बिन्द्रा, ए.ओ.बी. एक्सपोर्टस प्रा. लि. के मालिक ओ.पी. अरोड़ा, स्टॅन्डर्स फ्रोजेन फूड एक्सपोर्टस प्रा. लि. के मालिक कमल वर्मा एवं महाराष्ट्रा फूड प्रोसेसिंग एवं कोल्ड स्टोरेज प्रा. लि. के मालिक सन्नी कट्टर हैं। इसके अलावा और कई बीफ निर्यातक कंपनी हैं, जिनके मालिक खूद सवर्ण हिन्दू हैं। लेकिन इससे भी ब्राह्मणवादियों की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होती है। संघी लोग न इनके उपर हमला करते हैं और न ही उनके खिलाफ कोई मुकदमा। यदि कोई आदिवासी बीफ एक्पोर्ट कंपनी चलाता तब क्या होता? निश्चित ही तब ब्राह्मणवादी, मनुवादी और संघियों की धार्मिक भवनाएं आहत होती। 
मजेदार बात यह है कि संघियां और ब्राह्मणवादियों की पार्टी भाजपा ने बीफ निर्यातक कंपनियों से चंदा लिया है। चुनाव आयोग की वेबसाई के अनुसार बीफ निर्यातक कंपनी फ्राइगोरीफिको अल्लाना प्रा.लि. ने भाजपा को चेक के माध्यम से 2013-14 में 75 लाख रूपये एवं 2014-15 में 50 लाख रूपये चंदा दिया। इसी तरह बीफ निर्यातक कंपनी इनडाग्रो फूट्स लिमिटेड ने भाजपा को 75 लाख रूपये एवं फ्राइगेरिया कानवेरवा अल्लाना लिमिटेड ने 50 लाख रूपये चंदा दिये। यह हैरान करने वाली बात है कि बीफ बेचने वाली कंपनियों से चंदा लेने के बावजूद भाजपा से ब्राह्मणवादियों की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होती है लेकिन एक फेसबुक पोस्ट से उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचता है। ऐसा क्यों?

इतना ही नहीं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 2 जुलाई 2017 को कहा था कि गोवा में बीफ पर प्रतिबंध नहीं लगेगा। इसी तरह 18 जुलाई 2017 को भाजपा नेता और गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर परिकर ने विधानसभा में कहा था कि गोवा में बीफ की कमी न हो यह सुनिश्चित किया जायेगा। गोवा के अलावा जिन पूर्वात्तर राज्यों में भाजपा की सरकार है वहां बीफ का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है। लेकिन बीफ पर दिये गये भाजपा नेताओं के बयान और भाजपा सरकारों के द्वारा बीफ उधोग को दिये गये संरक्षण से ब्राह्मणवादी आहत नहीं होते हैं। लोग हैरान हैं कि आदिवासियों के बीफ खाने से ब्राह्मणवादियों की भावनाएं क्यों आहत होती हैं?  

सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना करने वाले संघियों के हृदयसम्राट विनायक दामोदर सावरकर ने मराठी भाषा में लिखी गई किताब ‘विज्ञाननिष्ठ निबंध’ में लिखा है कि गाय की देखभाल कीजिये लेकिन पूजा नहीं। वे लिखते हैं, ‘‘ईश्वर सर्वोच्च है, फिर मनुष्य का स्थान है और उसके बाद पशु जगत है। गाय तो एक ऐसा पशु है जिसके पास मुर्ख से मुर्ख मनुष्य के बराबर भी बुद्धि नहीं होती। गाय को दैवीय मानना और इस तरह से मनुष्य से उपर समझना, मनुष्य का अपमान है।‘‘ वे आगे लिखते हैं, ‘‘गाय एक तरफ से खाती है और दूसरी तरह से गोबर और मूत्र विसर्जित करती रहती है। जब वह थक जाती है तो अपनी ही गंदगी पर बैठ जाती है। फिर वह अपनी पूंछ से यह गंदगी अपने पूरे शरीर पर फैला देती हे। एक ऐसा प्राणी जो स्वच्छता को नहीं समझता उसे दैवी कैसे माना जा सकता है?’’ लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि ब्राह्मणवादियों की धार्मिक भावना को सावरकर भी आहत नहीं करते हैं लेकिन प्रो. जितराई हांसदा का एक फेसबुक पोस्ट आहत करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रारंभ से ही ब्राह्मणवादी लोग अपने कुकर्म को न्यायोचित ठहराते रहे हैं। उनके कथनी और करनी में जमीन-असमान का फर्क है। वे हमेशा दोहरी नीति अपनाते हैं। जब वे बीफ खाते या बीफ से पैसा कमाते हैं तब वह कार्य पवित्र होता है लेकिन जब वही काम दूसरे करते है तब वे उसे पाप का दर्जा देते हैं। 

इसलिए हमें यह समझना पड़ेगा कि कैमरा के सामने संविधान पर माथा टेकने का अभिनय करना और संविधान को जमीन पर लागू करना दोनों अलग-अलग बातें हैं। अवसर की समता और भोजन का अधिकार हमारा मौलिक आधिकार है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15, 16 और 21 में प्रदत है। इसके अलावा अनुच्छेद 17 के द्वारा छुआछूत और भेदभाव को खत्म कर दिया गया है। इसलिए देश के प्रत्येक नागरिक को समान अवसर और भोजन के अधिकार को सुनिश्चित करना सरकार की पहली जिम्मेवारी हैं। लोग बीफ, मटन, चिकन, डाग या कैट खाये यह उनका मौलिक अधिकार है। यदि कोई कहता है कि बीफ खाना उसका मौलिक अधिकार है तो क्या सरकार उसे नाकार सकती है? इसलिए प्रश्न उठता है कि संविधान पर माथा टेकने वालों ने डा. पायल ताडवी और प्रो. जितराई हांसदा के मौलिक अधिकारों की रक्षा क्यों नहीं की? क्या उनके दिलो-दिमाग में भी ब्राह्मणवाद राज्य करता है, जो आदिवासियों से आहत हो चुका है? 

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