मानवाधिकार कार्यकर्ता व लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग की नई पुस्तक ‘‘मिशन सारंडा’’ झारखंड के पश्चिम सिंहभूम जिले स्थित सारंडा जंगल की हकीकत से रू-ब-रू कराती है। यह पुस्तक 280 पृष्ठों की है, जिससे 25 भागों में बांटा गया है, जिसकी कीमत 300 रूपये है। पुस्तक का प्रकाशन संयुक्त रूप से देशज प्रकाशन एवं बीरबुरूआॅम्पय मीडिया एंड इंटरटेनमेंट नामक कंपनी ने किया है। लालगलियारा में घुमने की चुनौती, सारंडा जंगल की विशेषता, वहां के आदिवासियों का जीवन, जंगल आंदोलन, नक्सलवाद की जमीनी हकीकत, लौह-अयस्क अत्खनन के प्रभाव, विकास की हकीकत, मानवाधिकार हनन, शिक्षा एवं स्वास्थ्य की स्थिति, सारंडा की राजनीति, जनसुनवाई, स्वशासन एवं जैवविविधता जैसे मुद्दों को इसमें सम्पूर्णता में प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी है।
पुस्तक में सारंडा विकास योजना पर गंभीर सवाल खड़ा किया गया है। यह कैसा विकास माॅडल है, जहां तीन वर्षों में चयनित 56 गांवों के लिए प्रस्तावित 5 आवासीय विद्यालय एवं 6 वाटरसेड परियोजना शुरू भी नहीं हो सकी? 10 समेकित विकास केन्दों में सिर्फ एक बन पायी लेकिन वह भी बेकार पड़ी हुई है। आखिर 250 करोड़ रूपये कहां गये? वहीं 22 नयी माईनिंग लीज दी गयी एवं 9 सीआरपीएफ कैंप बना दिया गया है, जिससे यह प्रतीत होती है कि सारंडा विकास योजना को लागू करने के पीछे नये माईनिंग परियोजनाओं को लागू करना है। साथ ही यह भी कहा गया है कि माईनिंग हेतु 85 नये प्रस्ताव हैं, जिससे सारंडा जंगल का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। इसके अलावे विकास योजनाओं के फेल होने के पीछे का कारण इसे लागू करने वाले व्यवस्था की हार से ज्यादा यह एक संस्कृतिक समस्या है। भ्रष्टाचार, अनैतिकता एवं पक्षपाती भारतीय संस्कृति का हिस्सा बन चुका है, जो स्टेट को फेल कर रहा है।
इस पुस्तक में माईनिंग कंपनी एवं माओवादियों के बीच गहरे संबंध एवं लाखों रूपयों के लेनदेन का भी खुलासा किया गया है। प्रश्न भी उठाया गया है कि माईनिंग कंपनियों द्वारा उपयोग किया जाने वाला विस्फोटक माओवादियों के पास कैसा पहुंच रहा है? साथ ही सारंडा में कार्यरत माईनिंग कंपनी - रूंगटा माईंस लिमिटेड एवं एलेक्ट््री स्टील कस्टिंग लिमिटेड द्वारा जनसुनवाई के नाम पर ग्रामीण आदिवासियों, पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था से जुड़े लोगों एवं स्थानीय राजनीतिज्ञों के बीच पैसा बंटने का भी खुलासा किया गया है।
यह पुस्तक नक्सल आंदोलन पर भी यह कहते हुए गंभीर सवाल खड़ा करती है कि अब नक्सल आंदोलन का मूल सिद्धांत और जमीनी हकीकत में बहुत फासला है। एक तरफ नक्सली आदिवासियों के तरफ से सरकार एवं पूंजीपतियों से युद्ध लड़ने का दावा करते हैं लेकिन उन खनन कंपनियों से पैसा लेकर उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं, जो कंपनियां आदिवासियों को विस्थापित करती हैं। नक्सल आंदोलन एक ‘सेक्यूरिटी एजंेसी‘ की तरह काम कर रही है, जो खनन कंपनियों से लेवी के रूप में पैसा लेती है और बदले में उनको सुरक्षा उपलब्ध करवाती हंै। जहां सरकार विकास काम नहीं कर सकती है वहां खनन कंपनियों का काम बहुत अच्छे तरीके से कैसे चल रहा है? क्या खनन कंपनियां सरकार से ज्यादा ताकतवर हैं?
