शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

तूफान से टकराने का साहस

ए.एच. डेस्क

ग्लैडसन डुंगडुंग एक प्रसिद्ध आदिवासी एक्टिविस्ट, लेखक एवं प्रखर वक्ता के रूप में जाने जाते हैं। वे आदिवासी मुद्दे के बेस्ट सेलर लेखक हैं और एक सफल वक्ता भी, जिन्हें सुनने के लिए सैकड़ों कार्यक्रमों में बुलाया जाता है। लेकिन उनका अतीत बहुत ही भयावह रहा है। वे झाड़खंड के सिमडेगा जिले स्थित लट्ठाखम्हान गांव के खड़िया आदिवासी समुदाय से आते हैं। उनका पैतृक गांव सिमडेगा शहर से लगभग 5 किलोमीटर पूरब दिशा में स्थिति बेरनीबेड़ा है। 1980 के दशक में सरकार के द्वारा सिंचाई परियोजना के तहत छिंदा नदी को बांधकर बनाये गये डैम में कृषि जमीन डूब जाने के कारण मजबूर होकर उनका परिवार जंगल की ओर चल पड़ा। इसी दरमियान उनका जन्म लट्ठाखम्हान गांव में हुआ। जंगल-झाड़, नदी-झरना, पशु-पक्षी, खेत-खलिहान और फल-फूल से सराबोर प्रकृति की गोद में उनका बचपन बीता। उनकी प्रारंभिक पढ़ाई भी आम और महुआ पेड़ों के नीचे हुई क्योंकि सरकारी विद्यालय भवन को लेकर विवाद चल रहा था।

जब वे आगे की पढ़ाई करने के लिए गांव से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सिमडेगा शहर साईकिल से जाना शुरू किये तब उनके जीवन में अचानक तुफान आ गया जो कल्पना से परे था। 20 जून 1990 को सिमडेगा कोर्ट जाते समय जंगल के बीच में उनके माता-पिता की एक साथ हत्या कर दी गई। वे गांव के ही एक व्यक्ति का जमीन विवाद के सिलसिले में कोर्ट जा रहे थे। परिवार में ग्लैडसन डुंगडुंग के साथ उनके दो बड़ी बहनें एवं एक बड़ा भाई है। इस तरह से एक झटके में चार बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो गया था। शवों को दफनाने के बाद रिश्तेदारों ने निर्णय लिया कि बच्चे एक-एक रिश्तेदार के पास रहेंगे क्योंकि उनके लिए गांव में रह ठीक नहीं होगा। इस तरह से परिवार बिखर गया।

ग्लैडसन डुंगडुंग को छः महीने के लिए एस.एस. हाई स्कूल के हास्टल में रखा गया। इसके बाद फिर से उन्हे गांव वापस लौटना पड़ा। उनके लिए गांव में खेती, वनोपज और मजदूरी ही भविष्य निर्माण के लिए उम्मीद बना। वे सुबह में खेती कार्य करने के बाद विद्यालय जाने लगे। पुस्तक, कपड़े और अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए लाह और महुआ उनका सहारा बना। उन्होंने जवाहर रोजगार योजना के तहत सड़क निर्माण में मजदूर कर पैसा इक्ट्ठा किया। इस तरह से मैट्रिक पास कर गये। लेकिन सिमडेगा कालेज में नामांकन कराने के लिए 250 रूपये का जुगाड़ नहीं कर पाये। इस तरह से एक बार फिर से उनके भविष्य पर ब्रेक लग गया।

लेकिन कभी तो सुबह होगी की उम्मीद लगाये हुए भैंस चराते समय भी पुस्तक पढ़ते रहे। इसी बीच सड़क किनारे अपने चचेरे भाई की दुकान में साईकिल मरम्मत करने, राशन का सामान बेचने एवं चाय बनाकर बेचने के काम में लग गये। इस तरह से उन्होंने पैसा इक्टठाकर अगले साल कालेज में नामांकन करवाई लेकिन कुछ ही दिनों के बाद उन्हें कालेज और अपना गांव छोड़कर पलायन करना पड़ा। अंततः वे संघर्ष करते हुए पटना, दिल्ली और पुने में पढ़ाई पूरी की।    

2004 में झारखंड वापस आकर यहां उन्होंने आदिवासियों मुद्दां को कई स्तर से हस्तक्षेप करना शुरू किया। मानव अधिकार हनन के मामलों को गंभीरता से उठा और सैकड़ों लोगों को न्याय दिलवाया। वे अबतक मानव अधिकार हनन के 500 मामलों का अनुसंधान एवं 300 मामलों में कानूनी हस्तक्षेप किया है। वे आदिवासी मामलों में सबसे ज्यादा लिखने वाले आदिवासी लेखक हैं। उनकी प्रमुख पुस्तकों में ‘‘एंडलेस क्राई इंन द रेड कारिडोर’’, ‘‘मिशन सारंडा’’, ‘‘हूज कंट्री इज इट एनिवे?’’, ‘‘क्रासफायर’’, ‘‘आदिवासी और वनाधिकार’’, ‘‘पत्थलगड़ी से क्यों भयभीत हैं राजसŸ?’’, ‘’उलगुलान का सौदा’’, ‘‘विकास के कब्रगाह’’ एवं ‘‘झारखंड में अस्मिता संघर्ष’’ हैं। अंग्रेजी पुस्तकों का विमोचन विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली, सोवास गैलरी लंदन, ससेक्स विश्व विद्यालय, इंग्लैंड एवं जेएनयू, नई दिल्ली में हुआ है।