इस पुस्तक का प्राक्कथन जानेमाने मानव वैज्ञानिक, लेखक एवं चाल्र्स डारविन के परपोता डा. फेलिक्स पडेल ने लिखा हैं। वे लिखते हैं कि यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि क्यों खनन उद्योग असली विकास का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। खनन उद्योग वैसे खुबसूरत इलाकों को जहां लोगांे के स्वशासन की लंबी परंपरा रही है एवं उन्होंने पर्यावरण का प्रबंधन अपने तरीके से किया है, को बंजर भूमि एवं नरक में तब्दील कर देती है। इसके अलावा, खनन उद्योगों में भ्रष्टाचार का बोलबाला नीचे से उपर तक हो गया है। ये कंपनियां गांवों के कुछ प्रभावशाली लोगों को पैसा और नौकरी देकर अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए समुदाय को विभाजित कर रहे हैं, जो इस पुस्तक में झलकता है। सारंडा जंगल की हकीकत को समझने के लिए यह एक अति महत्वपूर्ण पुस्तक है।
"क्रॉसफायर" नामक पुस्तक कोलकाता स्थित ‘‘आदिवाणी’’ प्रकाशन की पेशकश है, जिसे मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग और पत्रकार संजय कृष्ण ने संयुक्तरूप से लिखा है। देश के जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश ने इस पुस्तक का प्रक्कथन लिखा है। वे लिखते हैं कि हमारा देश दो हिस्सों में बंट गया है - एक चमकता हुआ ‘शाईनिंग इंडिया’ और दूसरा ‘रोता हुआ ग्रामीण भारत’’। रोते हुए ग्रामीण भारत की एक और बड़ी दर्दनाक तस्वीर है, जहां आदिवासी लोग रहते हैं, वहां अकूत खनिज सम्पदा भरी पड़ी है और भारत सरकार ने उस क्षेत्र को लालगलियारा का नाम भी दे रखा है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि देश का लगभग 92,000 वर्गकिलोमीटर क्षेत्र को नक्सली संगठन ‘भाकपा -माओवादी नियंत्रित करते हैं। 2009 में देश के 10 राज्यों के 180 जिलों में उनकी सक्रियता पायी गई थी, जिसने केन्द्र सरकार को सकते में डाल दिया था। पिछले कुछ वर्षों से भारत सरकार का पूरा ध्यान इसी क्षेत्र पर केन्द्रित है। यह इसलिए नहीं कि केन्द्र सरकार इस क्षेत्र से भाकपा-माओवादियों का शासन समाप्त कर यहां शांति और सुशासन स्थापित करना चाहती है अपितु यह इसलिए क्योंकि सरकार इस क्षेत्र को अपने कब्जे में लेकर औद्योगिक घरानों को सौपना चाहती है। सरकार ने यह मान लिया है कि अगर यह क्षेत्र देशी विदेशी उद्योगपतियों के हाथ में चला गया तो वे मध्यवर्ग के लिए नौकरी और सरकार के खजाने में धनवर्षा करेंगे, जिससे देश की अर्थव्यवस्था छलांग लगा देगी। ‘क्राॅसफायर’ ने भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के साथ मिलकर तथाकथित लाल गलियारा में अक्टूबर, 2009 से संयुक्त रूप से चलाये जा रहे नक्सल विरोधी अभियान के दौरान नक्सली होने के आरोप में निर्दोष ग्रामीणों की हत्या, महिलाओं के साथ बलात्कार, फर्जी मुकदमा कर लोगों को जेलों में डालना और उन्हें यातनाएं देना तथा इसके पीछे प्रकृतिक संसाधनों की वैश्विक लूट को आम जनता के सामने खोलकर रख दिया है। यह पुस्तक सरकार और समाज को आईना दिखाने का एक प्रयास है ताकि वे लाल गलियारा के दुःख, दर्द और पीड़ा को समझे और वहां के लोगों को न्याय दिलाने में अहम् भूमिका निभा सकें।
पुस्तक में सारंडा विकास योजना पर गंभीर सवाल खड़ा किया गया है। यह कैसा विकास माॅडल है, जहां तीन वर्षों में चयनित 56 गांवों के लिए प्रस्तावित 5 आवासीय विद्यालय एवं 6 वाटरसेड परियोजना शुरू भी नहीं हो सकी? 10 समेकित विकास केन्दों में सिर्फ एक बन पायी लेकिन वह भी बेकार पड़ी हुई है। आखिर 250 करोड़ रूपये कहां गये? वहीं 22 नयी माईनिंग लीज दी गयी एवं 9 सीआरपीएफ कैंप बना दिया गया है, जिससे यह प्रतीत होती है कि सारंडा विकास योजना को लागू करने के पीछे नये माईनिंग परियोजनाओं को लागू करना है। साथ ही यह भी कहा गया है कि माईनिंग हेतु 85 नये प्रस्ताव हैं, जिससे सारंडा जंगल का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। इसके अलावे विकास योजनाओं के फेल होने के पीछे का कारण इसे लागू करने वाले व्यवस्था की हार से ज्यादा यह एक संस्कृतिक समस्या है। भ्रष्टाचार, अनैतिकता एवं पक्षपाती भारतीय संस्कृति का हिस्सा बन चुका है, जो स्टेट को फेल कर रहा है।
इस पुस्तक में माईनिंग कंपनी एवं माओवादियों के बीच गहरे संबंध एवं लाखों रूपयों के लेनदेन का भी खुलासा किया गया है। प्रश्न भी उठाया गया है कि माईनिंग कंपनियों द्वारा उपयोग किया जाने वाला विस्फोटक माओवादियों के पास कैसा पहुंच रहा है? साथ ही सारंडा में कार्यरत माईनिंग कंपनी - रूंगटा माईंस लिमिटेड एवं एलेक्ट््री स्टील कस्टिंग लिमिटेड द्वारा जनसुनवाई के नाम पर ग्रामीण आदिवासियों, पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था से जुड़े लोगों एवं स्थानीय राजनीतिज्ञों के बीच पैसा बंटने का भी खुलासा किया गया है।
यह पुस्तक नक्सल आंदोलन पर भी यह कहते हुए गंभीर सवाल खड़ा करती है कि अब नक्सल आंदोलन का मूल सिद्धांत और जमीनी हकीकत में बहुत फासला है। एक तरफ नक्सली आदिवासियों के तरफ से सरकार एवं पूंजीपतियों से युद्ध लड़ने का दावा करते हैं लेकिन उन खनन कंपनियों से पैसा लेकर उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं, जो कंपनियां आदिवासियों को विस्थापित करती हैं। नक्सल आंदोलन एक ‘सेक्यूरिटी एजंेसी‘ की तरह काम कर रही है, जो खनन कंपनियों से लेवी के रूप में पैसा लेती है और बदले में उनको सुरक्षा उपलब्ध करवाती हंै। जहां सरकार विकास काम नहीं कर सकती है वहां खनन कंपनियों का काम बहुत अच्छे तरीके से कैसे चल रहा है? क्या खनन कंपनियां सरकार से ज्यादा ताकतवर हैं?
इस पुस्तक का प्राक्कथन जानेमाने मानव वैज्ञानिक, लेखक एवं चाल्र्स डारविन के परपोता डा. फेलिक्स पडेल ने लिखा हैं। वे लिखते हैं कि यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि क्यों खनन उद्योग असली विकास का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। खनन उद्योग वैसे खुबसूरत इलाकों को जहां लोगांे के स्वशासन की लंबी परंपरा रही है एवं उन्होंने पर्यावरण का प्रबंधन अपने तरीके से किया है, को बंजर भूमि एवं नरक में तब्दील कर देती है। इसके अलावा, खनन उद्योगों में भ्रष्टाचार का बोलबाला नीचे से उपर तक हो गया है। ये कंपनियां गांवों के कुछ प्रभावशाली लोगों को पैसा और नौकरी देकर अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए समुदाय को विभाजित कर रहे हैं, जो इस पुस्तक में झलकता है। सारंडा जंगल की हकीकत को समझने के लिए यह एक अति महत्वपूर्ण पुस्तक है।
"क्रॉसफायर" नामक पुस्तक कोलकाता स्थित ‘‘आदिवाणी’’ प्रकाशन की पेशकश है, जिसे मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग और पत्रकार संजय कृष्ण ने संयुक्तरूप से लिखा है। देश के जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश ने इस पुस्तक का प्रक्कथन लिखा है। वे लिखते हैं कि हमारा देश दो हिस्सों में बंट गया है - एक चमकता हुआ ‘शाईनिंग इंडिया’ और दूसरा ‘रोता हुआ ग्रामीण भारत’’। रोते हुए ग्रामीण भारत की एक और बड़ी दर्दनाक तस्वीर है, जहां आदिवासी लोग रहते हैं, वहां अकूत खनिज सम्पदा भरी पड़ी है और भारत सरकार ने उस क्षेत्र को लालगलियारा का नाम भी दे रखा है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि देश का लगभग 92,000 वर्गकिलोमीटर क्षेत्र को नक्सली संगठन ‘भाकपा -माओवादी नियंत्रित करते हैं। 