इन्होंने ‘‘नगड़ी का नगाड़ा’’ एवं ‘‘झारखंड मानवाधिकार रपट 2001-2011’’ का सम्पादन किया है। इसके अलावा इन्होंने अबतक हिन्दी और अंगेरजी में 500 से ज्यादा आलेख लिखा है, जो दैनिक अखबारों, पत्रिकाओं एवं सम्पादित पुस्तकों में प्रकाशित हो चुके हैं।

इन्होंने आदिवासियों के मुद्दों को संयुक्त राष्ट्र, जेनेवा, स्वीट्जरलैंड, 25वां यूरोपियन काफ्रेंस, पेरिस, फ्रांस, ग्लोबल लैंडस्केप फोरम, बोन जर्मनी, अन्तर्राष्ट्रीय आदिवासी सम्मेलन, बर्लिन, जर्मनी, अन्तर्राष्ट्रीय दलित-आदिवासी सम्मेलन, बैडबाल, जर्मनी, अन्तर्राष्ट्रीय भूमि सम्मेलन, कोपेनहेगेन, डेनमार्क, अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन, ससेक्स, इंग्लैंड एवं एशिया सम्मेलन, चियंगमाई, थाईलैंड में प्रमुखता से उठाया है।

आदिवासी मुद्दों को प्रमुखता से उठाने के लिए उनके उपर सरकार विरोधी, विकास विरोधी और नक्सलियों के समर्थक होने का आरोप भी लगा। भारत सरकार के द्वारा माओवादियों के खिलाफ चलाये जा रहे आपरेशन ग्रीनहंट में निर्दोष आदिवासियों की हत्या, बलात्कार एवं अत्याचार का खुलासा करने के चलते झारखंड पुलिस ने उन्हें नक्सल समर्थक होने का आरोप लगाया।

झारखंड की राजधानी रांची स्थित नगड़ी गांव के खेती की जमीन पर सरकार के द्वारा आई.आई.एम., ट्रिपल आई.टी. एवं ला यूनिवर्सिटी निर्माण हेतु भूमि अधिग्रहण के खिलाफ चल रहे आंदोलन में प्रखर होने के लिए 25 जुलाई 2012 को मुकदमा दर्ज किया गया और 4 अक्टूबर 2013 को उनका पासपोर्ट रद्द कर उसे जमा करने का आदेश दे दिया गया। जांच के बाद पासपोर्ट लौटाया गया लेकिन 9 मई 2016 का लंदन जाते समय दिल्ली एयरपोर्ट पर फिर से उनका पासपोर्ट जब्त कर हवाई जहाज से उनका समान उतार दिया गया।

लेकिन अंततः दो महीने के बाद सरकार को उनका पासपोर्ट लौटाना पड़ा। इतना ही नहीं झारखंड सरकार के द्वारा सीएनटी/एसपीटी कानूनों में किये गये संशोधन के खिलाफ 2016 एवं 2017 में चल रहे आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाने के लिए उनके खिलाफ दो मुकदमें दर्ज किये गये हैं।

ग्लैडसन डुंगडुंग झाड़खंड में चल रहे विस्थापन विरोधी आंदोलन, मानवाधिकार आंदोलन एवं वनाधिकार आंदोलन में पिछले डेढ़ दशक से सक्रिय हैं। वे भारत सरकार द्वारा योजना आयोग के अन्तर्गत गठित ‘एसेसमेंट एंड मानिटरिंग आथोरिटी’ में सम्मानित सदस्य के रूप में मई 2011 से अप्रैल 2013 तक अपनी सेवा दे चुके हैं। आदिवासी मुद्दों पर महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए ‘समतापर्व प्रतिष्ठान’, यवतमाल (महाराष्ट्र) ने इन्हें ‘समता रत्न पुरस्कार 2014’ से सम्मानित किया है। आदिवासी समाज को बौद्धिक, सशक्त एवं समृद्ध समाज बनाने के लिए वे बौद्धिक आंदोलन को निरंतर आगे बढ़ा रहे हैं।   

2 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  2. जय जोहार !
    जिनका संघर्ष ही इतना दुरूह हो तो कोई कैसे उसे गलत ठहराए! ग्लैडसन डुंगडुंग वाकई बड़े जीवट वाले आदिवासी है, और ऐसे लोग ही अपने समाज की आवाज को मुखरता से कह पाते हैं !!

    जवाब देंहटाएं