2009 में देश के 10 राज्यों के 180 जिलों में उनकी सक्रियता पायी गई थी, जिसने केन्द्र सरकार को सकते में डाल दिया था। पिछले कुछ वर्षों से भारत सरकार का पूरा ध्यान इसी क्षेत्र पर केन्द्रित है। यह इसलिए नहीं कि केन्द्र सरकार इस क्षेत्र से भाकपा-माओवादियों का शासन समाप्त कर यहां शांति और सुशासन स्थापित करना चाहती है अपितु यह इसलिए क्योंकि सरकार इस क्षेत्र को अपने कब्जे में लेकर औद्योगिक घरानों को सौपना चाहती है। सरकार ने यह मान लिया है कि अगर यह क्षेत्र देशी विदेशी उद्योगपतियों के हाथ में चला गया तो वे मध्यवर्ग के लिए नौकरी और सरकार के खजाने में धनवर्षा करेंगे, जिससे देश की अर्थव्यवस्था छलांग लगा देगी। ‘क्राॅसफायर’ ने भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के साथ मिलकर तथाकथित लाल गलियारा में अक्टूबर, 2009 से संयुक्त रूप से चलाये जा रहे नक्सल विरोधी अभियान के दौरान नक्सली होने के आरोप में निर्दोष ग्रामीणों की हत्या, महिलाओं के साथ बलात्कार, फर्जी मुकदमा कर लोगों को जेलों में डालना और उन्हें यातनाएं देना तथा इसके पीछे प्रकृतिक संसाधनों की वैश्विक लूट को आम जनता के सामने खोलकर रख दिया है। यह पुस्तक सरकार और समाज को आईना दिखाने का एक प्रयास है ताकि वे लाल गलियारा के दुःख, दर्द और पीड़ा को समझे और वहां के लोगों को न्याय दिलाने में अहम् भूमिका निभा सकें।
"हूज कंट्री इंज इट एनीवे" नामक पुस्तक ग्लैडसन डुंगडुंग की पहली अंग्रेजी पुस्तक है, जिसे आदिवाणी, कोलकाता ने प्रकाशित किया है। यह पुस्तक देश में आदिवासियों के साथ हुए अन्याय, अत्याचार, लूट, शोषण एवं दमन का एक प्रमाणिक दस्तावेज है। पुस्तक चुनौती के साथ दावा करती है कि भारत देश आदिवासियों का है और वे ही इसके असली मालिक हैं इसलिए अब उनके खिलाफ किया जा रहा अन्याय, अत्याचार, लूट, शोषण एवं दमन बंद होनी चाहिए। पुस्तक का महत्व इसलिए भी ज्यादा बढ़ जाता है क्योंकि लेखक को कभी भी किसी अंग्रेजी विद्यालय, काॅलेज या विश्वविद्यालय में अध्ययन करने का मौका नहीं मिला बावजूद इसके उन्होंने यह मुकाम हासिल किया है। पुस्तक का प्राक्कथन विश्वविख्यात नृतक एवं सामाजिक कार्यकर्ता मालिका साराभाई ने लिखा है। वे लिखते हैं कि भारत का तीन नक्शा उठा लीजिए। एक नक्शा में आदिवासी दिखाई देते हैं, दूसरा नक्शा में खनिज एवं वन सम्पदा और तीसरा नक्शा माआवादियों के फैलाव की तस्वीर दिखाती है। इसमें आश्चार्य होने की जरूरत नहीं कि ये तीनों चीजें एक ही क्षेत्र में स्थित हैं। और केन्द्र एवं राज्य सरकारें यहीं पर आदिवासियों के खिलाफ युद्ध छिड़ कर रखा है। यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण आवाज है, जिसे निश्चित रूप से सुना जाना चाहिए।
"विकास के कब्रगाह" नामक पुस्तक रांची स्थित देशज प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इस पुस्तक को सुनील मिंज एंव ग्लैडसन डुंगडुंग ने संयुक्त रूप से लिखा है। यह पुस्तक विकास के तीन स्तूप - टाटा स्टील जमशेदपुर, हेवी इंजीनियरिंग काॅरपोरेशन रांची एवं बोकारो स्टील प्लांट बोकारो पर किया गया अनुसंधान परक पुस्तक है। इस पुस्तक के द्वारा यह बताने की कोशिश की गयी है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के आधुनिक विकास के मंदिर, कैसे आदिवासियों के लिए कब्रगाह बन गये। पुस्तक यह भी बताती है कि विकास के नाम पर जरूरत से बहुत ज्यादा जमीन का अधिग्रहण किया गया और अधिगृहित उद्देश्य के खिलाफ जमीन की बंदरबंट की गयी। यह पुस्तक कुछ आदिवासियों के बारे में बताते हुए कहती है कि इन परियोजनाओं के लगने से पहले ये आदिवासी कैसे खुशहाल थे। लेकिन तथाकथित विकास परियोजनाओं ने उन्हें रिक्शा चलाने एवं कुली-कबाड़ी करने हेतु मजबूर कर दिया। कुल मिलाकर यह पुस्तक बताने का प्रयास करती है कि विकास, आर्थिक तरक्की एवं राष्ट्रहित के नाम पर आदिवासियों से उनकी जमीन, जंगल, पहाड़, नदी और खनिज छिन लिया गया। इस पुस्तक का प्रस्तावना जानेमाने बुद्धिजीवी एवं आंदोलनकारी डा- संजय बसु माल्लिक ने लिखा है।
‘‘झारखंड में अस्मिता संघर्ष’’ नामक पुस्तक नई दिल्ली स्थित पृथ्वी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इस पुस्तक को सुनील मिंज एंव ग्लैडसन डुंगडुंग ने संयुक्त रूप से लिखा है। यह पुस्तक झारखंड में जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए विगत तीन दशकों से चल रहे दस महत्वपूर्ण जनांदोलनों का दस्तावेज है, जिसमें इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि, रणनीति, इतिहास, कमजोरी एवं सफलताओं को रेखांकित किया गया है। यह जनांदोलनों का एक अद्भुत एवं अनोखा दस्तावेज है, जो आने वाले समय में जनांदोलनों को प्रेरित करने में सफल होगां इस पुस्तक का प्रस्तावना जानेमाने बुद्धिजीवी एवं आंदोलनकारी डा. संजय बसु माल्लिक ने लिखा है।
"नगड़ी का नगाड़ा" एक संम्पादित पुस्तक है, जिसे देशज प्रकाशन, रांची ने प्रकाशित किया है। इस प्रस्तक का संपादन सुनील मिंज एवं ग्लैडसन डुंगडुंग ने संयुक्त रूप से किया है। वे लिखते हैं कि झारखंड की राजधानी रांची से सटे कांके थाना क्षेत्र में स्थित नगड़ी गांव विगत कई महिनों से रणभूमि बन चुकी है क्योंकि राज्य सरकार वहां के आदिवासियों की कृषि भूमि पर आई-आई-एम-, ट्रिप्ल आई-टी- एवं लाॅ यूनिवर्सिटी बनाने पर तुली हुई है, जिसका वे भारी विरोध कर रहे हैं। आदिवासियों ने अपनी जमीन बचाने के लिए अबतक क्या-क्या नहीं किया. 150 दिनों तक सत्याग्रह में बैठे रहे, न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, उच्च स्तरीय कमीटि के सामने गुहार लगाई, रैyh, मसाल जुलूस, धरना, प्रदर्शन एवं झारखण्ड बंद तक किया लेकिन दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र ने उन्हें न्याय देने के जगह पर पुलिस की लाठियों से नवाजा, उन्हें फर्जी मुकदमों में फंसाया और कुछ को जेल तक पहुंचा दिया। क्या ये लोेग इस लोकतंत्र में न्याय की उम्मीद कर सकते है जो उनके आजीविका के संसाधन उनसे छिनने पर तुली हुई है। माननीय उच्च न्यायालय ने तो सरकार को यहां तक कहा कि जरूरत पड़े तो सीआरपीएफ लगाओ। फलस्वरूप, उनके खेतों के चारों ओर 'नक्सली मारो अभियान' में लगे बंदूकधारी जवानों को लगा दिया गया है जैसे ये लोग माओवादी बन गए हों। लेकिन ग्रामीण भी कहां डरने वाले थे उन्होंने अपने खेतों की जोताई की, बीज बोये एवं धान की रोपनी की। हलांकि यह सब करने के लिए उनके खिलाफ कई अपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं और कुछ लोगों को जेल भी जाना पड़ा। इसे आप समझ सकते हैं कि यहां किसानों की क्या स्थिति है? जिन्हे देश के रीढ की हड्डी कहा जाता है, उनके साथ सरकार लगातार अन्याय कर रही है और उसका एक ही मकसद है पूंजीपति, सफेदपोस एवं बड़े-बड़े लोगों को खुश करना। क्या यहां शिक्षण संस्थान आदिवासियों के लिए बनाया जा रहा है? कितने आदिवासी बच्चे यहां पढ़ेंगे?
‘‘उलगुलान का सौदा‘‘ नामक पुस्तक मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग की पहली कृति है, जिसे झारखंड इंडिजिनस पीपुल्स फोरम, रांची ने 2009 में प्रकाशित किया था। यह पुस्तक न सिर्फ दुनियां के स्टीन के बादशाह कहलाने वाले लक्षमी नारायण मित्तल की स्वामित्व वाली ‘अर्सेलर मित्तल कंपनी’ द्वारा झारखंड के खूंटी जिले में आदिवासियों की जमीन हड़पने के लिए तरह-तरह से अपनाये गये हथकंडों की कहानी कहती है बल्कि विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर आदिवासियों की जमीन, जंगल, पहाड़, नदी एवं खनिज को लूटने तथा इसके प्रभाव को दुनियां के सामने पेश करती है। आर्सेलर मित्तल के षडयंत्र को चिन्हित करते हुए लेखक लिखते हैं कि बदलते घटनाक्रम में आर्सेलर मित्तल ने 300 मिलियन डालर समाज सेवा में खर्च करने की घोषणा की है। इस पैसे को पुर्नस्थापना, पुर्नावास एवं सामाजिक सरोकार कार्यक्रम के तहत इस क्षेत्र के शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास, आर्थिक कार्यक्रम, सामाजिक-संस्कृतिक एवं महिला सशक्तिकरण के लिए खर्च किया जायेगा। मीडिया ने इससे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हुए कहा है कि मित्तल झारखण्ड का भविष्य बदल देगा। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि भारत सरकार एवं टाटा के साथ सैकड़ों औद्योेगिक घरानों ने झारखंड क्षेत्र में पिछले 60 वर्ष में कुछ नहीं कर सका वह काम सिफ एक मित्तल कैसे कर सकता है़? मितल सामाजिक सरोकार कार्यक्रम को तोरपा-कमडारा क्षेत्र में लागू करने पर बहुत उतवला हो रहा है। इसलिए मितल के समाज सेवा पर प्रश्न चिन्ह लगना जरूरी है। क्योंकि अबतक मित्तल ने देश के लिए एक फुटी कौड़ी खर्च नहीं किया है। क्या मित्तल का सी0एस0आर0 काॅरपोरेट सोशल रिस्पोसिबलिटि कहीं कांस्पिरेसी फाॅर स्नैचिंग रिर्सोसेस ;संसाधन छिनने का षडयंत्र तो नहीं है? मित्तल के समाज सेवा का असलीयत समझना है तो उसकी झारखण्ड यात्रा के इतिहास को समझना होगा।
बहुत तकलीफ होती है यह जानकर कि हमें इन जुल्मियों के आगे भी अपने हाथ जोड़ने पड़ते हैं !
जवाब देंहटाएंजय जोहर सर मुझे पुस्तके खरीदनी है ,कृपया आपका सम्पर्क दिजिए,जय सेवा जहर 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंजय जोहर सर 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंAdhunik bharat me adivasi samaj ko aina ki tarh dikhane ki kosish
जवाब देंहटाएंdundun sir kr rahe adivasibsamaj ke liye bahut badi uplbdhi hai,